Saturday, February 16, 2019

"Impulses"--480--"सामूहिक ध्यान उत्थान कैसे हो" "भाग-3"


"सामूहिक ध्यान उत्थान कैसे हो
"भाग-3"

अब हम सभी सामूहिक रूप से चित्त के द्वारा किये जाने वाले ध्यान अभ्यास का प्रारम्भ "श्री माँ" को किये जाने वाले दण्डवत प्रणाम से करते हैं।

1.हम सभी सहजी जब "श्री माँ" को सर झुका कर दण्डवत प्रणाम करते हैं तो;

i)हमारा आगन्या,

ii) हमारी नासिका का अग्र भाग,

iii)हमारी उल्टी हथेलियां,

iv)हमारी कुहनियां,

v)हमारे घुटने,

vi) हमारे पांव के अंगूठे 'धरती माँ' के सम्पर्क में आते हैं।

तो सर्वप्रथम हमें अपनी चेतना को "श्री माँ" के "श्री चरणों" में ले जाकर अपने चित्त को अपनी कुंडलिनी के साथ सहस्त्रार पर ले आना चाहिए और "श्री चरणों" से आने वाले 'अलौकिक ऊर्जा' रूपी प्रसाद को अपने सम्पूर्ण यंत्र में कम से कम 1-2 मिनट तक उसी दशा में महससू करना चाहिए।

ii) इसके उपरांत हमें अपनी चेतना को 'माँ धरती' के साथ जोड़कर अपने आगन्या में 'उनकी ऊर्जा' इस प्रसाद को अपने चित्त के माध्यम से अपने आगन्या पर लाकर इसे 1-2 मिनट तक पोषित करना चाहिए।

इससे आगन्या चक्र की सक्रियता धीमे धीमे समाप्त होने लगती है और हम धीरे धीरे विचार रहित अवस्था को प्राप्त होने लगते हैं।

iii)और इसके बाद दोनों 'ऊर्जाओं' को अपने चित्त की सहायता से ले जाकर अपनी दोनों बाजुओं से लेकर दोनों हथेलियों में कुछ समय बहता महसूस करेंगे।

ऐसा करने से हमारी दोनों विशुद्धियाँ सन्तुलित हो जाती हैं जिससे किसी भी प्रकार के अपराध बोध आक्रमकता की भावना नष्ट होने लगती है और हम अपनी चेतना में सुखद स्वातंत्र्य को महसूस कर रहे होते हैं।

iv) फिर 'धरती माँ' "श्री चरणों" की मिश्रित ऊर्जा को अपनी नासिका के अग्रभाग पर कुछ देर तक प्रवाहित करते हुए "श्री माँ" से हृदय में प्रार्थना करनी है कि

हे "श्री माता जी" जाने अनजाने में भी यदि मेरे मन में कभी किसी भी प्रकार के अहंकार का भाव आये तो उसे तुरंत नष्ट कर दीजिएगा।

v) इसके बाद इस 'मिश्रित' ऊर्जा को अपनी दोनों कुहनियों पर प्रवाहित करेंगे जो हमारी नाभि का प्रतिनिधित्व करती हैं।

इस चित्त की प्रक्रिया से हमारी नाभि में यह 'दिव्य ऊर्जा' प्रवाहित होने लग जाती है जिससे हमारी चेतना हमारे मन की चंचलता से मुक्त होने लगती है।

vi) तदुपरांत इस 'प्राणदायिनी' ऊर्जा को कुछ देर तक हम अपने दोनों घुटनों में प्रवाहित करेंगे ताकि हमारा चित्त यदि भावनात्मक/आर्थिक समस्याओं में घिरा है तो बाहर निकल आये और ध्यान के लिए उपलब्ध हो सके।

हमारे दोनों घुटने बाई दाई नाभि को ही प्रगट करते हैं जो अक्सर हमारे मन में चलने वाली भावनात्मक आर्थिक समस्याओं में उलझ कर असंतुष्टि की अनुभूति कराती है।

vii) और अंत मे इस 'वात्सल्यमयी' ऊर्जा को अपने पांव के दोनों अंगूठो में कुछ और देर तक प्रवाहित करेंगे ताकि पांव में स्थित नाभि के चक्र पोषित हों और हमारी सांसारिकता के प्रति जड़ता की जकड़न समाप्त हो सके।

क्योंकि पांव के चक्र हमारी सांसारिक इच्छाओं अकांक्षाओं को विभिन्न ऊर्जा संकेतो के माध्यम से प्रदर्शित करते हैं। (इन ऊर्जा संकेतों के बारे में एक विस्तृत लेख पहले लिखवाया जा चुका है जो 31 मार्च को पोस्ट हुआ था।)

2.जब कुंडलिनी उठाने की प्रक्रिया का प्रारंभ करने की तैयारी करें तो उससे पूर्व अपनी चेतना को बड़ी श्रद्धा प्रेम के साथ अपनी 'कुंडलिनी माँ' के साथ जोड़ कर अपने चित्त द्वारा पता लाएंगे कि वो इस समय कहाँ पर उपस्थित हैं।

यदि हम पाते हैं कि 'वो' हमारे सहस्त्रार पर मौजूद हैं तो हम अपने चित्त के दूसरे छोर को अपनी हथेलियों के मध्य भाग में टिका देंगे।

और फिर हथेलियों के बीचों बीच ऊर्जा को वृत की गति में गोल गोल घूमता हुआ महसूस करेंगे। यदि उपरोक्त गोल गोल धूमती ऊर्जा की अभिव्यक्ति हमारी दोनों हथेलियों में हो रही हो।

तो इसका मतलब है कि कुंडलिनी शक्ति हमारे दोनों आगन्या की ऊपरी सतह पर वृत्ताकार गति में चक्कर लगा रही हैं जो यह प्रदर्शित कर रहीं हैं कि हमारे दोनों आगन्या पूर्णतया संतुलित हैं।

अतः अब हमें अपनी कुंडलिनी उठाने बंधन लगाने की प्रक्रिया को करने की कोई आवश्यकता नहीं है।  इसके साथ ही दोनों नाड़ियों की सन्तुलन प्रक्रिया से गुजरने की आवश्यकता भी समाप्त हो गई है।

हाँ यदि ये उपरोक्त घटना क्रम अनुभव हो रहा हो तो हम कुंडलिनी को उठाने, बांधने, नाड़ी सन्तुलन चक्रों के बंधन से सम्बंधित सभी प्रक्रियाएं कर सकते हैं।

जब हम कुंडलिनी को बांधने की क्रिया प्रारम्भ करें तो सर्व प्रथम हमें अपने चित्त के माध्यम से अपने मध्य हृदय, विशुद्धि सहस्त्रार को जोड़कर इन तीनो की मिश्रित ऊर्जा को अपने हाथों में ले आना चाहिए।

और तब जाकर अपने हाथ को सुषुम्ना नाड़ी पर मूलाधार से सहस्त्रार तक ले जाते हुए प्रत्येक गांठ को लगाते हुए हर नाड़ी की 'देवी' के साथ अपनी चेतना को जोड़कर।

'उनके' प्रेम वात्सल्य को अपनी चेतना में महसूस करते हुए 'उनकी' ऊर्जा को अपनी उक्त नाड़ी में प्रवाहित होता महसूस करेंगे।

3.और जब हम चक्रों पर एक एक करके मंत्र लेते हुए बंधन लगाने के लिए चलें।

तो सर्व प्रथम हम अपनी बायीं साइड से दाईं साइड तक अपने 'परिमल'(Aura) की ऊर्जा को अपनी हथेली उंगलियों के पोरवों के द्वारा आभासित करते हुए सभी चक्रों के देवी देवताओं के साथ अपनी चेतना को जोड़ते जाएं।

और उन सभी की शक्तियों प्रेम को विभिन्न प्रकार की 'ऊर्जा-हलचलों' के रूप में अपने उन सभी चक्रों में एक एक कर के बंधन देते हुए महसूस करें तभी हम उन सभी के साथ एक रूप हों पाएंगे।

उदाहरण के लिए यदि हम सबसे पहले चक्र, मूलाधार चक्र पर बंधन लगाना प्रारम्भ करें तो अपने चित्त की सहायता से सहस्त्रार मूलाधार चक्र को एक कर लें।

और अपनी चेतना को "श्री गणेश" के साथ जोड़कर ,'ओम श्री गणेशाय नम:' मन में लेते लेते 'उनके' प्रेम को अपनी चेतना में 'उनकी' शक्ति को मध्य नाड़ी में सहसत्रार से मूलाधार तक प्रवाहित होता हुआ महसूस करें।

साथ ही इस शक्ति के ठहराव को कुछ देर तक अपने मूलाधार में ऊर्जा रूपी हलचलों संवेदनाओं के रूप में भी महसूस करें। फिर यही क्रम सभी चक्रों पर इसी प्रकार से बंधन लगाते हुए एक एक करके सातों चक्रों तक दोहराते चलें।

इस अनुभूति भावों के साथ लगाया गया बंधन ही पूर्ण रूप से जागृत हो पाता है। अन्यथा यह केवल और केवल कृत्रिम मशीनी प्रक्रिया बन कर रह जाता है और इसका लाभ हमें कभी भी नहीं हो पाता।"

---------------------------------Narayan 🙏 😌 🌹
"Jai Shree Mata Ji"

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