Wednesday, February 8, 2017

'Impulses'--340--"संदेह"

"संदेह"

"कभी कभी कुछ साधक/साधिकाएं कुछ समय के लिए अकर्मण्य हो जाते हैं तो वो ध्यान से सम्बंधित कार्य ही करते हैं और ही सांसारिक कार्यों में कोई रूचि ही महसूस कर पाते हैं। 

उनको ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे उनका जीवन बिलकुल नीरस हो गया है, जैसे जीवन में कुछ शेष ही नहीं रह गया है, उत्साह की बेहद कमी महसूस होने लगती है, दैनिक जीवन के छोटे छोटे काम भी बोझा लगने लगते हैं।

वे सोचने लगते हैं की आखिर हमें हो क्या गया है, क्या कोई नकारात्मकता तो हमारे भीतर प्रवेश नहीं कर गई है जिसके कारण हमें हर चीज से अरुचि होती जा रही है। 

क्या हम सहज से बाहर की तरफ तो जाने नहीं लग गए हैं।"माँ" तो कहती हैं आत्मसाक्षात्कारी सदा आनंद में रहते हैं, पर हमारे भीतर तो आनंद कहीं नजर ही नहीं अस रहा है।

जरूर कुछ हमारे यंत्र में कुछ गड़बड हो गई है, तो चलो थोडा क्लियरिंग कर ली जाए, पर ये क्या, क्लियरिंग की भी इच्छा नहीं हो रही है। अब तो पक्का है कि कोई नेगेटिविटी जरूर हमारे अंदर गई है। 

इस प्रकार की बातें हम में से कई लोग सोचने पे मजबूर हो जाते हैं और भीतर ही भीतर दुखी हो जाते हैं। अब प्रश्न ये उठता है कि आखिर ये क्यों होता है ?

वास्तव में होता ये है कि हमारी ध्यान यात्रा सीढ़ियों के चढ़ने जैसी होती है और जब हम एक सीढ़ी से दूसरी सीढ़ी पर चढ़ रहे होते हैं तो एक पैर हमारा ऊपर वाली सीढ़ी व् दूसरा पैर नीचे वाली सीढ़ी पर होता है ये एक प्रकार की 'विलम्ब'(Pause) की स्थिति होती है।

जिसमे हम पूरी तरह से कुछ देर के लिए रुक जाते हैं तो ऐसी ही स्थिति हमारे सहज जीवन में यदा कदा प्रगट होती रहती हैं, तो चिंता करे बगैर हमें अपने सहस्त्रार व् मध्य हृदय से जुड़े ही रहना चाहिए कुछ समय बाद हमारे भीतर पुनः स्फूर्ति का संचार होगा और हम फिर जीवंत हो जाएंगे।"

------------------------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"

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