Friday, September 18, 2020

"Impulses"--536--"धर्म"

"धर्म"


"आज के काल में हम देखते हैं कि हमारे चारों तरफ अनेको धर्मो के अनुयायी नजर आते हैं। और अपने अपने धर्म को सर्वश्रेष्ठ समझते हुए अन्य धर्मों को अक्सर हेय दृष्टि से देखते हैं।


यहां तक कि धर्मिक रूप से कट्टर बनकर अन्य धर्म के लोगों को मारने पर उतारू हो जाते हैं। और अक्सर एक दूसरे के खून के प्यासे बन कर एक दूसरे का खून बहाने से भी नहीं चूकते।


हद तो तब हो जाती है जब धर्म के नाम पर अन्य धर्मों के लोगों की हत्या तक कर देते हैं। जो कि पूर्णतया "ईश्वर" की खिलाफत करना ही होता है।

तो भला ऐसे व्यक्ति धर्मिक कैसे हो सकते हैं जो मानवता को ही लज्जित कर दें।


हमारी छोटी सी समझ चेतना के अनुसार जितने भी धर्म हैं वे चाहे कितने भी एक दूसरे से भिन्न नजर आते हों किन्तु इन सबका एक ही लक्ष्य है।


और वो है मानवता की राह पर चलने की हमें शिक्षा प्रदान करना इसकी सामर्थ्य प्राप्त करने के लिए हमारी समझ को विकसित करना।


क्योंकि मानव के आज तक के इतिहास में इस धरा पर जो सबसे बड़ा धर्म है वह है मानव धर्म।


जितने भी धर्म "परमात्मा" से जुड़ने के लिए आज तक हमारे सद गुरुओं ज्ञानियों ने बनाये हैं। वे सभी सर्वप्रथम मानव को मानव धर्म में स्थापित होने की बात ही सिखाते हैं।


और जब कोई मानव, मानवता के धर्म में अच्छे से स्थापित हो जाता है। तब "परमपिता" उसे किसी किसी सदमार्ग के द्वारा अपने नजदीक आने का साधन प्रदान करते हैं।


और उस ध्यान-धारणा रूपी साधन के माध्यम से जब वह गहन ध्यान में उतने के अभ्यास के द्वारा "उनको" अपने हृदय में स्थापित कर लेता है।


तब उसमें अपनी आत्मा के माध्यम से "प्रभु" से वार्तालाप करने की सक्षमता प्राप्त होने लगती है। और वह "हृदेश्वर" के द्वारा प्रदान की जाने वाली प्रेरणाओं के माध्यम से कार्य करने लगता है।


तो वह "उनके" एक सुंदर से 'यंत्र' रूप में विकसित होता हुआ धीरे धीरे "उनका" प्रतिनिधि बन जाता है और "उनकी" सन्तान के रूप में जाना जाता है।


यानि किसी भी धर्म का पूर्ण निष्ठा, श्रद्धा लगन के साथ पालन करने से हम अच्छे इंसान बन सकते हैं। और जब अच्छे इंसान बन जाते हैं तब "परमेश्वर" हमें अपने से जोड़ने की व्यवस्था करते हैं।


और "उनसे" जुड़ने के बाद हम उनके सन्देश वाहक बन जाते हैं और अपने मानवीय जीवन को सार्थक कर पाते हैं। यानि पहले हम धार्मिक होते हैं और फिर सही मायनों में मानव बनते हैं और फिर आध्यात्मिक हो जाते हैं।


किन्तु जो भी लोग धर्म के नाम पर लड़ते हैं, उत्पीड़न करते हैं, अन्य लोगों को तकलीफ पहुंचाते हैं, अन्य धर्मों का अनादर करते हैं धर्मांध होकर हत्या तक कर डालते हैं वे कभी भी धर्मिक नहीं हो सकते। फिर चाहे वे रात दिन मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे चर्च में ही क्यों रहते हों।


क्योंकि कोई भी धर्म, अधर्म करने की तो कभी इजाजत देता है, ही कभी किसी का अनादर करना ही सिखाता और ही किसी को तकलीफ देता है।


*हैरानी तब और भी बढ़ जाती है जब "श्री माँ" के बताए मार्ग 'सहज योग' को अपनाने वाले तथाकथित सहजी। अन्य सहजियों को अपने किन्ही स्वार्थों, अहंकार, दमित कुंठाओं शासन करने की इच्छा की पूर्ति के चलते उत्पीड़ित करते हैं।


तो हम जैसे मामूली साधकों के हृदय में प्रश्न पूर्ण भाव आते हैं, कि क्या ये लोग इंसान भी हैं कि नहीं ?


क्या ये सहज "श्री माँ" का अनुसरण करते भी हैं कि नहीं ?


या ऐसे ही 'सहज' को दिखावे के लिए चादर की तरह अपने अस्तित्व पर लपेटा हुआ है ?*


धर्म शब्द में ही इसका बहुत गहरा मतलब समाहित है। धर्म शब्द ढाई अक्षरों से मिलकर बना है। यदि हम इसका सन्धि विच्छेद करें तो:-


=धारण करना,


='ईश्वरीय शक्ति',


=मानव


यानि जो मानव 'परमेश्वरी शक्ति' को धारण कर लेता है वह 'धर्म' को अपना लेता है। यानि सही मायनों में 'धार्मिक' हो जाता है।


--------------------------------------------------Narayan

"Jai Shree Mata Ji"



June 24 2020

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