Saturday, January 18, 2020

"अनुभूति"--18--"शिवलिंग"(02-01-07) 3.10am


"शिवलिंग"

"मुखातिब हूँ मैं तुझसे जाने बहार जिंदगी,

करता रहूंगा मेरे दिलबर तुझसे केवल तुझसे ही बन्दगी,

जब तक के लिए भी बख्शी है "अल्लाह ताला" ने मेरी जिंदगी,

तभी तू महसूस कर पायेगी मेरी सच्ची मुहब्बत की दरियादिली,

जब से "श्री माँ" ने तुझे काले शिवलिंग में तब्दील किया है,

उन्होंने तुझपे ही नहीं, मुझपे भी रहमो करम किया है,

तू नहीं जानती उन्होंने शिवलिंग क्यों काला बनाया है,

कालस के रूप में ही तो मुझको तुझसे लपेटा है,

कर दिया है महफूज तुझे दुनिया की नापाक नजरों से,

जो भी निगेटिविटी आएगी वो पहले मुझसे ही टकराएगी,

अब दुनिया की कोई भी ताकत तुझको चोट पहुंचा पाएगी,

सह लूंगा हर जुल्मों सितम, मैं सिर्फ तेरे प्यार में,

सारी निगेटिविटी को हंस कर मैं गले लगा लूंगा, सिर्फ तेरे प्यार के इजहार में,

सरपरस्त हूँ मैं तेरा, "श्री माँ" ने सरपरस्ती तेरी बख्शी है,

तुझको 'बुत' बनाकर, 'बुत परस्ती' मुझको बक्शी है,

पहले देखा करता था मैं "खुदा" को,नदी, नाले, जंगल, पहाड़ और आकाश में,

अब हर दम मैं देखा करूंगा "श्री माँ" को सिर्फ तेरे ही अरूप निर-आकार में,

तेरी यह भूल है यदि तू सोचती है,

कि सिर्फ तुझे ही "उन्होंने" शिवलिंग का रूप दिया है,

अरे ये वर तो "उन्होंने" मुझको भी दिया है,

हम दोनों को एक ही रूप देकर, दोनों के हृदयों में प्राण प्रतिष्ठित किया है,

अब हर रोज हम दोनों अपने अपने शिवलिंग पर प्रेम जल चढ़ाएंगे,

पहले देखती थी दुनिया हमको, अब दुनिया की नजरों से ओझल हो जाएंगे,

हर वक्त एक दूसरे की याद में डूबकर, समाधिस्थ हो जाएंगे,

रहकर हर पल प्रेम समाधि में, स्वयं ही स्वयंभू बन जाएंगे,

धरकर रूप स्वयम्भू का स्वयं में, "श्री माँ" का प्रेम दुनिया पर बरसायेंगे,

बनकर प्रेम चैतन्य हम दोनों, सबकी कुंडलियां उठाएंगे,

तब जाकर हम "श्री माँ" का अपनी,थोड़ा बहुत कार्य कर पाएंगे,

जो भी आएँगे द्वार पर हमारे, इस पावन प्रेम का प्रसाद चख जाएंगे,

ग्रहण कर इस अनुपम गिजा को, वो भी महका देंगे सारी फिजा को,

तब जाकर देवी, देवता, रुद्र गण भी गुणगान करेंगे,

तब ही जाकर सारे मानव "श्री माँ" की जय जयकार करेंगे,

उस वक्त 'जागृत मानव' अभिनंदन करेंगे "माँ आदि" के 'अवतार' का,

तब महकेगा जर्रा जर्रा खुशी से, इस सारी की सारी कायनात का,

बहुत मुबारक थी वो घड़ी, जब अति दुख के साये में तू पड़ी,

वो दुख नहीं था केवल "श्री माँ" का ही दुलार था,

उसी दुलार से ही तो तुझे शिवलिंग में ढाला था,

बड़ी शिद्दत से "उन्होंने" तेरे नुकीले कोनो को घिसा था,

जिनसे घायल होते थे वो सभी जो तेरे करीब आते थे,

घायल होकर वो सभी फिर तुझसे दूर हो जाते थे,

देख कर शिवलिंग के रूप में तुझे सभीदूर ही खड़े हो जाएंगे,

तेरे चारो तरफ चक्कर लगाकर तुझपे श्रद्धा से जल चढ़ाएंगे,

ये जल नहीं होता है, उसमें उन सभी के विकार होते हैं,

पहले तू उघड़ी थी इसीलिए नापाक हो जाती थी,

अब ढक दिया है तुझे "श्री माँ" ने, मेरे प्रेम का काला जामा पहना कर,

अब कभी भी तू इधर उधर जा पाएगी,

सदा मेरे ह्रदय में रहकर तू मुक्त हो जाएगी।"

--------------------------------Narayan

"Jai Shree Mata Ji"


अनुभूति-18-(02-01-07) 3.10am

September 27 ·2019



भाव:-आम हालात में एक सदारण मानव अपने मानवीय अस्तित्व अपनी मानवीय चेतना से अत्यंत प्रेम करता है। और जब वह मानव "श्री चरणों" में "श्री माँ" के द्वारा लाया जाता है तो फिर वह धीरे धीरे परिवर्तित होने लगता है।

और उसका मानवीय अस्तित्व भी बदलने लगता है उसकी मानवीय चेतना भी उन्नत होने लगती है। इस बदलाव की प्रक्रिया में मानव अस्तित्व उसकी मानवीय चेतना धीरे धीरे एक रूप होने लगते हैं।

इस परिवर्तन की प्रक्रिया में वह अपने अस्तित्व चेतना के प्रति अगाध प्रेम को अनुभव करने के कारण वह इन दोनों को भी अनेको रूपों में भी देखने महसूस करने लगता है।

यह घटना क्रम वार्तालाप अन्तरसाधना के दौर से गुजरने वाले एक साधक के मानवीय अस्तित्व और उसकी मानवीय चेतना के बीच का है।

जिंदगी=सीमित मानवीय चेतना

कालस=मानवीय अस्तित्व

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