Wednesday, August 3, 2011

"चिंतन"---37----"मानवीय 'चेतना' के दो सहचर

"मानवीय 'चेतना' के दो सहचर"

हम सभी मानवों की चेतनाओं को मुख्यत: दो सहचरों का साथ मिलता है और वो हैं प्रथम सहचर, हमारा 'मन'(कोष) जिसका निर्माण हमारे प्रथम मानवीय जन्म  के साथ ही हो जाता है, जहाँ भी हम जाते हैं , जो भी हम करते हैं, जिसके साथ भी हम रहते हैं, जो भी वस्तु का हम उपभोग करते हैं,जो भी कार्य हम करते हैं, जो भी वातावरण हमें रहने को मिलता है उन सभी की स्मृतियाँ मन रुपी कोष में भर जाती है और ये सभी स्मृतियाँ अगले ही पल में ज्ञान का रूप ले लेती हैं, अत: हमारा मन मूर्त रूप धारण कर लेता है और आगे के सांसारिक कार्यों के लिए हमारा मार्ग दर्शन करता है।

जब भी हमारा सर्व प्रथम जन्म हुआ था तो उस समय हमारे पास केवल एक ही ज्ञान था और वो था हमारे 'उद्गम' का ज्ञान यानी 'परमपिता' का ज्ञान, क्योंकि ईश्वर ने हमें हमारी 'आत्मा'(साक्षी) व् जीवात्मा'(प्रेरणा) के साथ जन्मा है और संसार में रहने के लिए हमारी जीवात्मा ने ही मन(कर्ता) का निर्माण किया. क्योंकि जीवात्मा तो संसार के भ्रमण पर आयी है परमात्मा की इस रचना का अनुभव करने आई है और इस संसार में विचरण करने के लिए ही उसने मन रुपी कोष  को उत्पन्न किया है। 

जीवात्मा तो परम-पिता की शक्ति का अंश है एक प्रकार से 'परमात्मा' के पूर्ण ज्ञान का कोष है और संसार के तौर तरीको को बिलकुल भी नहीं जानती और न ही वो इनमे लिप्त ही हो सकती है. अत: अपनी सुविधा के लिए उसने मन का सहारा लिया है जैसे की हम यदि कहीं किसी भी जगह घूमना चाहते हैं कोई गाडी किराये पर ले लेते हैं और जगह-जगह घूमते हैं. इस कारण हमारा मन पहले से ही 'परमात्मा' को जानता है. क्योंकि उस वक्त हमारे पास कोई विकार नहीं था और न ही कोई सांसारिक स्मृति ही थी।

जैसे की यदि कोई बच्चा इस संसार में जन्म लेता है तो प्रारंभिक अवस्था में वो बिलकुल भी नहीं जानता की वो कहाँ रहेगा, क्या खायेगा, किसके साथ रहेगा, इसी प्रकार से मन को भी नहीं पता था की उसे क्या-क्या देखना होगा. और जब धीरे-धीरे बड़ा होता जाता है तो बहुत सी यादें ज्ञान के रूप में उसके साथ जुडती जातीं हैं और बच्चा इस संसार में जीने योग्य ज्ञान को प्राप्त करता जाता है।

जब हमारा दुबारा जनम होता है तो वास्तव में हमारी जीवात्मा(कुण्डलिनी) ही मन को अपने भीतर में धारण करती है, और हमें जन्म देकर पुन: मन को मुक्त कर देती है और मन हमारे लेफ्ट-आगन्या से जुड़ जाता है  ताकि जिस मानव को उसने जन्म दिया है उसे संसार में रहने योग्य ज्ञान मन की सहायता से विरासत में मिल जाए. इसीलिए हम सभी जन्म लेने के  दो-तीन वर्षो  बाद अपने-अपने मन की करने लगते हैं. पसंद-नापसंद जाहिर करने लगते हैं। 

जैसा की  'श्री माँ' ने बताया था की कुण्डलिनी जन्म देने के बाद हमारी त्रिकोणकार अस्थि में बैठ जाती है और एक प्रकार से निष्क्रिय हो जाती है जब तक के उसको पुन: जगाया न जाए तो ऐसी दशा में मन ही उसे समस्त प्रकार के अनुभव करता है क्योंकि वह सक्रिय हो जाता है. तो इससे ये निष्कर्ष निकलता है की मन भी इसका अप्रत्यक्ष रूप में सहायक होता है. परेशानी केवल तब ही बढती है जब मन सांसारिक उपभोग में रम कर आगे की यात्रा को रोक देता है और पूरी तरह संसारिकता में लिप्त हो जाता है और छणिक आनंद के चक्कर में फंस जाता है। 

ऐसी ही दशा में कुण्डलिनी को बहुत घुटन होती है और वो छटपटाना प्रारंभ कर देती है और मानव को बहुत ही असंतोष का अनुभव होता है. अपनी असंतुष्टि को दूर करने के लिए वो एक-एक करके अपनी सुविधा व् पसंद की सभी वस्तुएं व् मानवों को अपने चारों ओर एकत्रित करता जाता है फिर भी उसके भीतर का असंतोष नहीं जाता तब थक-हार कर वो 'परमात्मा की ओर मुड़ता है और उनसे जुड़ने की सच्ची पुकार करता है। 

यही वो अनमोल क्षण होता है जब उसको कोई सद-मार्ग मिलता है और परमपिता के द्वारा उसकी कुण्डलिनी जागृत करने  की व्यवस्था कर दी जाती है। और जब कुण्डलिनी जागृत हो जाती है तो मन बड़ा प्रसन्न होता है क्योंकि उसका भूला हुआ साथी उसे पुन: प्राप्त हो जाता है. और इसी क्षण से मानव की चेतना को दूसरा 'सहचर' उपलब्ध हो जाता है. और अब मानव के जीवन का आनंद बढता जाता है। 

पहले तो उसे केवल संसार की चीजो व् हालात का ज्ञान था अब उसे अपने वास्तविक 'माता-पिता' का ज्ञान भी होने लगता है. वह स्वम को सुरक्षित व् प्रसन्न महसूस करने लगता है. एक तरफ मानव 'माँ कुण्डलिनी' का दुलार पाता है तो दूसरी ओर 'मन' उसका परम मित्र बन जाता है, जो पहले अक्सर उसे जिद्दी बच्चे के सामान कष्ट देता था. अब मानव दोनों के ही ज्ञान का लाभ उठता है, एक तरफ 'परमात्मा' के द्वारा बनाये गए संसार का मजा लेता है तो दूसरी ओर 'परमपिता' के सानिग्ध्य का लाभ भी उठाता है और अपने मानवीय जीवन को सफल बनता है. इसीलिए देवता भी इस मानवीय जीवन को तरसते रहते हैं। 

ऐसी सुन्दर स्थिति में अब मन भी एक यात्री बन जाता है और कुण्डलिनी का मित्र बन कर उसके साथ पुन: घूमना प्रारंभ कर देता है और हम सभी की मानवीय चेतना को दोनों प्रकार का लाभ अच्छे से मिलना प्रारंभ हो जाता है और हम सबकी चेतना उत्थित होने लगती है। कभी-कभी हमारा मन जब अनेको भावनाओं की वीथिकाओं की भूल-भूल्भुल्य्या में फंस जाता है तो अपनी शक्ति देकर 'माँ कुण्डलिनी' उसे बाहर निकाल देती है।

और जब भी कभी साधक, साधना में अत्यधिक लीन होकर सांसारिक कर्तव्यों से विमुख होने लगता है तब मन अनेको सुन्दर-सुन्दर स्थितियां दिखा कर साधक को अति-गाम्भीर्य से बचाता है और 'परमात्मा' के बनाये सुन्दर संसार का आनंद भी दिलाता है और संतुलित रखता है.  इस प्रकार से दोनों ही 'सहचर' किसी भी प्रकार के अति-वाद से हमें बचाने में  हमारी मदद करते हैं।

तो इस प्रकार से हमारा मन हमारी कुण्डलिनी 'माँ' को मानवीय स्वभाव व् भावनाओं से परिचित करता है और हमारी कुण्डलिनी माँ मन को परमात्मा के बनाये अनेको लोको व् अलोकिक दुनिया से अवगत कराती है और दोनों ही एक दूसरे के ज्ञान से संपन्न हो जाते हैं, एक दूसरे के पूरक हो जाते हैं। 

कुण्डलिनी मन का रूप धर लेती है और मन कुण्डलिनी का रूप धारण कर लेता है. कुण्डलिनी का लाभ संसार को मिलना प्रारंभ हो जाता है और मन का आनंद समस्त देवी-देवताओं को मिलने लगता है।  कुण्डलिनी की शक्ति समस्त मानवो को जाग्रति देने व् जोड़ने का कार्य करती है और मन सभी मानवों में आनंद भर देता है।  इधर कुण्डलिनी आनंदित रहने लगती है उधर मन शक्ति शाली हो जाता है। 

कुण्डलिनी 'माँ' बन जाती है और मन पिता बन जाता है. और दोनों एक दूसरे में समां कर  अर्ध-नारीश्वर बनकर सत्य साधक को सदा आशीर्वादित करते रहते है और साधक दोनों से प्रेम पाकर  सारी मानव जाति को लाभान्वित करता चला जाता है और पूर्ण रूप से मुक्त हो जाता है. इसीलिए कहा जाता है की 'भगवान मन में रहते हैं'। 

-------------------------Narayan

"Jai Shree Mata ji" 



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