Saturday, September 21, 2019

'अनुभूति'-47--"सामूहिकता" (24-06-19)


"सामूहिकता"

'जिस दिन सामूहिकता का वास्तविक अनुभव आम सहजी में उतर जाएगा,

उस दिन से "श्री माँ" का प्रेम इस दुनिया के घर घर में नजर आएगा,

सामूहिकता बाह्य रूप से मात्र लोगों का जुड़ना नहीं है,

सामूहिकता केवल सहजियों की भीड़ का संचालन नहीं है,

वास्तव में सामूहिकता एक 'आंतरिक स्वतंत्रता' है बंधन नहीं है,

सामूहिकता है सहस्त्रार से प्रविष्ट हुई 'अनंत शक्तियों' का अपने ही हृदय में एहसास,

तब ही जाकर "श्री माँ" करती हैं हम सबके हृदयों में निवास,

अरे "श्री माँ" में ही तो सारी सामूहिकता करती है हर दम वास,

सामूहिकता है वास्तव में "श्री माँ" का अपने अस्तित्व में आभास',

इसी स्थिति में पहुंचाने में "श्री माँ" देती है हम सभी का सदा साथ,

"श्री माँ" के अनुसार, जहां सात सहजी ध्यानास्थ होते हैं, "मैं" सदा वहां विराजमान होती हूँ,

यदि केवल पांच सहजी भी साथ साथ गहन ध्यान में उतरे,

तब "मैं" "श्री विराट" के रूप में उनके भीतर उपलब्ध होती हूँ,

सारे के सारे देव, देवियां, रुद्र, गण, सद्गुरु "उनकी" उपस्थिति में आये हैं,

मानव के प्रथम जन्म से लेकर अभी तक के समस्त जागृत मानव 'सूक्ष्म' चेतनाएं बनकर "उनके" 'निराकार अस्तित्व' में समाए हैं,

जो भी "श्री माँ" का अनुभव, अपने 'ऊपर को खिंचते'/'झनझनाते'/ 'फड़फड़ाते'/सनसनाते',/'झिलमिलाते'/'रेंगते' 'शीतल होते' अपने सहस्त्रार पर निरंतर करेगा,


जो "उनकी" सहस्त्रार पर उपस्थिति की प्रतिक्रिया की अनुभूति 'वैक्यूम' बनाते'/धड़कते/फड़कते/शीतल होते हुए मध्य हृदय में हरदम करेगा,

वही 'सारे विश्व' के जागृत मानवों की सामूहिकता का आनंद ध्यान गहन में अपने स्वयं के भीतर करेगा,

"श्री माँ" के स्वप्न को पूर्ण करने के लिए जो सहजी 'हर क्षण' अपने सहस्त्रार मध्य हृदय में बना रहेगा,

वही बनकर स्वयं 'सूक्ष्म ऊर्जा अणु', इसी "सामूहिक ऊर्जा" में समाहित होगा,

तत्पश्चात, विभक्त होकर ऊर्जा कणों में, 'इसी शक्ति' का हिस्सा बनेगा,

केवल वही "माँ आदि" के 1000 पूर्ण जागृत 'महामानवों' में से एक बनेगा,

विश्व के स्थान स्थान पर जब ऐसे उच्च कोटि के सहजी तैयार होते जाएंगे,

वही विश्व की सम्पूर्ण सामूहिकता को 'चित्त अवस्था' में अपने अपने स्थानों से ही लाभ पहुंचाएंगे,

"श्री माँ" कहती हैं, "मैं" हर पल, हर काल, हर स्थान पर सक्रिय रहती हूँ,

एक पल के लिए भी "मैं" विश्राम कभी नहीं करती हूँ',

जबकि "श्री माँ" का स्थूल अस्तित्व किसी एक ही जगह पर होता है,

कभी सुप्त तो कभी जागृत अवस्था में परिलक्षित होता है,

कभी हम "उनको" पाते हैं सहजियों से बतियाते,

कभी हम "उनको" देखते हैं दिल खोल कर खिलखिलाते,

कभी गहनतम ध्यान की गहराई में "वे" खोती प्रतीत होती हैं,

कभी गहरे दुख: आंतरिक पीड़ा से "वह" रोती दिखाई पड़ती हैं,

आखिर क्या तकलीफ है इस समूर्ण ब्रह्मांड की "मल्लिका" को,

आंतरिक पीड़ा में भी पहुंचाती रहती हैं "वो" 'अपना प्रेम' एक एक पुष्प की 'कलिका' को,

ख्याल रखती है, पोषित करती हैं, उल्लासित करती हैं, इस कायनात के जर्रे जरे को,

शायद पीड़ा होती है "उन्हें" अपनी रचना के विनाश के एहसास से,

दुखी रहती हैं शायद "वे" अपने सहस्त्रार से जन्मे 'जागृत बच्चों' के 'अनुत्थान' से,

जो अक्सर सताते ही रहते हैं एक दूसरे को अपनी अपनी नादानी में,

बाधा बनते रहते हैं बारम्बार उनकी, जो रखते है चाह चहुं मुखी 'सर्वकल्याण' में,

कभी नियम, कभी कानून, कभी प्रोटोकॉल, कभी ध्यान-तरीकों के नाम पर पाबंदी लगाते है,

स्वयम उत्थान की ओर चलते हैं, और ही अन्यों को उनके उत्थान की ही ओर अग्रसर होने देते हैं,

' उठूंगा और उठने दूंगा' की तर्ज पर व्यवहार करते हैं,

अत्यंत अपना बन कर अपनो पर ही अत्याचार करते है,

अपनो से अपनो को ही मानसिक रूप से टार्चर करवाते है,

अपनी गन्दी कूटनीतिक चालों के चलते, अपनो से अपने ही लोगों का भावनात्मक शोषण करवाते हैं,

सच्चे सहजियों के मार्ग को अवरुद्ध करने के लिए रात दिन राजनीति करते हैं,

नहीं है ऐसे लोगों की ध्यान में कोई भी रुचि,

लोगों के ऊपर पर शासन करने में इनकी चेतना है फंसी,

संस्था के सेवक बनने के स्थान पर शासन करने की हरपल जुगत लगाते है,

'आत्म ज्ञान' में स्वम् कंगाल होकर राजा बनने के ख्वाब बुन रहे होते हैं,

"श्री माँ" के चंद लेक्चर रट कर आम सहजियों पर रौब गालिब किया करते हैं,

और "श्री माँ" के गहनता गूढ़ता से ओत प्रोत लेक्चर्स से सदा परहेज करते हैं,

जिनमें बताएं हैं "उन्होंने" 'वर्टिकल ग्रोथ' के वास्तविक रहस्य,

दैनिक सामूहिक ध्यान में निकालते नहीं हैं "उनकी" गहरी बातों के लिए समय,

मिटाने को हर क्षण तत्पर हैं "श्री माँ" की ज्ञानमयी विरासतों को,

गर ऐसे लोग उतरे अपने ही स्वयम के हृदय में समझने को "श्री माँ" की गहरी बातों को,

तब कभी, किसी भी रूप में दे नहीं पाएंगे वो पीड़ा "श्री माँ" के सच्चे 'ध्यातों' को,

कभी सीनियर, कभी लीडर, कभी कार्डिनेटर तो कभी ट्रस्टी बनकर 'सच्चे सहजियों' का मार्ग अवरुद्ध करते हैं,

"श्री माँ" की इच्छा "श्री माँ" की बातों के सदा विरोध में चलते हैं,

कहते हैं बाह्य सामूहिकता के लिए हम "श्री माँ" की अगुवाई करवा रहे हैं,

वास्तव में पूरे विश्व के गहन साधकों के समक्ष जगहंसाई करवा रहे हैं,

ऐसे भ्रमित, शासन करने की इच्छा रखने वालों की अगुआई कर रहे हैं,

वास्तव में विभिन्न प्रकार के सुप्त-असुप्त शासकों के ग्रुप का संचालन कर रहे हैं,

सच्चे साधकों के लिए कहते हैं कि वो ग्रुप बना रहे हैं,

सारी सामूहिकता को खंडित करके अपनी चला रहे है,

अपने इन झूठे कथनों के आड़ में वास्तव में साधको के 'स्वतंत्र उत्थान' को बाधित कर रहे हैं,

स्वयं ही सच्चे साधकों की आधार हीन बुराई करके लोगों में भ्रम फैला रहे है,

स्वयं ही सेंटर की सामूहिकता को इन नकारात्मक बातों से तहस नहस करने में लगे हैं,

पर अपने ही विभीन्न भ्रमों का शिकार होकर प्रतिदिन गर्त में गिर रहे हैं,

संस्थागत सामूहिकता को हकीकत में ये अच्छे से डुबो रहे हैं,

नहीं जानते "श्री माता जी" ने एक बार अपने एक लेक्चर में स्वयं कहा था,

ध्यान जागृति को आगे बढ़ाने के लिए एक ग्रुप बनाओं "श्री माँ" का,

उसी भाव इच्छा से यह चेतन कार्य चल रहा है,

'वर्कशॉप आन अटेंशन' ने नाम से "उन्ही" की देख रेख में ही तो ध्यान चल रहा है,

जिसके माध्यम से लगातार आत्मिक उन्नति हो रही है कुछ सहजियों की,

इसी के माध्यम से ही तो समस्त ध्यान-जिज्ञासाएं शांत "करा" रहीं हैं सहजियों की,

सामूहिकता के नाम पर आयोजन करके, बरसों पुराने चक्र-नाड़ियों के रटे रटाये भाषण वो करवाते हैं,

ध्यान के नाम पर बड़े बड़े कर्ण फाड़ डी जे स्पीकर चलवाकर फिल्मी धुनों पर 'भांगड़ा' करवाते हैं,

सामूहिक ध्यान के नाम पर अब तो केवल मनोरंजन ही हो रहा है,

दम तोड़ता 'सूफी संगीत' अब अपना असर छोड़ रहा है,

संगीत के नाम पर बस अब केवल और केवल कोलाहल ही नजर आता है,

ऐसी सामूहिकता में आया हुआ सच्चा साधक दिल ही दिल में कुम्हलाता है,

*क्या ऐसे ही संगीत का स्तर था साक्षात "श्री माँ" के सामने,*

क्या नए खोजी शामिल हो पाएंगे ऐसी सामूहिकता में अब 'स्वयं को' जानने,

"श्री माँ" का सर्वोच्च सामूहिक उन्नति का स्वप्न अब दम तोड़ रहा है,

किसी भी संस्था के नियम कायदों से 'सहज' चलता नहीं है,

"श्री माँ" की इच्छा हो तो 'कुंडलिनी' छोड़ो एक पत्ता तक हिलता नहीं है,

सहज योग को चलाने के लिए चाहिए 'खुले हृदय' के जागृत सहजी,

जिससे मिलकर जुड़कर प्रसन्न हो सभी चेतनाओं का 'जी',

सभी ध्यान-कार्यक्रम ह्रदय प्रेरणा बन कर सुनिश्चित करवाती है "श्री माँ" स्वयं,

संस्थागत आयोजक बन 'सहज योग' चलाने का क्यों रखते हो वहम,

"श्री माँ" से प्रेरित किसी भी सहज कार्यक्रम में यदि तुम बाधा बन कर आओगे,

अनेको गणो, रुद्रों देवताओं से तुम हृदय विदारक पीड़ा पाओगे,

तुम किसी जागृत सहजी को 'चेतन कार्य' करने से नहीं रोक रहे हो,

बल्कि स्वयं अपनी अज्ञानता मूर्खता में "श्री माँ" की ही अवहेलना कर रहे हो,

जो चाहता है सामूहिक उन्नति, उसके लिए नित नई बाधाएं उत्पन्न करवाते हो,

फिर भी बड़ी बेशर्मी से अपने को "श्री माँ" का अनुयायी कहलाते हो,

तुम क्या रोकोगे उसे जिसे चलाती स्वयं "श्री माँ" हैं,

तुम क्या टोकोगे उसे जिसे बताती स्वयं "श्री आदि माँ" हैं,

सच्चे साधकों के चेतन कार्य रोक कर सबके सब एक्सपोज हो रहे हो,

'जागृत चेतनाओं' के चित्त रूपी तीरों के तुम अब शिकार हो रहे हो,

कल्याण होगा इसमें भी तुम्हारा, तुम नहीं जानते हो,

"श्री माँ" के वास्तविक बच्चों को तुम नहीं पहचानते हो,

जो अलग अलग रहते हैं फिर भी सहस्त्रार हृदय से सदा सामूहिक रहते हैं,

"श्री माँ" के समस्त देव गण ऐसे विलक्षण बालकों के साथ चलते हैं,

ऐसी ही सामूहिकता की 'परिकल्पना' "श्री माँ" ने सदा की है,

ऐसी ही उच्च कोटि की चेतनाओं के हॄदय में स्वयम "श्री माँ" बसी हैं,

हमारी कोई संस्था है और हम कभी कोई संस्था बनाएंगे,

सबके हृदयों में "श्री माँ" को जागृत करने को प्रेरित कर,

चलते-फिरते ऐसे ही आलोकित 'सहस्त्रार-सेंटर्स' के ह्रृदयों में सामूहिकता करवाएंगे,

सच्चे सहजियों की अनाप शनाप बुराइयां करने के स्थान पर,

तुम स्वयं क्यों नहीं ध्यान में गहरे उतर, ऊंचे उठ जाते हो,

सींच सींच कर अपने 'आत्म ज्ञान' से अपने ही सेंटर क्षेत्र की सामूहिकता को,

क्यों नहीं सबके ध्यान-स्तर को ऊपर उठाते हो,

फिर बन कर सबके आंखों के तारे सभी का 'निर्वाजय प्रेम' तुम क्यों नहीं पाते हो,

यदि दिल जीतना है अपने सभी सेंटर के सहजियों का,

तो जतन करो सच्चे हृदय से स्वयम अपनी चेतना को उन्नत करने का,

खोलो अपना हृदय और दूर करो अन्य सहजियों के प्रति दूषित भावनाओं को,

करो समर्पण पूर्ण हृदय से "श्री चरणों" में अपने तथा कथित शासन को,

तब जाकर तुन्हें कोई भी भेद अन्य 'बाहरी' सहजियों में प्रतीत होगा,

तुम्हारे स्वयं के धड़कते हृदय का आभास दूसरों के हृदयों में होगा,

जब तुम्हारी कुंडलिनी सहस्त्रार पर अन्य सहजियों की कुंडलिनी से एकाकार हो जाएगी,

तब तुमको कभी भी किसी के 'दूसरे' होने की 'बू' नहीं आएगी,

फिर सब सहजी तुमको एक समान नजर आएंगे,

तब ही जाकर सभी सहजियों के लिए तुम्हारे हृदय में सम्मान के भाव आएंगे,

फिर जाकर महकेगा तुम्हारा एक एक रोम छिद्र वास्तविक आनंद से तुम्हारे इस यंत्र का,

टूट जाएंगी सारी वर्जनाएं बह जाएंगी समस्त मन की बाधाएं इस अन्तः जागृति की बयार में,

इसके बाद डूबे रहोगे तुम केवल और केवल "श्री माँ" के प्यार में,

तब तुमको किसी 'बाहरी सहजी' के द्वारा तुम्हारे सेंटर क्षेत्र की सामूहिकता को प्रभावित करने का कोई भय होगा,

बल्कि जब भी कभी कोई बाहरी सहजी तुम्हारे क्षेत्र में कोई भी सहज कार्यक्रम करेगा,

इस उन्नत अवस्था में तुम्हारा रोम रोम और भी पुलकित हो रहा होगा,

और तब ही जाकर "श्री माँ" तुम पर अपने सभी आशीर्वादों की झड़ी लगा डालेंगी,

विभिन्नता में एकता की मिसाल बनाकर सारे गिले शिकवों को मिटा डालेंगी,

तब सारे सहजी "श्री माँ" के उपवन में भांति भांति के पुष्प सम अपनी अपनी खुशबू से महकेंगे,

जब ऐसी स्थिति इस धरा पर सहजियों के बीच बन जाएगी,

यही सुंदर स्थिति ही तो वास्तविक सामूहिकता कहलाएगी।"

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"Jai Shree Mata Ji"


'अनुभूति'-47(24-06-19)


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