Friday, August 14, 2020

अनुभूति-54--"हश्र"-12-08-2020

"हश्र"

"तुम भी आये थे एक दिन,
तुम भी निकल जाओगे,

क्या साथ लाये थे तुम,
जो तुम अपने साथ ले जाओगे,

अपनो के घर भरते रहते हो तुम, लोगो की 'गिजा' छीन छीन कर,
बादशाह से बने फिरते रहते हो तुम इंसानियत का लहू पी पी कर,

बड़े बड़े वहशत गर्दों के जुल्मों-ओ-सितम को इस 'मुक्कदस' जमीं ने झेला है,
पर क्या किसी जालिम का यहाँ कभी कहीं एक पुतला तक लगा देखा है,

बड़े बड़े अहमकों और बेहरहमों को इस 'चमन' के बाशिंदों ने सहा है,
जिनकी 'दास्तां-ए-कारगुजारियों' से इस वतन का 'रोजनामचा' भरा पड़ा है,

झूठ की बुनियाद पर तुम अपना महल बनाना चाहते हो,
अपने नापाक इरादों से तुम इस 'पाक-जन्नत' को मिटाना चाहते हो,

शहीदों के इस 'गुलिस्तां' को तुम फिर से गुलाम बनाना चाहते हो,

वक्त आएगा तुम्हारा भी, जब जिस्म तुम्हारा, ताकत खो देगा,
बिना किसी सहारे के ये एक ये इंच भी नहीं हिलेगा,

बरसों तक टुकुर टुकर ताकती आंखों से तुम हरदम रहम की भीख मांगोगे,
अपने ही लोगों की आंखों से टपकती हुई हिकारत से तुम हर घड़ी कांपोगे,

भूख तुम्हारे जिस्म के जर्रे जर्रे से बया हो रही होगी,
पर तुम्हारी जुंबा अल्फाजों से भी पूरी तरह महरूम होगी,

एक निवाला भी तुम्हारे गले से चैन का तुम्हें मयस्सर न होगा,
बिलबिलाते कालेजों से निकली बदुआओं का जहर उसमें भरपूर होगा,

जब जुबां तुम्हारी पूरी तरह अकड़ कर ठूंठ हो जाएगी,
पुतली भी तुम्हारी बेदम होकर हिल डुल तक नहीं पाएंगी,

तब ही जाकर तुम्हें तुम्हारे किये सारे जुल्मों की खूब याद आएगी,

अपने अहम की हनक में तुमने क्या क्या किया है,
काफिर बन के सदा तुमने इंसानियत का ही तो कत्ल किया है,

क्यों अपने आप को हरदम 'फरिश्ता' सा दिखाते रहते हो,
पर काम तो तुम सदा 'खुदा' की मुखालफत के ही हरदम करते रहते हो,

सम्भल जाओ अब भी वक्त है इसे जाया न करो,
अपने किये गुनाहों से तुम अब हर रोज तौबा करो,

माँगलो माफी आवाम और 'अल्लाहताला' से,
दूरी बना लो साजिशन हांसिल की हुई इस सल्तनत से,

"उनका" 'रहम-ओ-करम' हुआ तो तुमको माफी मिल जाएगी,
वरना तुम्हारे जिस्म छोड़ने के बाद, तुम्हारी ही 'रूह' तुम्हे बहुत तड़पायेगी,

बबूल बनके खड़े मिलोगे किसी बियाबान मरुस्थल में,
सदियों तक छटपटाते रहोगे किसी भी इंसा के दीदार के इंतजार में।"

अनुभूति-54(12-08-2020)

---------------------------Narayan😡
"Jai Shree Mata Ji"

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