Tuesday, January 12, 2021

"Impulses"--543--"मानव-आयु के घटने/बढ़ने का रहस्य"

"मानव-आयु के घटने/बढ़ने का रहस्य"


"हम सभी अक्सर कहते सुने जाते हैं कि जो जितनी सांसे "ईश्वर" से लिखा कर लाया है वह उतनी आयु तो निश्चित रूप से जियेगा ही।


इस बात के मद्दे नजर यदि हम अपने चारों तरफ नजर घुमा कर देखें तो पाएंगे कि कई लोग लंबी आयु जीते हैं तो कई लोग बहुत ही जल्दी मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं।तो कई लोगों को अकाल मौत अपनी गिरफ्त में ले लेती है।


तो क्या "परमात्मा" सभी के साथ भेदभाव रखते हुए सभी को अलग अलग जीवन का काल प्रदान करते हैं ?


या फिर "परमेश्वर" सभी को एक सुनिश्चित आयु प्रदान करते हैं किंतु मानव अपने कर्मों के अनुसार अपनी आयु को कम कर देता है ?


पहली बात कुछ सही प्रतीत नहीं हो रही, क्योंकि हमारा हृदय यह मानता है कि "सर्वशक्तिमान" पक्षपाती नहीं हो सकते। वरन "वे" तो सभी प्राणियों को एक ही नजर से देखते हैं और समान रूप से प्रेम करते हैं।


यदि दूसरी बात सत्य है तो एक और प्रश्न खड़ा हो जाता है कि आखिर "भगवान" ने मानव की आयु कितनी रखी है ? और मानव की आयु भला किस प्रकार से कम हो सकती है ?


तो अब हम कुछ देर के लिए ध्यानस्थ अवस्था में उतरकर अंतर्जगत की तथ्य-अनावरण यात्रा पर चलते हैं। ताकि इन दोनों प्रकार के तथ्यों को तर्कसंगत औचित्य पूर्ण ढंग से आत्मसात किया जा सके।


यदि हम ज्योतिष के हिसाब से मानव के ऊपर समस्त ग्रह नक्षत्रों की महादशा के काल-प्रभाव-अवधि की गड़ना करें।


तो हम पाएंगे कि मानव के जीवन में समस्त ग्रहों की महा दशा का प्रभाव 120 वर्ष में पूर्ण होता है। यानि साधारण अवस्था में यह माना जा सकता है कि यदि मानव 120 वर्ष तक जी ले।


तो वह अपने एक ही जीवन काल में समस्त प्रकार के कर्मों विचार के प्रतिफलों को 120 वर्षों में पूर्ण रूप से प्राप्त कर मानव जीवन से मुक्त हो सकता है।


क्योंकि "परमपिता" ने समस्त ग्रह नक्षत्रों को मानव के कर्मों के अनुसार फल देने के लिए ही नियुक्त किया है।


इसका सीधा सा मतलब यह होता है कि "परमपिता परमेश्वर" ने हम सभी मानवों को 120 वर्ष का कार्य काल हमारे एक मानव जीवन के लिए प्रदान किया है।


तो अब प्रश्न यह उठता है कि आखिर आज के समय में अधिकतर मानव 65 से 70 वर्ष की आयु तक ही क्यों जी पाते हैं ?


तो सर्वप्रथम हम 120 वर्ष की आयु के कम होने के मुख्य कारणों को जानने की ओर अग्रसर होंगे।


मेरी चेतना आंतरिक चिंतन के अनुसार 120 वर्ष के कम आयु यदि किसी को मिलती है। तो उसके मुख्य रूप से 3 कारणों का हमारी चेतना में आभास हो रहा है जो निम्न प्रकार हैं:-


1.मन का प्रभाव:- पहला कारण हमारी चेतना पर मन का अत्यधिक प्रभाव होना ही है। अब इस बात से एक और प्रश्न उत्पन्न होता है कि हमारा मन भला किस प्रकार से हमारी आयु को कम कर देता है ?


यदि हम पूर्ण एकाग्र होकर अपनी मन स्थिति का आंकलन करें तो हम पाएंगे।


*कि आम स्थिति में हमारा मन संसार की किसी किसी वस्तु/स्थिति/काल/मनुष्य आदि में लिप्त होता है जिसको हम पाना/प्राप्त करना चाहते हैं।


हमारी यह इच्छा हमारे सूक्ष्म यंत्र के किसी किसी चक्र के गुण/अवगुण से अवश्य सम्बंध रखती है। और हम अच्छे से जानते हैं कि हमारे चक्र हमारे स्थूल शरीर के अंग प्रत्यंगों को संचालित करते हैं।*


जब भी हमारी चेतना हमारे मन में स्थित किसी भी इच्छा में जकड़ जाती है तो हमारा मस्तिष्क हमारे स्नायु तंत्र में विष को स्त्रावित करना प्रारम्भ कर देता है।


जिससे हमारा स्नायु तंत्र कमजोर होने लगता है और इसके कमजोर होने के कारण हमारे चक्र बाधित होने लगते हैं।


और बाधित होने के कारण हमारे चक्र ठीक प्रकार से कार्य नहीं कर पाते और फिर ये अपने से जुड़े शरीर के मुख्य अंगों को खराब करना प्रारम्भ कर देते हैं।


धीरे धीरे हमारे वह अंग पूर्णतया खराब हो जाते है अब चूंकि हमारे शरीर के समस्त मुख्य अंग एक दूसरे के लिये पूरकता के सिद्धांत पर कार्य करते हैं।


अतः एक मुख्य अंग के खराब होने के कारण इसका प्रभाव अन्य मुख्य अंगों पर भी आना प्रारम्भ हो जाता है और वो भी खराब होना प्रारम्भ हो जाते हैं।


जिसके कारण हमारा शरीर धीरे धीरे क्षय होने लगता है,और फिर एक ऐसा समय जाता है जब हमारी जीवात्मा को हमारा शरीर छोड़ना पड़ जाता है।


क्योंकि हमारी जीवात्मा स्वस्थ शरीर में ही रहना पसंद करती है और हमारी चेतना का विकास भी मन की स्वस्थ अवस्था में ही हो पाता है।


2.बदुआओं का प्रभाव:-अस्वस्थ होने का दूसरा मुख्य पहलू है और वो है किसी की बदुआ लेना।


यानि जब हम अपने अहंकार/ईर्ष्या/लोभ/घृणा/प्रतिस्पर्धा/अज्ञानता/पूर्वाग्रह/जड़ता/पलायन वादिता/पूर्व संस्कार वश किसी मानव/जीव को भी तकलीफ देते हैं तो उसके हृदय से हमारे लिए बदुआ निकल जाती है।


जिससे हमारे भीतर रहने वाले देवी देवता रुष्ट हो जाते है तो वे अपने से सम्बंधित चक्र को बंद कर देते हैं। जिसके कारण वह चक्र अपने से सम्बंधित अंगों का पोषण बंद कर देते है और वह अंग खराब होने लगते हैं।


अतः जिस प्रकार/स्तर की हमारी मनवस्था होगी उसी प्रकार की हमारे मस्तिष्क की प्रतिक्रिया होगी। तो इस प्रकार से हमारी अज्ञानता अभिश्राप ही हमारी आयु कम करने का मुख्य कारण बनते हैं।


3.पलायन वादिता का प्रभाव:-जब मानव इस संसार में मानवता, प्रकृति "परमात्मा" के खिलाफ चलने वाले घटनाक्रमों से खिन्न रहने लगता है।


जिसके कारण उसके भीतर संसार में बने रहने के भावों का ह्रास होने लगता है और फिर उसका हृदय दुखी होकर संसार से उचाट रहने लगता है।


धीरे धीरे उसके भीतर इन सभी नकारात्मक स्थितियों से दूर जाने की इच्छा बलवती होने लगती है और उसके भीतर अब और जीने की इच्छा भी दम तोड़ने लगती है।


तो वह ऐच्छिक मृत्यु की प्रतिदिन कामना करने लगता है जो कि हमारे मस्तिष्क के स्वभाव के विपरीत होता है।


क्योंकि "परमेश्वरी" ने हमारे मस्तिष्क का निर्माण जीवन को अच्छे से जीने मानव की उत्क्रांति में सहयोग करने के लिए ही किया है।


और जब हमारा मस्तिष्क यह देखता है कि मानव इस प्रकार के मनोभावों इच्छा के कारण "परम-इच्छा" की अवहेलना कर रहा है तो हमारा मस्तिष्क पुनः नकारात्मक द्रव्य स्त्रावित करना प्रारम्भ कर देता है।


जिससे उसके शारीरिक अंगों में क्षय प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है जो अंततः उसकी अल्पकालिक मृत्यु का कारण बनती है।


वास्तव में हमारा मस्तिष्क ही हमारी वास्तविक आवश्यकताओं को पूर्ण करने के रास्ते हमें सुझाते हुए सकारात्मक द्रव्य हमारे स्नायु तंत्र में प्रवाहित कर हमारा सहयोग करता है।


जिसके कारण हमारे चक्रों का उचित पोषण होता रहता है और वो हमारे अंग प्रत्यंगों को सही रखते हैं। जिसके कारण हम ऊर्जावान बने रहते हैं और अपनी आवश्यक आवश्यकताओं को पूरा करने की दिशा में ठोस कदम उठाते हैं।


*इसके विपरीत जब हम सत्य के विपरीत/वर्तमान जीवन से पलायन प्रारम्भ करना प्रारम्भ कर देते हैं तो हमारा मस्तिष्क ही एक शत्रु सम व्यवहार करते हुए हमारे 'जैविक अस्तित्व' को मिटाना प्रारम्भ कर देता है। और एक समय आता है जब हम अपनी सुनिश्चित आयु से कम समय में ही काल कवलित हो जाते हैं।*


तो इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि हमारे नकारात्मक कर्मों के परिणाम जीवन के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण और इस दृष्टिकोण से बना हुआ हमारा नकारात्मक स्वभाव ही "परमपिता" के द्वारा दिये गए जीवन काल को कम कर देता है।


और जब हम नकारात्मक मनोभावों की अवस्था में अपने प्राण त्यागते हैं तो हमारे अगले जन्म का जीवन काल वर्तमान जीवन की मृत्यु के समय ही सुनिश्चित हो जाता है।


इसी कारण से हम अक्सर यह कहा करते हैं कि हम तो अपनी साँसों की गिनती "ईश्वर" से लिखवा कर लाये हैं। अब हम इसके दूसरे पक्ष यानि लंबी/पूर्ण आयु के कारणों की चिंतन यात्रा पर चलते हैं।


यानि, यदि हमारे पूर्व जीवन के अर्जित प्रारब्ध के अनुसार हम अगले जीवन में 70 वर्ष तक जीने वाले हैं तो भला हमारी आयु क्यों कर 70 साल से ज्यादा बढ़ सकती है ?


हमारी चेतना,आभास चिंतन के अनुसार निश्चित रूप से हम अपने पूर्व प्रारब्ध के मुताबिक प्राप्त आयु को बढ़ा सकते हैं यदि हम चाहें तो।


इसके लिए हमें ज्यादा कुछ नहीं करना है बस केवल और केवल गहन ध्यान अभ्यास के द्वारा "परमेश्वरी" की उपस्थिति में 'विचार रहितता'/'निर्विचारिता' की स्थिति को बढ़ाने बनाये रखने का का निरंतर अभ्यास करना है।


ऐसे अभ्यास के द्वारा हम 'अमन' अवस्था को विकसित कर पाते हैं और यह अवस्था हमारे अंतःकरण में शून्यता को विकसित करती है।


और जब हम शून्यता में स्थित होने लगते हैं तो हम इसी शून्यता के द्वारा "परमात्मा" के साम्राज्य में प्रवेश करने लगते हैं।


हमको समझना चाहिए कि "परमात्मा" के साम्राज्य पर काल का प्रभाव नहीं पड़ता। या हम यह कहें कि "उनका" सानिग्धय काल से परे है, यानि ऐसी अवस्था में काल अपना प्रभाव नहीं डाल सकता।


इसका मतलब यह हुआ कि जब काल निष्क्रिय हो जाता है तो उस अवस्था में आयु बढ़ने की गति भी रुक(Pause) जाती है। यानि यह एक प्रकार का 'विलंब काल' है जो हमारी आयु बढ़ने की गति में शामिल नहीं होता।


और जब हम इस 'विलंब काल' को धीरे धीरे बढाते जाते तो निश्चित रूप से हमारे आयु-काल में इजाफा होने लगता है।


प्राम्भिक अवस्था में तो हम पूर्ण रूप से एकाग्रचित होकर ध्यान की अवस्था में बैठते हैं और शून्यता के सागर में उतरने का अभ्यास बनाते हैं।


और यह अभ्यास हमारी चेतना को इस अवस्था में पहुंचा देता है कि हम अपने दैनिक जीवन से सम्बंधित कार्यों को सम्पन्न करते हुए भी इस सुंदर 'शून्यता' का आनंद लेते रहते हैं।


जैसे जैसे ऐसी अवस्था में बने रहने की काल अवधि बढ़ती जाती है वैसे वैसे हमारे स्थूल शरीर के आयु बढ़ने का प्रभाव कम होता जाता हैं।


वास्तव में हमारा मन ही हमारे स्थूल अस्तित्व पर काल के प्रभावी होने का मुख्य कारण है।


जब 'शून्यता' में निरंतर बने रहने के हम आदी होने लगते हैं तब हमारी चेतना हमारे मन के प्रभाव से मुक्त हो कर "परमेश्वरी" की नजदीकी के आनंद में डूबी रहने लगती है।


ऐसी अवस्था में "उनकी" शक्तियां हमारे सूक्ष्म यंत्र में निरंतर बहने लगती हैं जिसके कारण हमारा मस्तिष्क हमारे यंत्र में सकारात्मक द्रव्यों(अमृत)को प्रवाहित करने लगता है।


जिसके परिणाम स्वरूप हमारे चक्र पोषित होने प्रारम्भ हो जाते हैं और वे अपने से जुड़े हमारे शरीर के स्थूल अंगों को पुष्ट करना प्रारम्भ कर देते हैं।


जिससे कारण उनमें पूर्व प्रारब्ध द्वारा सुनिश्चित रोग भी नहीं लग पाते/प्रारब्ध के कारण लगे रोग ठीक होने लगते हैं और इस प्रकार से हमारी पूर्व निर्धारित अल्प आयु, दीर्ध आयु में परिवर्तित होने लग जाती है।


इसके अतिरिक्त पूर्ण आयु/पूर्ण आयु से भी अधिक आयु प्राप्त होने का एक और मुख्य कारण भी है। 


*और वो है "माँ आदि शक्ति" का सुंदर यंत्र बन जाना,*


जैसा कि हम सभी "श्री माता जी" के द्वारा बताई गई बातों के द्वारा मानसिक रूप से जानते हैं कि "माँ आदि शक्ति" ने ही सारी सृष्टि की निर्माण किया है।


साथ ही इस रचना को सुचारू रूप से चलाने के लिए विधि का विधान भी "उन्होंने" ही सुनिश्चित किया है। जिसके कारण इस सृष्टि में निहित समस्त प्राणियों, ग्रहों, नक्षत्रों,आकाश गंगाओं ब्रह्मांडों की आयु भी उन्होंने ही निर्धारित की है।


अतः जब "उनकी" अपनी इच्छा हो तो "वह" 'अपनी' किसी भी रचना की आयु को जब चाहे घटा-बढ़ा भी सकती हैं।


शायद इसी लिए,अक्सर खबरों के द्वारा समय समय पर हमें पता लगता रहता है कि बहुत से मानव 120 साल की आयु से भी ज्यादा जी चुके हैं और कुछ तो अभी भी जी रहे हैं।


यदि संक्षेप में इस लेख का निचोड़ निकाले तो हम कह सकते हैं कि,


*'अमन' अवस्था को धारण कर 'शून्यता' का निरंतर आनंद लेते हुए हम "परमेश्वरी"द्वारा प्रदान की गई 120 वर्ष की पूर्ण आयु अथवा इस पूर्ण आयु से भी अधिक की आयु को प्राप्त हो सकते हैं।*


जैसा कि हम सभी जानते हैं कि आजकल पूरे विश्व में तथाकथित वायरस का प्रभाव बना हुआ है, अनेको लोग इससे आतंकित है और कुछ लोग इस वायरस के नाम पर मृत्यु को भी प्राप्त हो रहे हैं।


सर्वप्रथम यह वायरस लोगों के कंठ पर तीन दिनों तक अपना कब्जा जमाये रखता है और फिर यह फेफड़ों में प्रवेश कर जाता है।


तो एक तथ्य की बात इसके स्वभाव से प्रगट हो रही है कि सबसे पहले यह लोगों की विशुद्धि को पकड़ता है। यानि यह ऐसे लोगों को अपना निशाना बनाता है जो विशुद्धि के गुणों के विपरीत मन अवस्था में जीते हैं।


यानि, अपराध बोध से ग्रसित या साक्षी भाव से दूर अथवा अत्यंत कटु वाणी बोलने के आदी।


यदि गंभीरता से विश्लेषण करेंगे तो पाएंगे कि विशुद्धि की यह तीनो ही स्थितियां वायरस-संक्रमित के भूतकाल में होने की स्थिती को ही उजागर कर रहीं हैं।


इसका मतलब यह हुआ कि जो भी बाधित हो रहे हैं अथवा हुए हैं वे स्वभाव से भूतकाल वादी रहे हैं।


जिसके कारण ऐसे लोग वर्तमान से दूर रहने के आदी हैं जिस कारण से इनका मस्तिष्क नकारात्मक द्रव्यों को इनके नर्वस सिस्टम में स्त्रावित करता रहा है।


जिससे इनका इम्युनिटी सिस्टम कमजोर पड़ता गया और इस वायरस ने ऐसे लोगों पर अटैक कर दिया।


तो ऐसी अवस्था में संक्रमित लोगों को चाहिए कि वे वर्तमान में पुनः स्थापित हो जाएं ताकि उनका मस्तिष्क पुनः सकारात्मक राचायनों को उत्पन्न कर उनके स्नायु तंत्र में भेजना प्रारम्भ कर दे।


किन्तु आम तौर पर यह देखा गया है कि संक्रमित व्यक्ति अत्यंत भयभीत होकर चिंता ग्रसित हो जाते हैं जिससे उनका मस्तिष्क नकारात्मक रसायनों को प्रवाहित करने की गति को बढ़ा देता है।


परिणाम स्वरूप उनका हृदय चक्र कमजोर हो जाता है जिसकी वजह से ह्रदय चक्र 'एन्टी बॉडीज' का निर्माण बंद कर देता है तब जाकर यह वायरस फेफड़ों को भी संक्रमित कर देता है।


सहजियों को अच्छे से समझने वाली बात यह है कि तीन दिन तक यह वायरस गले में रहकर अप्रत्यक्ष रूप से लोगों को अपने से बचने के अवसर भी देता है।


कि लोग अपनी 'त्रिगुणात्मिका' का आव्हान कर अपने सहस्त्रार में स्थापित करके तीनो महादेवियों की शक्तियों को अपने कंठ में चित्त चेतना के माध्यम से प्रवाहित करें और इस वायरस को निष्प्रभावी कर दें।


इसके अतिरिक्त "श्री माता जी" के द्वारा वायरस संक्रमित सहजियों को ध्यानस्थ अवस्था में 'जलते हुए दिए' अथवा जलती हुई मोमबत्ती के प्रकाश के द्वारा 'इड़ा नाड़ी' को प्रकाशित करने की सलाह भी दी गई है।"


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"Jai Shree Mata Ji"

 

22-08-2020

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