Wednesday, December 8, 2010

अनुभूति--21, "अँधेरा या उजाला" 05.07.07

"अँधेरा या उजाला"

जिन्दगी के रास्ते से गुजरते हुए,
रौशनी ने कुछ लोगों की फुसफुसाहट सुनी,
ठिठक कर वो बीच रास्ते में ही रुक गयी,
सुनकर लोगों की बातें उसकी धड़कने कुछ थम सी गयीं,

उसका हृदय दुःख से चीत्कार कर उठा,
दुःख का लावा फूट कर अंखियों से बह निकला,
द्रवित होकर भरे गले से वो लोगों से बोली,
जरा रुको...., जरा ठहरो...., थोडा धीरज रखो....,
क्यों कोस रहे हो तुम सब मिलकर अँधेरे को,
क्या बिगाड़ा है उसने तुम्हारा,

लगता है तुम सब उसको समझते हो बेसहारा,
क्यों अपनी कमियों को छुपा-छुपा कर अँधेरे को बदनाम करते हो,
अँधेरे की आड़ लेकर स्वार्थ पूरित काम स्वम करते हो,
दिन के उजियारे में चार आदमियों में खड़े होकर,
अँधेरे पर दोष मड़ा करते हो,

अपने मुंह मियां मिठु बनकर, सब पर रौब ग़ालिब किया करते हो,
ख़बरदार, आगे से जो तुमने ऐसा किया,
लज्जा नहीं आती तुम सबको, ऐसी बेशर्माई पर,
निरादर करते हो तुम उसी का इस भरी चौपाल पर,
बेवकूफ है क्या वो, जो ढकता रहता है, तुम सबके कुकृत्यों को,
अपनी काली चादर फैलाकर,

समस्त देवताओं, राक्षसों,गणों,मुनिओं,भक्तों प्राणियों को,
अपने हृदय में स्थान देता है,
सुखद निद्रा प्रदान कर सबको तरो- ताजा रखता है,

देखो मेरी तरफ, मैं तुम सबकी रौशनी हूँ,
पर इस अँधेरे की तो मैं, एकमात्र अंक-शाइनी हूँ,
सारा दिन मैं समस्त प्राणियों के लिए कार्य करती हूँ,
पर सांझ को थक कर इसी अँधेरे के आगोश में ही तो मैं विश्राम करती हूँ,
केवल इसी के सनिग्ध्य में ही तो मैं सुख पातीं हूँ,
आदि से लेकर अंत तक इसी की अर्धांगिनी कहलाती हूँ,

कितना पावन है हम दोनों का मिलन, क्या तुम नहीं जानते,
अमृत बेला संध्या को क्या तुम नहीं पहचानते,
इन्ही दिव्य छनो में ही तो देवी देवता रमण करते हैं,
जाने कितने भक्तों साधकों के हृदय में इस छण, "प्रभु" विचरण करते हैं,

अब तो तुम समझ ही गए होंगे, मेरे "तिमिर" के महत्व को,
अरे बनाया है हम दोनों को "माँ आदि" ने, इसी सृष्टि के चालन को,
एक के बिना दूजा अधूरा है,
"तम" के बिना होता कभी सवेरा है,

"जय श्री माता जी"

-------नारायण

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