Tuesday, September 11, 2018

"Impulses"--461--"अन्त:रिक्तता"


"अन्त:रिक्तता"

"जब कुछ सहज-अभयसियों का चित्त अपने भीतर की ओर अग्रसर होने लगता हैं तो वो अपने में यदा कदा एक अनजानी सी रिक्तता महसूस करते रहते हैं।जिसके कारण उनका दिल किसी भी सांसारिक कार्य में पूर्णतया लग नहीं पाता।

आधी अधूरी रुचि के साथ ही समस्त कार्य सम्पादित होते रहते हैं।हालांकि इस आंतरिक स्थिति का एहसास वो अपने साथ में रहने वालों को नहीं होने देते।

किन्तु भीतर ही भीतर कुछ अजीब सी खिन्नता उनकी चेतना में व्याप्त रहती है।लेकिन इस खिन्नता का कोई भी कारण उनकी चेतना में परिलक्षित नहीं होता।

और ही वो अपनी आंतरिक स्थिति ही ठीक प्रकार से समझ पाते हैं और ही इससे उबरने के कोई उपाय ही उन्हें समझ आता है।

जबकि ध्यान भी ठीक प्रकार से लगता है, 'दिव्य ऊर्जा' भी उनके यंत्र में दौड़ती महसूस होती है, अनुपम शांति, सन्तुष्टि आनंद का एहसास भी निरंतर बना रहता है।नए लोगों को आत्मसाक्षात्कार देने सामूहिक रूप से ध्यान करने कराने के कार्य भी चलते ही रहते हैं।

परंतु "श्री माता जी" के अनेको लेक्चर्स सुनने के बाद भी उनको इस नई मनो दशा को संतुलित करने का कोई भी मार्ग नहीं सूझता की इस आंतरिक मन-अवस्था से कैसे बाहर आया जाय।

इससे पार पाने के लिए कई प्रकार की सहज क्रियाएं ट्रीटमेंट भी वो कई बार कर चुके होते हैं किन्तु मन स्थिति जस की तस बनी ही रहती है। और एक ही जिज्ञासा प्रश्न भीतर ही भीतर बने रहते हैं कि आखिर ये स्थित भला किस प्रकार बन गई और ये कब तक चलेगी।

अक्सर उनको ऐसा प्रतीत होने लगता कि किसी बड़ी भारी नकारात्मकता का साया उन पर पड़ गया है जिसके कारण वो इतने अकर्मण्य निष्क्रिय होते जा रहे हैं।

मेरी चेतना के अनुसार जब उपरोक्त हालात अपने भीतर में आभासित होने लगें तो स्वम् को अत्यंत भाग्यशाली समझना चाहिए।

क्योंकि ध्यान साधना के उचित अभ्यास के बाद ये अत्यंत सुंदर दौर आया है जब हमारी अपनी आत्मा ने अपने से जुड़ने का मार्ग सुझाया हैं। यानि, ऐसे दुर्लभ सुंदर अवसर पर अपने ध्यान का केंद्र बिंदु अपनी स्वम् की 'आत्मा' को बना लेना चाहिए।

अपनी प्रत्येक ध्यान की बैठक में अपने चित्त को लगातार अपनी स्वम् की आत्मा पर बनाये रखना चाहिए। यहां तक कि जब अन्य सांसारिक कार्य भी कर रहे हों तब भी अपनी आंतरिक दृष्टि अपनी ही आत्मा पर लगातार बनाये रखें।

जैसे हम अपने किसी अत्यंत प्रिय को अपने मन, चित्त, चेतना हृदय में रखते हैं।उसके प्रेम को अपने हृदय में संजोते हैं अथवा अपने प्रेम से उसके हृदय को जोड़े रखते हैं।

वास्तव में "परमेश्वरी" अब हमारा परिचय हमारी स्वम् की आत्मा से कराना चाहती हैं ताकि हमारे भीतर 'आत्म-ज्ञान' का संचार हो सके। अभी तक तो हम "श्री माँ" की वाणी सुनसुन कर "उनके" निर्देशों के अनुसार चैतन्य की मूक भाषा को सुनते हुए ध्यान में चल रहे थे।

किन्तु अब "वो" चाहती हैं कि हम अब अपने 'आत्म तत्व' को आत्मसात कर अपनी स्वम् की आत्मा को प्रकाशित करें।  'उसके' मार्गदर्शन में आगे बढ़ते हुए अपने स्वम् के 'आत्म-ज्ञान' को अर्जित कर आध्यात्मिक रूप में अपने स्वम् के पावों पर खड़े हों।

और बाद में अपने स्वम् के वास्तविक अनुभवों अनुभूतियों को अन्य सहज-यात्रियों 'नए सत्य-खोजियों' के साथ बांटते हुए "श्री माँ" के स्वप्न को साकार करें।

वास्तव में ये उपरोक्त अवस्था ध्यान-यात्रा की अगली कड़ी है जिसे हमने अपने साधना-पूर्ण-जीवन में अपनाना है। हमारी आत्मा कई सदियों से हमारी चेतना की प्रतीक्षा कर रही है कि कब हमारी चेतना पूर्ण इच्छा के साथ 'मुझ' से मिलेगी।

जैसे ही सहज-अभ्यासी अपने चित्त चेतना को अपनी आत्मा से जोडेंगे कुछ ही क्षणों में उन्हें एक अनजाने उल्लास आनंद की अनुभूति होगी, जो हृदय को प्रेम से लबरेज कर देगी।

ये लक्षण तभी उत्पन्न होने लगते हैं जब हमारी आत्मा ये देखती है कि अब हमारी चेतना 'उससे' मिलने के योग्य हो गई है। तभी वह हमारे अन्तर्मन में ऐसी स्थिति उत्पन्न करने लगती है कि हमारा दिल हर चीज से उचाट होने लगता है।"

------------------------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"


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