Friday, January 10, 2014

Anubhuti---25---"मिश्री की डली"


'अनुभूति'--25 (04.04.08)

"मिश्री की डली,.... .... पानी में पड़ी ,....... फिर भी वो क्यों न घुली "

एक थी मिश्री (मानवीय अस्तित्व) की डली, इक दिन उसकी किस्मत खुली, 
सुकर्मो के प्रताप से परम चैतन्य के पानी में पड़ी। 

पहले वो थोडा सा सकुचाई, घुलने से पहले थोडा हिचकिचाई,
नहीं होना चाहती थी वो गीला, रूप था उसका बड़ा सजीला।

बड़ी मेहनत  व् हिफाजत से उसने, अपने को संवारा था,
हर पल हर घडी उसने , हृदय में, अपने साथी(आत्मा) को पुकारा था। 

साथी को देखने के लिए उसकी अँखियाँ तरसती थीं,
अपने साथी के साथ हर पल रहने की, उसके अंतर्मन में प्यास बसती थी।  

बड़ी कातर द्रष्टी से वो चारो तरफ देखती थी ,
साथी को न खोज पाने के कारण, नित्य उसकी अँखियाँ बरसती थीं। 

सोचती रहती थी अक्सर, ऐसे कैसे मैं जीवन बिताउंगी,
साथी के साथ के बिना, क्या मैं अधूरी ही रह  जाउंगी।। 


उसके अंत:करण की पीड़ा को इक दिन 'माँ आदि' ने सुन लिया ,
सदा सुहागन रहने का इक दिन, "माँ निर्मला" के रूप में उसे वर दिया। 

"श्री माँ" के "श्री चरणो" से उसके सहस्त्रार पर इक फुहार पड़ी,
इसके बाद अनंत धाराओं की लग गई, उसके हृदय में झड़ी। 

नहाकर धाराओं में 'परमचैतन्य' की, मिश्री की डली थोडा सा घुली, 
घुलकर प्रेम धाराओं में "श्री माँ" की, वो अपने प्रियतम 'मिठास' से  (आत्मा ) पहली बार मिली। 

मिलकर अपनी प्रिय मिठास से, उसने अपनी वास्तविकता को है जाना,

जो था उसकी जन्म जन्मान्तर की तपस्या का मेहनताना। 

डूबकर प्रेम में अपनी मिठास के, खो  बैठी अपनी सुध-बुध ,

पाकर अपनी ही मिठास को अपने हृदय में, हो गया उसका अंतरमन शुद्ध। 

बड़े प्रेम के साथ वो अपनी मिठास के साथ रहने लगी,

जुड़कर अपनी मिठास के साथ, अब उसे कुछ करने की लगी।।


दोनों मिलकर "श्री माँ" का प्रेम, दुनिया पर बरसाने लगे,

जा जा कर दोनों, लोगों की कुंडलनियो को हर रोज उठाने लगे। 

देख देख कर दोनो के कार्यों को, 

देवगण भी अपना-अपना मृदंग बजाने लगे। 

चहुँ ऒर प्रेम ही प्रेम का वातावरण, छा गया,

ऐसा लगने लगा कि अब वक्त पूर्ण परिवर्तन का, निकट आ गया। 

दोनों के दिव्य प्रेम की चर्चा चारों ऒर होने लगी,

डूब कर प्रेम सागर में अपनी  मिठास के, वो नित्य और घुलने लगी। 

धीरे धीरे उसकी मिठास का असर चारो ऒर फैलने लगा,

उसके मीठे पानी का सुरूर लोगों पर चढ़ने लगा।।


पर अब घडी एक और परीक्षा की थोडा निकट आने लगी,

कुछ लोभी लोगों की झूठी प्रशंसा, अब मिश्री को भाने लगी। 

वो लोगों की चापलूसी  में, मन्त्र-मुग्ध सी होने लगी ,

धीरे धीरे अपनी ही मिठास को, अपने से दूर करने लगी। 

भूल गई भ्रमित होकर वो घुलना, अपने ही अस्तित्व में वो खोने लगी,

चाटुकारिता, लालच, झूठ, फरेब, व् छलना से, उसकी मित्रता बढ़ने लगी। 

अपने प्राणो से भी प्रिय मिठास से उसके दूरी बढ़ने लगी,

औरो के झूठे लोभ में पड़कर, वो अपनी ही मिठास को खोने लगी। 

अपने स्वरुप की प्रशंसा का अहंकार, उसके अस्तित्व पर छाने लगा,

बनकर आवरण अहंकार उसका, उसका मित्र कहलाने लगा।। 


अब तो परमचैतन्य भी उससे, कुछ दूर दूर रहने लगे। 

झूठे, लालची, मक्कार  लोगो का दायरा, उसके चारों ऒर हर दिन बढ़ने लगा। 

ऐसे ही लोगों के चक्कर में पड़कर, वो अपनी ही मिठास को जलील करने लगी। 

उसकी इस फितरत को देख कर, मिठास का हृदय टूटने लगा। 

प्रेम के इस सुन्दर से घरौंदे में, दीमक का कीड़ा पलने लगा,

सुबह से लेकर शाम तक, मिठास का हृदय दर्द से तड़पने लगा। 

कई बार उसने अपनी मिश्री को, तड़प कर है समझाया,

पर हर बार मिश्री के दुष्ट साथियों ने, उसको हर बार भरमाया। 

टूटकर मिश्री की बेबफाई से, मिठास पलट कर चल दी। 


फिर भी भ्रमित मिश्री ने, इस पर गौर न किया,

अपने ज्ञान व् रूप के अहम में, उस पर वार पर वार किया।।

अब तो अपनी मिठास से मिश्री की, विदाई की घडी ही आ गई,

अहंकार के  प्लास्टिक में जकड़कर, मिश्री पूरी तरह भरमा गई। 

इसीलिए भइया ये  कहना है हमें, मिश्री की डली पानी में पड़ी,

इसीलिए भइया वो फिर भी न घुली।।

"इतिश्री" 



मिश्री की डली= मानवीय अस्तित्व (चेतना) , मिठास=आत्मा







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