Tuesday, June 17, 2014

"अनुभूति--2---"स्त्री घोर कलियुग की"-(24.09.03)

"स्त्री  घोर कलियुग की"

स्त्री के रूप हैं चार, धोखा, स्वार्थ, झूठ और अहंकार,
सारे रिश्ते तोड़ मरोड़ कर, 
करती रहती वो व्यापार,

अपने मनोभावों की पूर्ती की खातिर, 
करती रहती वो अत्याचार,
लेकर अपनी, अनियंत्रित व् अनंत इच्छाओ को ,
खूब डराती, खूब धमकाती और हड़काती बारम्बार।

इसके कुकृत्यों से छटपटाकर, 
पीड़ित होता ये सारा संसार,

जब तक किसी को मिटा न डाले, आता नहीं इसके हृदय को करार,
स्त्री के रूप हैं चार, धोखा, स्वार्थ झूठ और अहंकार।

सारी मानवता का गला यही घोटती, 
फिर भी ममतामयी माँ कहलाती,

सारे प्रेम को नष्ट-भ्रष्ट यही करती, 
फिर भी प्रेम की  मूरत कहलाती,

सारे मानवो को अशक्त यही करती, 
फिर भी यह शक्ति कहलाती,

सारे संसार का अमन चैन नष्ट यही करती, 
शांति का प्रतीक यह बन जाती,

बल पुरुषो से यही चूसती, फिर भी यह अबला कहलाती,
नष्ट कर कोमल भाव पुरुषों के, 
संहारक ये उन्हें ही बनाती।

बन कर बहिन यही पुरुष की, 
अकसर अपमान, उनका करवाती,

बन कर माँ यही पुरुष की, 
स्वार्थपूरित सदा भाव दिखाती,
गिरकर अकसर निम्नतम स्तर पर, 
जन्म देने की कीमत भी, संतान से, आजीवन चाहती,

बन कर पत्नी यही पुरुष की, पतन पुरुष का यही कराती,
जमा कर कब्ज़ा धड़कनो पर भी पुरुष की, 
बेबस पुरुष को यही बनाती,

बन कर मीत यही पुरुष की, 
चलाकी पूरित खेल दिखाती,
फसा कर पुरुष को झूठे प्रेम जाल में, 
सारी धन-सम्पदा स्वम् ही हड़प जाती।

घिर कर इन्ही नाकारत्मकताओ से स्वम्, कहर संसार में  यही बरपाती,
यही उठाती,यही बनाती,यही गिराती, 
अंत में यही कर देती है बरबाद।

पापियों को जन्म यही देती, चोर, डाकू तैयार यही करती,
अत्याचारी, आतंकवादी, भी यही बनाती,
दूसरी स्त्री इसे कभी नहीं सुहाती,
फिर भी कहलाती ये रचनाकार,
स्त्री के रूप हैं चार, धोखा, स्वार्थ, झूठ और अहंकार।

कँहा  है सीता, कँहा बाई लक्ष्मी, कँहा है चाँद बीबी, कँहा है पन्ना धायी,
कँहा हैं माताये राजा चक्रवर्ती की,

नष्ट कर दिए हैं इसी ने सुन्दर रूप आज स्त्री के,
बदल गया है आज मायने स्त्री का।

न रही वो लक्ष्मी, न रही वो माता, 
ना रही वो पत्नी और ना ही रही वो मीत,

फंस कर चंगुल में षटरिपुओं के, निरंतर कर रही यह नरसंहार,
स्त्री के रूप हैं चार, धोखा, स्वार्थ, झूठ और अहंकार।

समझ सको तो समझ लो मेरे भाई, 
नहीं हो सकती आज तेरी ऎसी स्त्री संग रसाई,
रहना है यदि संग इस स्त्री के,इस सीख को गांठ बांध लो मेरे भाई। 

ताल थोक कर उठ जा अब तू, होश ठिकाने लगा ले अब तू,
कभी भरोसा न करियो ऐसी स्त्री पे, 
रहियो भरोसे सदा तू अपने।

लेकर नाम प्रभु का हृदय में, जगा  ले तू अपनी अनंत शक्तियों को तप में ,
   लगाकर चित्त सहस्त्रार पर अपने , 
कर स्मरण 'इष्ट' का मन  में,

रख कर भाव जागृति का हृदय में, 
कर आव्हान समस्त शक्तियों का जप में,
जगा  काली को, जगा  दुर्गे को, बन जा तू स्वम् तत्व 'महा लक्ष्मी'।

तू ही 'विष्णु', तू ही 'ब्रहम्मा', तू ही तो है 'महेश', 
करता है तू आराधना "शिव" की, अरे तू ही तो है स्वम् 'श्री गणेश',
तू ही रचयिता, तू ही संहारक, तू ही तो है पालनहार।

पाले तू उस अनंत स्रोत को अपने,
उतर जा उस चिरस्थाई समाधि में अपनी।

वही आनंद है, वही शक्ति है, वही तो है एकमात्र सत्य,
यही तो है तेरा एक मात्र लक्ष्य।

पाकर इस असीम आनंद को, 
पाकर इस अदभुत शान्ति व् शक्ति को,
पाकर इस अनुपम सत्य को, 

रख कर चित्त प्रभु चरनन में,
कर दे इस कलुषित स्त्री के समस्त अवगुणों का संहार। 

बना  दिया जिसने समस्त वातावरण दूषित,
कर दिया घिनौना यह संसार।

चल उठ भोर हुई अब, लेले हाथ में यह कार्य अनुपम,
प्रेरित है तू परमात्मा की इच्छा से,
सराबोर है तू परम चैतन्य से। 

कर दे निर्माण पुनः उसी 'प्रेममयी' स्त्री का, 
जिसको समर्पित होता है ये संसार।

डाल दे उसमे उच्च क्षमताओ से युक्त संवेदनशीलता को,
ताकि अतृप्त न रहे कोई भी मानव इसके किसी भी रूप से। 

शुद्ध प्रेम का स्रोत हो वो, 
दैवी गुणों से सुसज्जित हो वो,
मानवता की मूरत उसमे झलके, प्रेम की वो पराकाष्ठा बन जाए। 

देव गणो के हृदय को भी वो लुभाये,सारी मानव जाती अपना दुःख 
बिसराये,ऐसी ही स्त्री तेरे द्वारा बन जाए। 

जिसमेँ दिखे ये लक्षण चार,
प्रेम, करुणा, दया और सम्मान।।

-------इति श्री ------
अनुभूति -2 (24-09-03)

नोट :--कृपया पाठक गणो से मेरी चेतना का अनुरोध है की वे इस अनुभूति को आलोचना व् निंदा के रूप में न ले, क्योंकि ये अनुभूति विकृति से आच्छादित स्त्री की मानसिकता पर आधारित वास्तविक अमुभावों व् अवलोकन के आधार पर ही प्रस्फुटित हुई है और इसका आधार पीड़ा ही है।  
बल्कि इसे एक परिष्कृत उद्देश्य के रूप में ले ताकि हमारी ये दुनिया और भी सुन्दर हो जाए। मैं भी अनेको अवगुणो से युक्त एक मानव ही हूँ जो "आदि माँ" को शरणागत है, और स्वम् में निरंतर सुधार की आकांशा के भाव रखता हूँ व् नारी शक्ति व् वास्तल्य के प्रति पूर्ण आस्था व् श्रद्धा रखता हूँ। 


1) हमारे समाज में कुछ नरपिशाच  छोटी-छोटी बच्चियों का बलात्कार करते हैं और अकसर ऐसे अपराधियों को बचाने वाली अन्ध मोह-ग्रस्त उनकी ही जन्म दात्रियां होती हैं। 

2) बेटे की शादी कर पराई लड़की को बहु बनाकर  घर में लाने वाली और फिर दहेज़ के लालच से ग्रसित होकर अपनी  ही बहु को जिन्दा जलाने वाली दुष्टा स्त्री ही होती है। 

3) बेटी के जन्म पर अफ़सोस करने वाली और बाद में बेटे के पैदा होने पर बेटी के साथ अन्याय करने वाली भी स्त्री ही होती है। 

4) बेटी की शादी कर उसको गलत बाते सीखा कर अपनी ही बेटी का घर उजाड़ने वाली, फिर झूठे दहेज़ के केस में फंसवा कर बेटी के निर्दोष पति व् उसके घरवालो को जेल भेज कर उनकी संपत्ति हड़पने वाली भी एक ऐसी ही स्त्री होती है।

5) और तो और बेटे के लालच में अपनी ही बेटी को उसके जन्म से पहले ही अपने गर्भ में ही हत्या करने वाली भी एक स्त्री ही होती है।   

और भी ना जाने हमारे समाज में कितने ही ऐसी स्त्री के कुकृत्यों के अनेको उदहारण मौजूद हैं, यदि "श्री माँ" के आशीर्वाद से हमारी 'जागृत स्त्री शक्ति' चाहे तो ये हमारा समाज बहुत ही सुन्दर हो जाएगा। 

------------------------------------Narayan 

"Jai Shree Mata Ji"
       





























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