Wednesday, October 20, 2010

अनुभूति---27---"दीवाली"----19.11.08

"दीवाली"

जब से "माँ आदि" "निर्मला" बन के आईं, तभी से धरा पर दीवाली आई
"सहस्त्रार" दीपक में चैतन्य तेल डाला है, चित्त की बाती से इसको जलाया है

जलता है जब सहस्त्रार दीपक, दुःख, तकलीफ कीट-पतंगे बन-बन कर इस पर आते हैं
मिटा-मिटा कर अपने-अपने अस्तित्वों को, साधक को मुक्त करते जातें हैं
प्रकाश में इसके मानव देख पाता है स्वम को, वर्ना तब तक सताता है खुद को

पाकर स्वम को आत्मा स्वरुप, निरानंद में गोते लगता है
पुनर्स्म्रित कर पूर्व गलतियों को, हृदय से ठहाके लगता है

देख कर दुःख दूसरे मानवों का, अश्रुपूरित हो जाता है
भुलाकर स्वम अपनी पीडाओं को, हृदय से वह उन्हें गले लगाता है
उठकर स्वम पावों पर अपने, औरों को भी उठता है

देकर चैतन्य सहस्त्रार से अपने, सबको जाग्रति देता जाता है
अनुभूति कर हृदय सहस्त्रार में स्पंदन की, और सभी को भी कराता है

लेकर तपस हृदय में अपने, ताप से सबको मुक्त कराता है
देखकर मुस्कान मुरझाये चेहरों पर, तब ही वह मुस्काता है

होकर अनुगृहित "श्री चरनन" में, वहीँ पर चित्त को सदा लगाता है

जलाकर हर दिन "सहस्त्रार दीपकों" को, "दीवाली" हर पल मनाता है

---------नारायण



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