Sunday, April 19, 2020

"Impulses"--525--"कोरोना"-'एक अभिश्राप या वरदान' (भाग-2)


 · "कोरोना"-'एक अभिश्राप या वरदान'
(भाग-2)


b) अथवा यह 'विषाणु', मानवता, वसुंधरा प्रकृति "परमात्मा" के खिलाफ मानव द्वारा किये जाने वाले कुकृत्यों की सजा के तौर पर 'माता प्रकृति' ने स्वयं ही उत्पन्न किया है ?

"या "देवी" सर्वभूतेषु "भ्रांति"रूपेण संस्थिता,
नमस्तस्ये, नामस्तये, नमस्तस्ये नमो नमः"



जब जब मानव अपनी सीमाओं को लांघ कर "परमात्मा" के द्वारा अत्यंत प्रेम से बनाई रचना को, अपने अहंकार अनियंत्रित लोभ के वशीभूत होकर कष्ट देने,क्षति पहुंचाने नष्ट करने पर उतारू हो जाता है।

तब तब "परमेश्वरी" अपनी एक अन्य 'शक्ति' "भ्रांति देवी" को उस मानव के मन में जागृत कर देती हैं जिसके कारण उसकी बुद्धि, कुबुद्धि में परिवर्तित हो जाती है।

और कुबुद्धि के कारण उसका विवेक पूर्णतया नष्ट हो जाता है और विवेक विहीन मानव ऐसे कार्य करने प्रारम्भ कर देता है।

जो उसे अपने स्वयं के विनाश के मार्ग की ओर मोड़ देते हैं और अपने दम्भ के नशे में वह मानव जान ही नहीं पता कि वह रास्ता भटक चुका है।

पता उसे बिल्कुल आखिर में चलता है जहां पर सारे रास्ते बंद हो जाते हैं, जहां से वापस आना भी मुश्किल होता है। और वह स्वयं को या तो एक कैद में पाता है जहां से बाहर आना लगभग असम्भव ही होता है या वह नष्ट हो जाता है।

जैसे पौराणिक कथाओं के अनुसार जब राक्षस अपने किन्ही स्वार्थों वासना की तुष्टि के लिए "श्री महादेव" से मन चाहा वर पाने के लिए कठोर तप करते थे।

तो साधना से अक्सर प्रसन्न होकर "श्री महादेव" उन्हें सहर्ष वर प्रदान कर देते और फिर वे राक्षस और भी ज्यादा अहंकारी होकर गणो,देवताओं, मानवों पर भी अत्याचार प्रारम्भ कर देते थे।

तो अंत में "परमेश्वरी" "श्री भ्रांति देवी" को उनके मन मस्तिष्क में जगाकर उनके उसी वर को माध्यम बना कर उनके द्वारा ही उन्हें समाप्त भी कर देती थीं।

अब चूंकि "माँ परमेश्वरी" ने 'माता प्रकृति' को पृथ्वी का पूर्ण उत्तरदायित्व सौंपा है और इस कार्य में 'प्रकृति माँ' का साथ देने के लिए 'नवग्रहों' को नियुक्त भी किया है।

'माता प्रकृति' का मानवों के लिए एक ही सिद्धांत है और वो है,

*जो जैसा करेगा वैसा ही भरेगा*

अतः जब कोई मानव अच्छा कार्य करता है तो यह नव ग्रह उसे पुरुस्कार देते हैं और जब कोई मानव गलत कार्य करता है तो यही ग्रह उसको भरपूर सजा भी देते हैं।

अतः'भ्रांति देवी' ने अनियंत्रित मानव को उकसाकर मानव के द्वारा ही मानव के नियंत्रण के लिए 'नोवल कोरोना वायरस' का निर्माण करवाया।

और इसी वायरस के द्वारा वास्तविक उद्देश्य से पूर्णतया भटके मानव को नष्ट भी करवा रहीं हैं और मरने का भय दिखाकर उसको कैद भी कर दिया है।

ताकि दुष्टता बुराइयों से घिरे मानव ने जितना कष्ट 'माता प्रकृति', धरा अन्य प्राणियों को दिया है, उन्हें कुछ राहत मिल जाये।

इस अहंकारी मानव ने अनेको प्रकार के 20000 से भी ज्यादा 'परमाणु' बम बना डाले हैं।

*यदि इनमें से 100 भी फूट जाएं तो पूरी पृथ्वी धूल के कणों में विभक्त हो जाएगी।*

पिछले कुछ वर्षों से कुछ देशों के महामूर्ख हिंसक राजनेताओं के कारण लगातार परमाणु युद्ध की संभावनाएं बार बार बनती जा रहीं थीं ऐसा लगने लगा था कि कहीं 3rd World War छिड़ जाए।

इसके अतिरिक्त अनेको प्रकार के लोभ सत्ता सुख प्राप्त करने के कारण लगभग पूरे विश्व में बरसों से मारकाट मची हुई थी।

विशेषतौर पर हमारे देश में छोटी छोटी बच्चियों, कन्याओं स्त्रियों के बलात्कार बलात्कार के बाद निर्मम हत्या के जघन्य अपराधों की हजारों हृदय विदारक घटनाएं बढ़ती ही जा रहीं थी जिनके कारण मानवता चीत्कार कर रही थी।

मानव अंगों की तस्करी के लिए पूरे विश्व में बच्चों निर्दोष लोगों की हत्याएं बढ़ती ही जा रही थीं। जात-पात धर्म के नाम पर हिंसक दंगों के माध्यम से अनेको निर्दोषों का खून बहाना चरम सीमा पर पहुंच रहा था।

धरती ही नहीं इस महादुष्ट मानव ने अपने स्वार्थ से अंतरिक्ष मे भी अपना आधिपत्य जमाना प्रारम्भ कर दिया था।

और भी अनेको प्रकार के अनगिनत पाप हमारी धरती पर निरंतर बढ़ते जा रहे थे जिनके कारण हम जैसे मानवों का ह्रदय हर रोज खून के आंसू रोता था और "श्री माँ" से कहता था।

'या तो हमारे चित्त में इन दुष्टताओं को समाप्त करने की हनन शक्तियां दें दें ताकि इन नराधमों का संहार हमारे चित्त डालने से ही हो जाये।

या फिर हमारे शरीर को समाप्त कर हमारी जीवात्मा/आत्मा को अपने "श्री चरणों" की सेवा में सदा के लिए लगा लें, हमसे मानवता का हनन अब बर्दाश्त नहीं होता है।

ऐसा प्रतीत होता है कि "परमेश्वरी" ने हम जैसों की पुकार सुन ली और 'भ्रांति देवी' का उपयोग कर।

परमाणु युद्ध अनेको प्रकार के उपरोक्त अपराधों द्वारा होने वाले महा विनाश को रोकने के लिए महा लोभी अहंकारी मानव को अन्य लालचों में फंसा दिया।

और इस वायरस को इन अहंकारी मनुष्यों के हाथों मोडिफाइड करवा कर स्वयं मानव के द्वारा ही इस वायरस का संक्रमण सारे विश्व में फैलवा कर भयभीत कर दिया।

ताकि मानव की यह सभी विनाशकारी गतिविधियां कुछ काल के लिए पूर्णतया रुक जाय और गहन अंधकार में घिरे इन अनेको मानवों को कुछ चिंतन करने का अवसर मिल जाये।

*इस प्रकार के वायरस संक्रमण का प्रसार ऐसे ही होता है,जैसे नकारात्मक लोगों से अन्य नकारात्मक लोग स्वतः ही मिल कर एकत्रित हो जाते हैं उन्हें खोजना नहीं पड़ता।*

यानि बाहर से हमारे कंठ में आने वाले विषाणु से हमारा अहित नहीं होता बल्कि हमारे ही भीतर में रहने वाले विष्णुओं के सक्रिय होने के कारण हमको तकलीफ होती है।

यानि बाहर का शत्रु हमारे भीतर में रहने वाले शत्रुओं को एकत्रित करके ही हमें नुकसान पहुंचाता है। यानि इन विषाणुओं की विशेषता है कि जब भी हमारी प्रतिरोधक क्षमता कमजोर होगी।

तो ये 'रक्तबीज' हमारी विशुद्धि (कंठ) से प्रवेश करके हमारे सामूहिक अवचेतन में स्थित पहले से मौजूद अपने और साथियों को शरीर में बुला लेते हैं।
और हमारे ठोस आहार से धीरे धीरे पुष्ट होते जाते हैं और हमारे रक्षा तंत्र पर अपना पूर्ण कब्जा जमा लेते हैं।

जैसे एक चींटी को कहीं खाद्यान्न के अंश अथवा अन्य जीवों के मृत शरीर मिल जाते है तो वह अन्य चींटियों को भी बुला लेती है।

यदि हम इनसे बचना चाहते हैं तो हमें इस प्रकार का प्राकृतिक भोजन ग्रहण करना होगा जो हमारे शरीर के खून में मिलकर।

हमारे मस्तिष्क के सकारात्मक द्रव्य के निर्माण को तीव्र करे इसके स्त्राव की गति को निरंतर बनाये रखे।

अथवा हम भोजन के अतिरिक्त कुछ ऐसा भी करते रहें जिससे हमारा मस्तिष्क अच्छे रासायनिक द्रव्यों(स्लाइवा) का स्त्राव हमारे कंठ में निरंतर करता रहे।

यदि हमारे कंठ में किसी भी तरह से कोई वायरस प्रवेश कर भी गया है तो मस्तिष्क से निरंतर रिसने वाला यह द्रव्य उसे कंठ में ही नष्ट कर दे।

या फिर हम थोड़ी थोड़ी देर में 'घूंट' घूंट करके गुनगुना पानी/नारियल पानी/ अथवा फलों का जूस पीते रहें।

जिसके जरिये यह विषाणु जल/रस में घुलकर हमारे पेट में चला जाय और पेट में लिवर के द्वारा बनाया गया एसिड (Bile) उसे वहीं पर नष्ट कर दे।

आहार के अतिरिक्त हमारा मस्तिष्क कई अन्य कारणों से अच्छा द्रव्य स्त्रावित करता है:-

यदि हम नित्य सुबह सुबह कम से कम 1 घंटे तेज गति से चलें और खुले स्थान पर धूप में कम से कम आधा घंटा तक व्यायाम करें,

या हम किसी मनुष्य/प्राणी के निर्वाजय प्रेम में डूब कर हर पल आनंदित रहें,

या हम प्रतिदिन प्रकृति के सौंदर्य अपने हृदय के बीच एकाकारिता को कम से कम 1 घंटे तक बनाये रखें,

या हम रोज 1-2 घंटे छोटे छोटे बच्चों के साथ प्रसन्नता पूर्वक व्यतीत करें,

या हम हर दिन 1-2 घंटे तक शास्त्रीय संगीत /लोक गीत/पुराने गानों या अपनी पसंद के भजनों का भरपूर आनंद लें,

या हम रोज घंटा दो घंटा अपनी पसंद के नृत्य का लुत्फ उठाये,

या हम डेढ़ से दो घंटे का समय अपनी किसी रचनात्मक रुचि में सुरुचि पूर्ण ढंग में व्यतीत करें,

या हम आये दिन मानव प्राणिमात्र की निस्वार्थ सेवा में अपने बाह्य अस्तिव को खुशी खुशी व्यस्त रखें,

या फिर हम "श्री माता जी" अथवा "उनके" किसी माध्यम के द्वारा आत्मसाक्षात्कार प्राप्त कर अपनी कुंडलिनी को अपने सहस्त्रार पर बने रहने का अभ्यास बनाएं।

और फिर प्रतिदिन कम से कम आधा घंटे ध्यानस्थ अवस्था में रहकर अपने सहस्त्रार पर उपस्थित अपनी 'कुंडलिनी' की 'ऊर्जा-हलचलों' को अनुभव करते हुए "परमेश्वरी" की ऊर्जा को अपने सहस्त्रार के द्वारा अवशोषित करते रहें।

जब यह 'दिव्य ऊर्जा' हमारे मस्तिष्क में प्रवेश करती है तो हमारा मस्तिष्क प्रतिक्रिया कर अनेको सकारात्मक द्रव्यों का निर्माण कर इसका स्त्राव हमारे कंठ में प्रवाहित करना प्रारम्भ कर देता है।

जो स्वाद में मीठा मीठा सा अनुभव होता है जिसे अमृत भी कहा जाता है, प्राचीन पद्धतियों पर चलने वाले योगी जन अपनी जिव्हा को काख तक मोड़ कर अमृत पान करते हैं।

कंठ के जरिये यह अमृत रस हमारे मध्य ह्रदय में भी जाना प्रारम्भ हो जाता है जिससे हमारे मध्य हृदय का चक्र चलना प्रारम्भ हो जाता है।

जिससे बीमारियों से लड़ने वाले योद्धाओं (WBC) का निर्माण प्रारम्भ हो जाता है जो शरीर में स्थित शत्रुओं को मार भगाते हैं।

*कुंडलिनी जागरण के बाद ध्यान समाधि के दौरान मस्तिष्क से जो द्रव्य स्त्रावित होता है वह सबसे उच्च कोटि का रसायन होता है।

इसके अतिरिक्त जब हमारी कुंडलिनी हमारे सहस्त्रार पर विराजी रहती है तब यह एक शक्तिशाली 'परिमल'(Aura) का निर्माण करती है जिससे अत्यंत तीव्र गति से अनेको शक्तियों का विकिरण होता रहता है।

जिसके कारण किसी भी प्रकार के विषाणु, परजीवी किसी भी प्रकार के नकारात्मक तत्व हमारे निकट आने से पहले ही नष्ट हो जाते हैं।

और तो और ऐसे जागृत मानवों के माध्यम से चारों तरफ का वातावरण भी स्वतः ही स्वच्छ होने लगता है।

यदि कोई ध्यान अभ्यासी निरंतर अपने सहस्त्रार अपने मध्य ह्रदय में ऊर्जा को अनुभव करता रहता है।

तो ऐसे मानव का ऊर्जा क्षेत्र कई कई सौ मीटर की रेडियस तक निरंतर कार्य करता है और ऐसे सूक्ष्मतम वायरस पैरासाइट्स को दूर से ही नष्ट भी करता जाता है।

इन सब उपरोक्त कार्य करने के वाबजूद भी यदि कोई जागृत मानव भी अपने नकारात्मक चिंतन,चिंता सोचों के कारण किसी भी प्रकार के भय के चंगुल में फंसता है।

या वह जागृत मानव इस संसार में होने वाले अत्यंत नकारात्मक घटनाक्रमों से आहत होकर संसार से पूर्णतया विमुख होकर "प्रभु" से अपने इस जीवन को समाप्त करने की गुहार लगाता है।

तब उसका मस्तिष्क "परमपिता" के द्वारा प्रदत्त उसके स्वयं के जीवन के प्रति अस्वीकार्यता उपेक्षा के भावों को अनुभव करने पर भी उसके प्रतिकूल कार्य करना प्रारंभ कर देता है।

इन दोनों दशाओं में भी उसका मस्तिष्क नकारात्मक रसायनों उत्पादन करना प्रारम्भ कर देता है और इन रसायनों का जहर उसकी प्रतिरोधक क्षमता हो बेहद कमजोर कर देता है।

उसके बाद ऐसा ध्यान अभ्यासी भी ऐसे किसी भी वायरस का शिकार बन सकता है भले ही वह जल्दी से पुनः ठीक हो जाये।

वास्तव में "परमात्मा" ने हमारे द्वारा किसी भी प्रकार के नकारात्मक विचार अपनी चेतना में लाने का हमें अधिकार ही नहीं दिया है।

यह एक प्रकार का अहंकार प्रेरित कार्य ही माना जाता है क्योंकि जिस "शक्ति" ने हमें जन्म दिया है "उसने" हमारे दैहिक भौतिक जीवन का एक एक घटना क्रम पहले से ही सुनिश्चित कर रखा है।

इसीलिए जब भी हम किसी भी प्रकार के भय चिंता के कारण भविष्य के बारे में सोचने लगते हैं। कि जो भी हम सोच रहें हैं तो वही घटित होगा तो ऐसी दशा में हम एक प्रकार से स्वयं "परमात्मा" बन गए।

तो हमारी यह मानसिक स्थिति मनो दशा "परमात्मा" के खिलाफ गम्भीर पाप की श्रेणी में ही आती है।

जिसके कारण हमारे आगन्या पर विराजी हुई चारों देव शक्तियां क्रुद्ध हो जाती हैं और मस्तिष्क को आदेश देती हैं कि इस मानव को सजा दें।

और इस पाप की सजा देने के लिए हमारा ही मस्तिष्क हमारे शरीर को नष्ट करने के लिए जहर स्त्रावित करना प्रारम्भ कर देता है।

क्योंकि हमारे मस्तिष्क की संरचना इस प्रकार की है कि वह केवल और केवल सत्य को ग्रहण करने के लिए ही निर्मित हुआ है कि 'परम सत्ता' की खिलाफत करने के लिए।

*यानि जब हमारा मस्तिष्क हमारे मन के चंगुल में फंस जाता है तो यह हमारे शत्रु सम प्रतिक्रिया करके हमारे शरीर को स्वयं ही नष्ट करना प्रारंभ कर देता है।

और जब यह हमारे ह्रदय के सम्पर्क में आता है तो यह हमारा मित्र बनकर हमारी स्थूल देह को अत्यंत शक्तिशाली बना देता है।*

अतः जब आज के कुछ निम्न मानवों ने अपने भविष्य के लोभ की पूर्ति के लिए के लिए इस वायरस को मोडिफाइड कर इसका दुरुयोग करने का प्रयास किया।

तो उन नराधमों के अतिरिक्त अपने हिसाब से दुनिया को चलाने की सोचने वाले विश्व भर के समस्त मानवों को उनके पूर्व कमों के अनुसार इस वायरस के माध्यम से अनेकों रूपों में सजा मिलनी प्रारम्भ हो गई है।

जरूरी नहीं कि ऐसे सभी लोग काल कवलित ही हों, इनमें से अनेको लोगों को धन की हानि की पीड़ा होगी तो अनेको लोगों को अपनी स्वतंत्रता खोने की छटपटाहट रहेगी,

तो अनेको को अपनी योजनाओं के ध्वस्त होने की टीस होगी तो अनेको को अपने सपने अधूरे रहने की घुटन होगी,

बहुत से लोगों को अपनी अपने परिजनों की मृत्यु का भय सताएगा तो कुछ को निकट भविष्य में मिलने वाले सुअवसर को खोने का मलाल रहेगा।

यानी जो भी लोग "परमात्मा" 'प्रकृति' की इच्छा को ह्रदय से स्वीकार नहीं कर पाएंगे वे सभी किसी किसी रुप में मानसिक स्तर पर निरंतर मानसिक आंतरिक पीड़ा का अनुभव करते ही रहेंगे।

अतः अब हम कह सकते हैं कि परोक्ष रूप में "परमेश्वरी" ने ही 'माता प्रकृति' के जरिये मानव को उसके नकारात्मक कर्मों कार्यों की सजा देने के लिए इस वायरस का निर्माण किया है।"


-----------------------------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"


............To be continued


Note:-आप सभी से विनम्र निवेदन है कि हमारे उपरोक्त अध्यन चिंतन पर कोई वाद-विवाद शास्त्रार्थ कीजियेगा। 

क्योंकि हम किसी भी विषय के कोई ज्ञानी, विद्वान, आचार्य, विशारद पंडित नहीं हैं। यह मात्र मानवता के हित में हमारी मामूली सी चेतना की एक साधारण अभिव्यक्ति है।

यदि यह आपको अच्छी लगे तो ठीक और यदि यह आपके आगन्या को तकलीफ दे तो हमें मूर्ख अज्ञानी समझ कर इस आंतरिक प्रवाह की उपेक्षा कर दीजिएगा।

किन्तु किसी भी हाल में इस प्रवाह के ऊपर वाद विवाद करने की चेष्टा भी कीजियेगा, क्योंकि हम उत्तर देने की इच्छा से पूर्णतया विरत रहेंगे।
फेस बुक की टाइम लाइन को जब हम खोलते हैं तो यह पूछती है,

'What's on your Mind',

अतः इसके प्रश्न के उत्तर में हम भी इस पर लिख देते हैं जो हमारी आंतरिक चेतना प्रेरणा देती है।धन्यवाद।...🙏️🌹

(Kindly don't feel offended with any of our Expression in Present as well as in Future)







 




No comments:

Post a Comment