Saturday, February 10, 2018

"Impulses"--431--"मूलाधार चक्र के संशय व निवारण"

"मूलाधार चक्र के संशय निवारण"


"अक्सर बहुत से सहजी मूलाधार चक्र की पकड़ को लेकर अत्यधिक शंकित चिंतित रहते हैं इसकी सबसे ज्यादा चर्चा करते हैं।

क्योंकि "श्री माता जी" के मुताबिक ये चक्र हमारे सूक्ष्म यंत्र की आधार शिला माना जाता है। और शंकाओं के चलते वो अपने सामान्य नैसर्गिक मानवीय जीवन से भी विमुख होने लगते हैं।

यहां तक कि विपरीत जेंडर के सहजियों के साथ उठने-बैठने, बातचीत करने, उनमे आपसी मित्रता के होने, एक दूसरे के साथ ध्यान में बैठने, एक दूसरे को पसंद करने, एक दूसरे के गुणों की प्रशंसा करने आदि को भी मूलाधार चक्र की खराबी से ही जोड़ देते हैं।

जिसके कारण सर्वप्रथम तो अत्यंत नजदीकी रिश्ते गड़बड़ाने लगते हैं और बाद में अनेको प्रकार की मनो-दैहिक समस्याओं में वो घिरते ही चले जाते हैं।अज्ञानतावश वो "श्री माता जी" के लेक्चर्स को गहनता से समझ नहीं पाते और ही उन लेक्चर्स की ऊर्जा को ही ग्रहण करते हैं।

केवल "उनकी" वाणी को सुनते हैं और अपनी सीमित बुद्धि सोच से उनका आंकलन करके स्वम् कुछ धारणाएं बना लेते हैं और उन धारणाओं में अपने को स्वेच्छा से जकड़ लेते हैं। 

धीरे धीरे अज्ञानतावश वो अपने आपको इतनी गम्भीर कंडीशनिंग में बांध लेते हैं कि इस संसार में उनका दम घुटने लगता है, और मानसिक विकृति उन्हें बुरी तरह घेर लेती है।

वास्तव में विकृति में फंसने के बाद उनकी चेतना जड़ हो जाती है जो उनके मानसिक संतुलन को पूर्णतया बिगाड़ देती है जिसके कारण उनकी नाड़ियां भी असंतुलित हो जाती हैं। 

ऐसी विकट स्थिति में उलझने पर अब जाकर उनका मूलाधार चक्र पकड़ा जाता है जो अन्य चक्रों पर भी भी बुरा प्रभाव डालता है क्योंकि 'गणपति' तो बाकी के 6 चक्रों में भी उपस्थित होते हैं।

'गणेश' तत्व खराब होने पर बाकी के कोई भी चक्र ठीक से कार्य नहीं कर सकते क्योंकि "श्री गणेश" की अनुमति के बिना बाकी के चक्रो के देवता भी हमें आशीर्वादित नहीं कर पाते हैं। इस कारण अधिकतर सहजि इसी चक्र को स्वच्छ करने में ही सबसे ज्यादा समय व्यतीत करते हैं।

यदि अपने मध्य हृदय सहस्त्रार से जुड़कर गहन ध्यान अवस्था में चिंतन करें तो पाएंगे कि इस चक्र के गुणों के विपरीत जीवन यापन करने के परिणाम स्वरूप ये चक्र गड़बड़ हो जाता है।

यानि "श्री माता जी" के अनुसार इस चक्र की चार मुख्य विशेषताएं हैं जिनको थोड़ा विस्तृत रूप से हम समझने का प्रयास करेंगे।प्रथम है:

1.अबोधिता:--मतलब ईर्ष्या, घृणा, प्रतिस्पर्धा, भेदभाव, ऊँचनीच, हिंसा (बाह्य आंतरिक), षड्यंत्र, छल, झूठ, फरेब, आडंबर, दिखावा, धोखा, अपमान आदि से दूर रहना।

2.पावित्र्य:--से आशय, निर्वाजय प्रेम बनाये रखना, अहंकार रहितता, अनावश्यक क्रोध शून्यता, हींन भावना नगण्यता, स्वम् को अन्यों से निकृष्ट समझना, प्रभुत्व जामाने की प्रवृति का अभाव होना, श्रेष्ठता सिद्ध करने का स्वभाव का होना

आत्ममुग्धता होना, आत्मप्रशंसा की इच्छा होना, अन्य लोगों की प्रशंसा पाने के लिए लालायित होना, दूसरों की कमियां निकालने की प्रवृति का होना, पीठ पीछे किसी की निंदा करने की आदत का होना, आदि।

3.विवेकशीलता:--में निर्वाजय प्रेम को प्रसारित करने के लिए नई नई युक्तियों को खोजना, ध्यान में और भी ज्यादा गहनता पाने के लिए प्रयासरत रहनानिकृष्टता के भाव के शिकार व्यक्ति में आत्मविश्वास जगाने का कार्य करना

किसी भी मानव को विशेषतौर पर सहजी को उसके स्वम् के पावों पर खड़ा करने में मदद करनास्वम् की नित-नवीन खोजों के जरिये सहज को आगे बढ़ाने में मदद करनाध्यान की गहराइयों में स्वम् उतरकर अन्यों को भी उतारने में मदद करना आदि शामिल है।

4.बुद्धिमत्ता:-समस्त 'मानव विरोधी', 'प्रकृति विरोधी', 'तत्व विरोधी', 'सद-ज्ञान विरोधी' "परमात्मा" विरोधी स्वार्थ सिद्धि के लिए तांत्रिक क्रियाओं, प्रक्रियाओं कृत्यों से पूर्ण जागरूक रहते हुए सदा स्वम् दूरी बनाए रखना अन्यों को भी ऐसा करने से बचाना। 

हर पल हर घड़ी "श्री माँ" के प्रति पूर्ण श्रद्धा, भक्ति, विश्वास समर्पण का भाव रखना साथ ही "उनके" समस्त बच्चो के प्रति प्रेम-भाव सद भाव बनाये रखनास्वम को कुछ कुछ सीखने के लिए तत्पर रखना सीखकर अन्यों को भी हर पल बांटने के लिए तैयार रहना।

यदि हम इन उपरोक्त सरल बातों को अपने जीवन में हम उतार लेते हैं तो निश्चित रूप से हमारा मूलाधार चक्र कभी भी बाधित नही होगा और ही हमारे अन्य चक्र ही पकड़ेंगे। वास्तव में हमारे शरीर में सभी कुछ पवित्र पूजनीय है क्योंकि हमें स्वम् "माँ आदि शक्ति" ने निर्मित किया है।

अतः हमारी रचना से सम्बंधित कोई भी प्रकृति प्रधान आवश्यकता अपवित्र अप्राकृतिक नहीं है जो हमारे मूलाधार चक्र को खराब विकृत कर सके। 

हाँ वो बात और है कि कुछ आवांछित अव्यवहारिक मानसिक इच्छाएं हमारे चक्रों को जरूर खराब कर सकतीं हैं क्योंकि इस प्रकार की निकृष्ट इच्छाओं से हमारे दोनो आगन्या पर बुरा असर पड़ता है।

क्योंकि हमारा मस्तिष्क असत्य को यदि हमारे मन के दवाब में ग्रहण कर लेता है तो इससे जहरीले पदार्थ का स्राव होने लगता है जिसके कारण सर्वप्रथम हमारा सूक्ष्म यंत्र बाधित होता है, 

और फिर हमारे जैविक शरीर को नुकसान होना प्रारम्भ हो जाता है।इसीलिए हमें अपने जीवन को आवश्यकता प्रधान बनाना चाहिए कि इच्छा प्रधान।

यानि यदि किसी भी तरीके से बिना किसी को हानि पहुंचाए,छल किये, या झूठ बोले हमारी कोई भी जरूरत पूर्ण होती है तो ठीक है। अन्यथा उस आवश्यकता का व्रत रख कर पूर्ण समाधान आत्मसम्मान के साथ जीवन यापन करना ही श्रेष्ठ है।"

-------------------------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"

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