Thursday, October 12, 2017

"Impulses"--405--"अहंम-ग्रस्तता"

"अहंम-ग्रस्तता"

ज्यादार सहजी अक्सर ये कहते या सुनते पाए जाते हैं कि,:- 'फलां फलां सहजी में अपने ज्ञान का बहुत अहंकार है'।वो तो किसी की कुछ सुनता ही नहीं है।''अमुक सहजी तो संस्था में उच्च पद पर आसीन है और इसी पद के अहम् के कारण सभी पर शासन करना चाहता है।' 'अरे वो सहजी तो बहुत पैसे वाला है, इसीलिए सबके सामने अपनी श्रेष्ठता सिध्द करता रहता है।इसी लिए सभी कॉर्डिनेटर, व् ट्रस्टी उसकी बात मानते हैं।' 'उसे तो अपने व्यक्तित्व का बहुत घमंड है बस हर समय वो उसी का प्रदर्शन कर करके लोगों पर अपना प्रभाव जमाता रहता/रहती है।'

उपरोक्त के अतिरिक्त और भी बहुत सी किसी किसी के प्रकार के अहंकार की चर्चा सहाजियों के बीच निरंतर चलती रहती है। जो एक दो अपवादों को छोड़कर वास्तव में कहीं कहीं सत्य भी होती है। अब प्रश्न ये उठता है कि आखिर किसी के भी अंदर अहंकार अपना प्रभाव भला कैसे जमा लेता है जबकि सभी सहजी प्रतिदिन "श्री चरणों" में ही अपना सर नवाते हैं।

फिर भी ये नामुराद 'दम्भ' हममे से कुछ लोगों के भीतर अपनी जड़ें क्यों जमा लेता है, और अंततः हमारी चेतना पर पूर्णतया शासन कर हमें पतन की ओर तेजी से धकेल देता है। ये हमारे अन्तःकरण में कैसे धमकता है, निरंतर ध्यान का अभ्यास करने, नए लोगों को आत्मसाक्षात देने, नए व् पुराने सहाजियों की ध्यान में मदद करने के वाबजूद भी ये हमें अपने कंट्रोल में लेकर हमारे वास्तविक उत्थान से हमें दूर कर देता है।

तो आइये जरा चलते हैं ध्यानस्थ अवस्था में एक अन्तर्वलोकन व् चिंतन की ओर ताकि मानवीय चेतना में इसके प्रभावी होने के मूल कारणों को जान व् इसको अपनी चेतना पर हावी होने से रोक सकें।

मेरी चेतना के मुताबिक 'अहंभाव' के परिणाम स्वरूप 'अहंकार' मुख्यतः दो अवस्थाओं में प्रगट होता है। अहंकार का प्रादुर्भाव हमारे मन में सर्वप्रथम सांसारिक जीवन में परिलक्षित होता है जो 'पूर्व-प्रारब्ध' के सुकर्मों व् पुण्यकर्मों के परिणाम स्वरूप प्राप्त हुए उच्च कुल, सुन्दर रंग-रूप, मोहक व्यक्तित्व, आकर्षक देहयष्टि, प्रचुर सुख-साधनों व् कुछ गुणों के संज्ञान में होने के कारण होता है।

या,वर्तमान जीवन की तीव्र इच्छा, आकांशा, महत्वकांशा की पूर्ति व् आवश्यक सुख-साधनों के आभावो की असहनीय पीड़ा से उबरने के लिए किये गए अथक श्रम के परिणाम स्वरूप प्राप्त होने वाली चंद सांसारिक उपलब्धियों का एहसास हमारे मन में होते रहने के कारण भी इसका आगमन होता है। और दूसरी स्थित में अहंकार हममे से कुछ सहज-अभ्यासियों के आध्यात्मिक-जीवन में भी समय समय पर अपनी उपस्थित दर्ज करता रहता है।

"श्री माँ" के द्वारा हमारे यंत्र के माध्यम से 'ध्यान' के 'विकास व् प्रसार' के लिए कई प्रकार के व्यक्तिगत व् सामूहिक कार्य समय समय पर कराये जाते रहते है जिनके कारण बहुत से नए लोग, नए व् पुराने सहजी हमारे संपर्क में आते रहते है। वो अक्सर हमारे द्वारा किये गए 'ध्यान-उन्नति' से सम्बंधित समस्त कार्यो की खुले दिल से प्रशंसा करते रहते हैं और हमारे प्रति हृदए से कृतज्ञता महसूस करते हुए अनेकों रूपों में बहुत सम्मान भी प्रदान करते रहते है।जो कहीं कहीं हमारे अन्तर्मन को अच्छा लगता है।

क्योंकि हममे से ज्यादातर सहजी "श्री माँ" के "श्री चरणों" से आशीर्वादित होने से पूर्व एक निकृष्ट, गुमनाम, सम्मान-रहित, उद्देश्य विहीन, व् निर्थक पूर्व-संस्कारो से जकड़े हुए जीवन जी रहे थे जिसमें कोई 'जीवन' व् उत्साह शेष था वरन अनेको प्रकार के नरकों के भोगने जैसा अनुभव होता रहता था।

यहाँ तक मेरे स्वम् के व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर, बहुत से लोग ऐसे भी थे, जो "माँ" के द्वारा जागृति देने से पूर्व अपने मृतसम जीवन से अत्यंत दुखी होकर अपनी इह-लीला तक समाप्त कर लेना चाहते थे। वही आज "परमेश्वरी" की कृपा से वर्तमान सहज-जीवन में तरक्की करके अनेको सहाजियों व् साधारण लोगों की प्रशंसा प्राप्त कर रहे हैं।

वास्तव में होता ये है कि जब इस प्रकार के निम्न-मनोदशा से आच्छादित भूतकाल से आये लोग जब 'प्रत्यक्ष-सहज-जीवन' में कुछ उपलब्धि हांसिल कर लेते हैं। समय समय पर कुछ सहजी व् लोग उनके संपर्क में जुड़ते रहते हैं और उनसे सहज-कार्यों में गाइड-लाइन व् सहायता प्राप्त करने लगते हैं।

जिसके कारण उन सभी की सहस्त्रार पर आयी कुण्डलिनियों से उत्सर्जित होती हुई ऊर्जा सामूहिक हो जाती है जो एक 'उच्च आवृति' के ऊर्जा क्षेत्र को विकसित कर देती है जो बढ़ती हुई वायब्रेशन के रूप में आभासित होती है। यही बढ़ी हुई ऊर्जा उन 'सहज-माध्यमो' के यंत्र में भ्रमण करती हुई उनके यंत्र में विभिन्न स्थानों व् केंद्रों में छुपे हुए समस्त विकारों को उनके मन की सतह पर लाने लगती है और उनका चित्त उनके अपने मन की तरफ आकर्षित होने लगता है।

जिसके कारण उनकी चेतना मन के विकारों के चंगुल में फंस जाती है।और उनकी 'आत्मा' की आवाज उन्हें अपनी चेतना में सुनाई देनी बंद हो जाती है। और आत्मा की आवाज सुन पाने के कारण उनका संपर्क अन्तर्निहित " श्री माँ" से बारम्बार टूटता रहता है।

ये विकार अनेको प्रकार की असंतुष्टि, अतृप्ति, दमित इच्छाओं के रूप में उसके यंत्र में विद्यमान रहते हैं। जिसकी वजह से उनकी पूर्ती हेतु वो 'प्रकृति' विरोधी कार्यों की तरफ झुक जाते हैं और अपने संपर्क में रहने वाले सहाजियों व् लोगों पर शासन करने की ओर प्रवुत होने लगते हैं और उन लोगों को अक्सर उल्टा-सीधा बोलना भी प्रारम्भ कर देते है। इसका उदहारण हमारे समाज में सास के द्वारा नई बहु को सताने व् शिक्षा संस्थानों में रैगिंग के रूप में मौजूद है। 

ऐसे सहजी अन्य सहाजियों व् लोगों की नजरों में जिस स्थान पर भी होते हैं, उस स्थान या पद को खोने से डरने लगते हैं।क्योंकि अब उन्हें अपना सहज से पूर्व का काल स्मरण रहने लगता है। उस निम्न जीवन की पूर्व-स्मर्तियाँ उनको ताजा रहने लगती हैं जिसके भय के चलते वो अपनी उसी स्थिति को बनाये रखने के लिए कूटनीतिक जोड़-तोड़ में लग जाते हैं।

इन अनैसर्गिक उपक्रमों के परिणाम स्वरुप एक हठ धर्मी, आत्म-मुग्ध तानाशाह उनके अस्तित्व में जागृत हो जाता है जो केवल और केवल अपनी प्रशंसा व् अनुशंसा का ही भूखा होता है। यहाँ तक कि वो सहज व् ध्यान के कार्यों को भी अपने अस्तित्व व् श्रेष्ठता के प्रदर्शन का माध्यम बना अपना नाम कमाने व् अपना महत्व दूसरों के सामने जताने के लिए प्रयत्नशील रहता है।

सभी के बीच अपना नाम बनाये रखने व् लोगों की तारीफ बटोरने से उसका पूर्व-पीड़ित मन अत्यन्त संतुष्टि व् प्रसन्नता महसूस करता है और उसे नित नए तरीके उसका नाम फैलाने व् प्रशंसा पाने के सुझाता रहता है। यदि उसका कोई वास्तविक हितैषी या नजदीकी उसे इस 'मिथ्याचरण' से बचाने के लिए कोई सलाह भी देना चाहे या हृदए से समझाना भी चाहे तो ऐसे सहजी उसका भी बुरा मान जाते हैं और उसे अपने उद्देश्य की प्राप्ति में बाधा समझने लगते हैं।

इस कारण से वो समय समय पर किसी किसी कारण से अपनी सही-गलत बाते अपने शुभचिंतकों की स्थिति का आंकलन किये बगैर उन पर लादते रहते है। और उनके द्वारा पूरा कर पाने के कारण उन्हें सभी के सामने गलत ठहराना शुरू कर देते हैं यहाँ तक की उन्हें अपमानित करने से भी नहीं चूकते।

ये सब देखकर उसको वास्तविक रूप से प्रेम करने वाले लोग धीरे धीरे उससे दूर होने लगते हैं और अंततः उनका संपर्क टूट ही जाता है। किन्तु ऐसे अहम् में डूबे सहजी को ये एहसास तक नहीं हो पाता कि वो क्या खो रहा है। वो तो बस अपनी आत्म-मुग्धता से उत्पन्न आत्म-प्रशंसा के सीमित दायरे में कैद हो कर अपनी चेतना को पतन की ओर निरंतर धकेलता चला जाता है।

"श्री माँ" के द्वारा प्रयोग किये जा रहे अपने यंत्र के कारण उसके चारों ओर नए नए लोगों व् सहजियों का दायरा बढ़ता जाता है, जो उसके झूठे 'दम्भ-भाव' को और भी ज्यादा बढ़ा देता है। और दुर्भाग्य से, उस बढ़ते हुए लोगो के दायरे को वो अपना आत्मिक-उत्थान समझने की भूल कर बैठता है और अपनी चेतना व् विवेकशीलता का पूर्णतया ह्रास कर बैठता है।

बढ़ती हुई भीड़ तो टेलीविजन पर अपनी 'तथाकथित आध्यात्मिकता' की 'प्रोडक्ट' बेचने वाले बहुत से लोगों के चारों ओर भी होती है।किन्तु अपने चारों ओर भीड़ का होना आत्म-प्रगति का सूचक नहीं होता। यहाँ तक कि भ्रान्ति में जकड कर वो अपनी स्वम् की नजरों में अपना एक स्वम् का 'स्तर' व् 'पद' स्वम् ही सुनिश्चित कर लेता है और समय समय पर अन्य सहाजियों के बीच उस अवस्था का प्रचार भी करता रहता है।

अपने आधे-अधूरे अनुभव विहीन ज्ञान के द्वारा अन्य सहाजियों के वास्तविक अनुभवों को भी तिरस्कृत करता रहता है और सभी के बीच अपनी श्रेष्ठता का डंका बजाता रहता है। उसकी स्थिति ये हो जाती है कि वो अपने संपर्क में रहने वाले सहाजियों से केवल और केवल अपने ही कार्यों व् बातों की प्रशंसा ही सुनना चाहता है और सदा तर्क, वितर्क व् कुतर्क के द्वारा केवल और केवल अपनी ही बातों को उन सभी के ऊपर रखकर उन सभी को कंट्रोल कर प्रसन्नता व् सुख की अनुभूति करता है।

वास्तव में ऐसे 'अहंभाव' से ग्रस्त सहजी की दशा अत्यन्त शोचनीय होती है क्योंकि इस घमंड के कुचक्र में फंस कर वो अपने इस मूल्यवान समय व् जीवन को निरंतर व्यर्थ कर रहा होता है। ऐसे अहंकार में डूबे हुए सहाजियों को देखकर हृदए में बड़ी पीड़ा महसूस होती है और उनकी आंतरिक दुर्दशा को देख कर बहुत दया भी आती है।

आखिर वो भी "श्री माँ" के विराट शरीर में रहने वाला हममे से एक ही है, अतः ऐसी मनोदशा में उलझे हुए सहजी के आत्मिक कल्याण के लिए "श्री माँ" से प्रार्थना करते हुए उसके मध्य हृदए में उसके सहस्त्रार के जरिये अपने मध्य हृदए व् सहस्त्रार से कम से कम 5 मिनट तक प्रतिदिन ऊर्जा प्रेषित करने के आवश्यकता है।

ताकि वो इस निर्थक अहंकार से मुक्त होकर सरल हृदए से "श्री माँ" के "श्री चरणों" में पूर्णतया समर्पित हो जाय व् अपनी प्रकाशित आत्मा के माध्यम से अपने चिर-प्रतीक्षित मोक्ष का अधिकारी बने और अपने इस अद्वीतिय 'वरदान' का लाभ उठाते हुए अपने मानवीय जीवन को सार्थक करें।
यदि हम जाने अनजाने में 'अहंकार-पाश' से सदा के लिए बचे रहना चाहते हैं तो हमें अपनी चेतना में इस सत्य को स्थिरता के साथ स्थापित करना होगा।

'कि हम तो निमित्त मात्र हैं,"श्री माँ" हमारे पूर्व-जीवनो की साधना के आधार पर इस जीवन में "अपने" "श्री चरणों" में बिठाकर हमारे यंत्र से कभी भी कोइ भी कार्य हमारे अन्तर्मन व् चेतना में प्रेरणा देकर ले 'सकतीं' हैं।' हम तो कुछ भी नहीं बस एक खोखले पाइप हैं, जो भी "वो" इस पाइप के जरिये "अपने" बच्चों तक पहुँचाना चाहती हैं डालती रहती हैं, इस ज्ञान का श्रेय हम स्वम् कभी भी लेने के अधिकारी ही नहीं हैं।

हमें तो केवल बड़ी श्रद्धा, भक्ति, शक्ति व् समर्पित भावना से अपनी 'आत्मा' के माध्यम से हृदए में प्रगट होने वाली प्रेरणाओं पर चलकर "श्री माँ" के बताये मार्ग का अनुसरण करते हुए अपने यंत्र के माध्यम से कराए जाने वाले चेतना-उत्थान के समस्त कार्यों से पूर्ण निर्लिप्तता व् साक्षी अवस्था बनाये रखते हुए निरंतर कार्यशील रहना है। केवल तभी ही हमारा कल्याण हो पायेगा और हम अहंकार रूपी शैतान की गतिविधियों से बचे रहेंगे।"

-----------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"


1 comment:

  1. जै श्री माता जी ...सही बात है ..

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