Monday, November 22, 2010

अनुभूति-26 "श्री गंगे"--17.11.08

"श्री गंगे"

जबसे अमृत गंगा, सहस्त्रार से उतर हृदय में समाइं हैं,
तभी से चक्र "अनहद" ने ली मस्त अंगड़ाई है,

पहले तो हृदय थोडा सा खिंचा, उसके बाद इसका चक्र जोर से चला,
अब तो सहस्त्रार पर चैतन्य की झड़ी लग गई ,
ऐसा लगने लगा मानो चैतन्य वर्षा हो गई,

अमृत वर्षा का जल रिस-रिस कर सभी शिराओं नदियों में जाने लगा,
इसके साथ ही समस्त चक्रों में थोडा कंम्पन बढ़ा,

बरसों से सोये चक्रों के देवता थोडा-थोडा जागने लगे,
इन्ही दिव्य छड़ो में इन पर बेठे गृह-नक्षत्र भी कुछ गुनगुनाने लगे,

चहुँ ओर इक सुरम्य संगीत वातावरण में गुंजित होने लगा,
"माँ अदि" के दिव्य "अवतरण" का असर अब मानव पर होने लगा,

नाभि में छुपी हुई नकारात्मकता को वह चैतन्य से नहलाने लगा,
अरे अब तो मानव अपने शत्रु अहंकार को भी ललकारने लगा,
डूबा कर उसे भी "सहस्त्रार सरोवर" में, उसका अस्तित्व मिटाने लगा,

पाकर समस्त शक्तियां हृदय में, दिव्य प्रेम को बहाने लगा,
जाकर सबके सहस्त्रारों पर, चित्त से ही कुंडलनियाँ उठाने लगा,
होकर आशिर्वादित जगी कुंडलनियों से, अनंत शक्तियों को पाने लगा,

बाह्य अस्तित्व की स्थूल गतिविधियाँ अब सिमटने सी लगी,
सूक्ष्मता की अनुभूति इसी स्थूलता में, परिलक्षित होने लगी,

"माँ निर्मला" के रूप में दिव्य "माँ आदि" प्रदर्शित होने लगी,
पहले तो हम जानते थे "माँ आदि" को फोटो के चमत्कारों में,
विश्वस्त होते रहते थे हम सभी, परिवर्तित जीवन के आशीर्वादों में,

कभी सुख के बढने दुःख के घटने में "श्री माँ" का सौरक्छं होता था,
निर्भय होते हमारे मानवीय जीवन में, शक्ति का समावेश होता था,

जन्मजन्मान्तर की अतृप्त इच्छाओं का तृप्ति में, परिवर्तन होता था,
अज्ञानता के तिमिर में भटकते मानव में, ज्ञान सूर्य का उदय होता था,

इन्ही दिव्य लक्छनो के कारण, हम "माँ निर्मला" को "आदि माँ" कहते थे,
यह सभी घटनाएँ स्थूलता में घटित होती रहतीं थीं,
जो हर पल हर घड़ी दिव्य "श्री माँ" की कहानी कहतीं थीं,

पर अब इक और "श्री माँ" का आशीर्वाद मिला,
पहले यही स्थूलता में फला, अब तो यह सूक्ष्मता में भी खिला,

पहले तो हर पल पाना चाहते थे, अब देने को तत्पर हुए,
खोने का भय पुराना हुआ, पाने का लालच बेगाना हुआ,

अरे अब तो ऋतु सबकुछ खोने की ही गयी,
स्थूलता के वृक्षों पर पतझड़ चल कर गई,

सूक्षमता की कोपलें फूटने लगीं, सूक्ष्म कलियाँ भी अब खिलने लगीं,
दिव्य शक्तियां, भ्रामर बनकर बन-बन कर यहाँ से वहां जाने लगीं,

पूर्ण जाग्रति की बयार रोम-रोम पुलकित करने लगी,
ब्रहम्मांड से उतर-उतर कर दिव्य चेतनाएं धाराओं में आने लगीं,
नाभि में स्थित "आदि गुरुओं" के स्थानों पर अपना आसन ज़माने लगीं,

भवसागर मंथित होकर "छीर" में परिवर्तित होने लगा,
अनादी काल से नाभि में स्थित "विष" का अब वमन होने लगा,

अब जाकर "माँ लक्ष्मी" "पिता विष्णु" के साथ, "शेष शय्या" पर समाने लगीं,
अब जाकर आदि गुरुओं की वाणी, काव्य बनकर आने लगी,

अब तो अंत:करण में भी "परम चैतन्य " फेरा लगाने लगे,
मध्य हृदय में "माँ जगदम्बा" के आगमन के पैगाम पर पैगाम आने लगे,

अब तो मन के पूर्व भण्डार खाली होकर, चैतन्य से भरने लगे,
प्रारब्ध के संस्कारों का मानव पर असर ख़तम होने लगा,

पूर्ण ऐकाकारिता के अदभुत छनो में, नए प्रारब्ध का निर्माण होने लगा,
झूठे भवबन्धनों से छूट कर मानव वास्तव में मुक्त होने लगा,

बनकर "भागीरथ" हर साधक, "माँ गंगे" का आव्हान करने लगा,
"श्री माँ" का सहस्त्रार पर आना, अब सफल होने लगा

"जय श्री माता जी"

---------नारायण




1 comment:

  1. जय श्री माताजी..जै हो .हृदय थोडा सा खिंचा है , उसके बाद इसका चक्र जोर से चला है ,
    अब तो सहस्त्रार पर चैतन्य की झड़ी लग गई है ,."श्री माँ" का सहस्त्रार पर आना, अब सफल होने लगा है

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