Monday, January 3, 2011

"Impulses"----चिंतन--------Contemplation----------8---------03.01.11

"Impulses"----"चिंतन"
  1. "अक्सर सहज योग के तरीकों पर सहजियों में चर्चा चलती रहती है। कोई कहता है तरीका ठीक नहीं है कोई कहता है बहुत अच्छा है, कोई कहता है "श्री माता जी" ने ये बताया है कोई कहता है "श्री माता जी" ने वो बताया है। सभी लोग सहज योग पर व "श्री माता जी" के लेक्चर्स पर बौधिक स्तर पर ही शास्त्रार्थ करते रहते हैं पर अनुभव कम ही लोग करना चाहतें हैं। मुख्य बात सभी भूल जाते हैं कि चैतन्य को महसूस किया जाये तो भेद-भाव अपने आप ही समाप्त हो जायेगा। ये देखना चाहिए कि यदि किसी को रियलाइजेशन हो गया है तो तरीका ठीक ही था।"
  2. "श्री माता जी" के लेक्चर सभी सुनते हैं पर अपनी-अपनी विकसित चेतनाओं के आधार पर ही समझतें है अनुभव करते हैं, इसीलिए भेद-भाव उत्पन्न होते जा रहे हैं। जिसको जितना समझ आता है वह उतना ही आगे बताता है। सभी को स्वम का गुरु तत्व जगाना है, फिर भी एक-दूसरे की आलोचना करते है, बड़ी अजीब बात है, एक गुरु दूसरे गुरु को गलत ठहराना चाहता है। हद तो तब और भी हो जाती है जब ध्यान का तरीका पेटेंट करने की सोची जाती है।"
  3. "अक्सर सहजी ध्यान में विभिन्न देवताओं व "श्री माता जी" के दर्शन होने की चर्चा दूसरे सहजियों से इस भाव में करतें हैं मानो वे बहुत ऊंचे सहजी हैं और बाकी सब बेकार हैं, यह बात ठीक नहीं हैं, क्योंकि देवताओं ने ध्यान में चुपचाप केवल उन्हें ही दर्शन दिए हैं बाकियों को नहीं दिए, इसीलिए बताया न ही जाये तो अच्छा है, बताने से अनजाने में दूसरे सहजियों में हीन भावना पनपती है व भ्रम उत्पन्न होता है। मेरे विचारसे दर्शन केवल "मानसिक सम्प्रेषण"(mental projection) है। हमारे मस्तिष्क की विशेषता है कि जो चीज इसकी मेमोरी में पड़ी होगी उसका विचार करते ही यह उसको दिखा देता है, उसी को लोग दर्शन कहतेहैं। जैसे कम्प्युटर किसी भी फाइल का नाम लिखते ही उसको प्रगट करता है। जो "भगवान शिव" अजन्में हैं उन्हें भी लोग देख लेते हैं, पता नहीं कैसे।"
  4. "मस्तिष्क सदा विषमता व विभिन्नता को प्रगट करता है व हृदय सदा समता को। यदि चित्त को सदा मध्य हृदय में रखा जाये तो सम-भाव उत्पन्न होता है व "श्री माँ" की "बाणी" पूरी तरह से समझ आती है।"
  5. "सदा सहजी परेशान होते हैं व कहते हैं कि चित्त बहुत भटकता है जब भी सहस्त्रार पर इसको रखतें हैं तो जल्दी ही न जाने कहाँ-कहाँ भाग जाता है और ध्यान में मजा नहीं आता। मेरे विचार से चित्त एक बहुत ही नटखट" बच्चा है जो सदा कुछ न कुछ करता रहता है, यदि इसको मध्य हृदय में रखा जाए तो यह कहीं नहीं भागेगा, क्योंकि "माँ" हृदय में रहतीं हैं व बच्चा सदा अपनी माता के इर्द-गिर्द ही रहता है।"
  6. ""एक बहुत ही दुखद व अजीब समस्या सहज संस्था में बनी रहती है, यदि कोई भी सहजी ध्यान कराने का व जाग्रति देने का आसान व सक्षम तरीका खोज कर लोगों को बताता है जिसको अपना कर सहजी तेजी से उत्थान की ओर अग्रसर होते है तो अक्सर सहज संस्था के कुछ कोर्डिनेटर व अधिकारी गण उसको बिना जांचे व परखे हुए गलत ठहरा देते हैं व रोकने का प्रयास करते हैं। बिना उस सहजी से बात करे व वायब्रेशन देखे सारे में नकारात्मक प्रचार करते हैं जिसके कारण सहज का कार्य अवरुद्ध होता है व सहजियों में भ्रम उत्पन्न होता है। मेरे विचार से यह बिलकुल भी जरूरी नहीं है कि केवल कोरडीनेटर व संस्था के अधिकारी ही ध्यान का तरीका बताएं व सिखाएं। "श्री माँ" किसी भी साधक को यह ज्ञान भीतर से दे सकतीं हैं, उसका ज्ञान संस्था की गतिविधियों व संस्था तक सीमित नहीं है। "
  7. "एक बहुत ही हास्यपद व मजेदार बात सारे सहजियों में प्रचलित है वो है दूसरे के चक्रों की पकड़ के बारे में चर्चा करना, सदा सहजी दूसरे के चक्रों को खूब पकड़-पकड़ कर सारे में उसका प्रचार करतें है, वे ये भूल जाते हैं कि उनके खुद के चक्र की पकड़ के कारण ही तो उन्हें पता चला है, उन्ही का चक्र पकड़ा गया है, क्यों न अपने चक्र को ठीक करें बजाय दूसरे को आरोपित करने को।"
  8. "यदि ध्यान में जाकर चैतन्य लहरियों को अपने सहस्त्रार व मध्य हृदय पर महसूस करके किसी के चक्र पर चित्त डालें व ये भाव रखें कि "हे कण-कण में व्याप्त "आदि माँ" आप इस चक्र में भी उपस्थित हैं तो कभी भी पकड़ नहीं आयेगी, यदि किसी के चक्र में कोई बाधा भी यदि होगी तो स्वत: ही समाप्त हो जाएगी। इसी प्रकार से किसी भी स्थान पर चित्त रख कर हम "आदि शक्ति"को सहस्त्रार से महसूस करें तो वह स्थान भी शुद्ध हो जायेगा व हमारे चक्र भी नहीं पकड़ेगें। पकड़ इसीलिए आती है कि हम पकड़ पर ही चित्त रखतें हैं "श्री आदि माँ" पर नहीं रखतें।"
  9. "अक्सर सहजी आपस में बात करतें है कि, हम अमुक स्थान पर अमुक सहजी के घर गए तो वहां पर वायब्रेशन बहुत ख़राब आये, वो ये भूल जाते हैं कि ऊस वक्त उनका चित्त कहाँ है। वास्तव में ऐसा अक्सर होता है कि सहजी का शरीर तो वहां पर है पर उसका चित्त कहीं और डोल रहा है वायब्रेशन वहां से रहें हैं। तो सदा चित्त के मामले में अलर्ट रहे वर्ना गलत निष्कर्ष निकलेगा सही तथ्य नहीं मिलेगा। चित्त एक सेकेण्ड के दस हजारवें भाग से भी तीव्र गति से चलता है पता ही नहीं चलता कि कहाँ भाग गया। इसीलिए सदा चित्त का पीछा करे उसको पकड़-पकड़ कर उस स्थान पर वापस लायें।"
  10. " साकार पूजा निराकार पूजा में हमारी स्थिति अलग- अलग होती है। सा+कार्य निर +कार्य, "सा" जो स्वर है वह मूलाधार से प्रगट होता है यानि "श्री गणेश "का प्रतिनिधित्व करता है, और "श्री गणेश" को "शरीर"(आकार) का वरदान मिला है , यानि "श्री गणेश" बन कर "माँ" की पूजा करना। यानि शारीरिक स्थूल अंगो के द्वारा। और "नि" सहस्त्रार का स्वर है जो "आदि शक्ति" का प्रतिनिधित्व करता है, जो बिना रूप, रंग आकार की है, यानि चित्त से "श्री माँ" की उपासना करना। यानि बिना शरीर का इस्तेमाल किये।"
------------------------------नारायण

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