Monday, November 14, 2016

"Impulses"--318--"मानवीय चेतना की शोधिकरण प्रक्रिया"

"मानवीय चेतना की शोधिकरण प्रक्रिया"

"जिस प्रकार से शरीर की मृत्यु होने के उपरान्त 'अग्नि देव' या 'माता धरती' के हवाले करने से पूर्व मृत शरीर को पूर्णतया बाह्य रूप से शुद्ध व् स्वच्छ कर दिया जाता है।

ठीक उसी प्रकार से मानव की चेतना को देह छोड़ने से पूर्व अहंकार या लोभवश प्रकृति व् "परमात्मा" के विरोध में किये गए समस्त प्रकार के कार्यों के परिणाम स्वरूप "पछतावे" की 'अग्नि' से गुजर कर "प्रभु" से सच्चे हृदय से की गई क्षमा याचना के द्वारा स्वच्छ होना पड़ता है।

वर्ना 'जीवात्मा'(Soul) को मानव शरीर के गंभीरतम रोग से ग्रसित होने पर क्षय होते शरीर के कारण उत्पन्न होने वाली आंतरिक व् शारीरिक पीड़ा से छटपटाने के वाबजूद भी "परमपिता" से शरीर छोड़ने की इजाजत नहीं प्राप्त कर पाती।

जिसके कारण मानव को विभिन्न प्रकार के भयानक नरकों में रहने जैसे अनुभवों से मृत्यु प्राप्त होने के कारण निरंतर गुजरते रहना पड़ता है।

इन कष्टों से बचने का केवल और केवल एक ही उपाय है और वो है, "ईश वंदना व् भक्ति" जिसको केवल और केवल 'गहन ध्यान' के माध्यम से ही विकसित किया जा सकता है।

क्योंकि ध्यान के माध्यम से उत्पन्न होने वाली "पवित्र अग्नि"(ऊर्जा) हमारे मन के भीतर संग्रहित समस्त प्रकार के पूर्व संस्कारो को धीरे धीरे जला कर ख़ाक कर देती है और हम पूर्ण मुक्ति का आनंद इसी जन्म में उठाने योग्य हो जाते हैं।

अन्यथा ध्यान के माध्यम से उन्नत हो पाने के कारण अनेको जन्मों के पूर्व संस्कारों व् वर्तमान जीवन में किये गए समस्त नकारात्मक कर्मो के परिणाम स्वरूप हमारा मन अज्ञानता में हमसे उलटे कार्यों को करा करा कर हमारे लिए भारी कष्टों को निमंत्रण देता रहता है।


और हम लगातार बारम्बार जन्म लेते रहते हैं और अनेको प्रकार के कष्ट अनंत काल तक भोगते की प्रक्रिया में संलग्न रहते हैं।"
--------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"

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