Wednesday, May 2, 2018

"Impulses"--442--"निन्दाचरण"-'एक मनोरोग"


"निन्दाचरण"-'एक मनोरोग"

"ये अक्सर देखा गया है कि बहुत से सहजी अन्य सहजियों के पहनावे, रहन-सहन, बातचीत, चाल-ढाल, शौक, फैशन-प्रभाव तौर-तरीकों को लेकर उनकी आलोचना बुराई करते रहते हैं।

मेरी चेतना के मुताबिक कौन सहजी क्या पहनेगा, कैसे रहेगा, अपने को किस प्रकार रखेगा, इन सब की चिंता करने की शायद किसी को भी कोई आवश्यकता ही नही है।

वास्तव में होता ये है कि "श्री माँ" हमारे अंतस की समस्त दबी, छुपी इच्छाओं को पूरा करने का हमें अवसर प्रदान करती हैं जिनकी पूर्ण होने की घुटन से सहजी, सहज में आने से पूर्व अपने को भीतर ही भीतर पीड़ित रखता था।

कोई फैशन-परस्त हो जाता है, कोई स्टाइल आइकॉन बनने का प्रयास करता है, कोई समाज सेवक बनकर प्रसन्न होना चाहता है, कोई राजनीति में आकर राज करना चाहता है, कोई सेलेब्रिटी बन कर प्रसिद्ध होना चाहता है।

कोई सबको अपनी इच्छा से चलाना चाहता है, कोई अच्छा गायक बनना चाहता है तो कोई डांस में अपनी किस्मत आजमाता है, तो कोई उच्च कोटि का आर्टिस्ट बनना चाहता है, तो कोई किसी पद पर आसीन होना चाहता है।

यानि "परमेश्वरी" सभी सहजियों को कभी कभी, किसी किसी रूप में उनकी दमित छुपी हुई इच्छाओं को पूरा करने का अवसर उसे प्रदान करती हैं ताकि वह उन दफन इच्छाओं को पूरा करने की चाहत से इसी जीवन में मुक्त हो सके। और किसी किसी सहजी के भीतर छुपे हुए अनेको प्रकार के मनोविकारों को भी "श्री मां" बाहर निकालती हैं।

जिसके फलस्वरूप कोई ईर्ष्यालु हो जाता है, कोई अधिपत्य जमाता है, कोई अत्यधिक चिल्लाने लगता है, कोई लालची हो जाता है, कोई धूर्त हो जाता है, कोई चोरी करने लगता है, कोई झूठ बोलना प्रारम्भ कर देता है, कोई अहंकार से भर जाता है।

ये ऐसा ही होता है कि जैसे शरीर के किसी हिस्से में काफी अर्से से फोड़ा बना हुआ है जिसका मुँह भीतर की ओर है तो उसके कारण सदा पीड़ा बनी रहती है।

लेकिन एक दिन हमारे शरीर की शक्ति उस फोड़े को पका डालती है तो धीरे धीरे उस फोड़े से पस बहना प्रारम्भ हो जाता है जो कुछ दिन तक चलता है। यह रिसन शरीर के बाहर शरीर पर दिखाई देने लगती है।

देखने में पस बहुत घिनौना लगता है किंतु इसी पस के रूप में भीतर के विकार बाहर आने प्रारम्भ हो जाते हैं और अंततः विकार समाप्त हो जाता है और वो फोड़ा सूख ही जाता है।

यह विकार निकलने की प्रक्रिया अलग अलग साधक/साधिकाओं में अलग अलग रूपों में प्रगट होती है। यानि जो भी हमारे भीतर होगा वो सब निश्चित रूप से बाहर जायेगा। इस प्रक्रिया में बहुत सी अच्छी अच्छी चीजें भी बाहर आती है।जिनका प्रभाव व्यक्तित्व में परिलक्षित होता है।

जब हमारी कुण्डलिनी माता शेष नाग बनकर हमारी जड़ता रूपी शिला से हमारे भव सागर का मंथन करती हैं तो अपनी अपनी स्थिति के अनुसार विष अमृत दोनो ही निकलते हैं। किसी में विष ज्यादा होता है तो किसी में अमृत अधिक होता है। किसी में बराबर होता है।

और किसी किसी विलक्षण साधक/साधिका में विष होता ही नहीं,केवल अमृत ही होता है। यानि मात्रा घट बढ़ सकती है, किन्तु प्रक्रिया हरेक के साथ घटित होती है।

किसी किसी का ये घटनाक्रम प्रत्यक्ष में परिलक्षित होता है और किसी किसी का दिखाई नही देता। अतः जब किसी का विष निकल रहा हो तो उससे निर्मल प्रेम मई सहानुभूति होनी चाहिए कि आक्रोश नाराजगी।

ऐसे में उस साधक/साधिका के मध्य हृदय में अपने चित्त के माध्यम से प्रति ध्यान के दौर में 5 मिनट तक प्रतिदिन ऊर्जा प्रवाहित करनी चाहिए ताकि उसका विष उसकी चेतना पर पूर्ण रूप से हावी हो जाए।भले ही उससे आप कभी भी बातचीत करते हों।

और जब किसी के भीतर से अमृत रहा हो तो अपने सहस्त्रार के जरिये अपने मध्य हृदय में ग्रहण करते जाना चाहिए।चाहे उससे आप प्रतिदिन बात ही क्यों करते हों।

सभी "शरणागत" हैं ये सबको, सदा स्मरण रखना चाहिए।कोशिश यही करनी चाहिए कि किसी भी "शरणागत" के प्रति हमारे भीतर कोई घृणा, आक्रोश, ईर्ष्या हो वरना हम "रुद्रों" की 'हिटलिस्ट' शामिल हो जाएंगे।

क्योंकि जिस किसी के भीतर ये प्रक्रिया चल रही है उसकी देख रेख स्वम् "श्री महा माया" कर रही हैं क्योंकि ये "उनका" ही कार्य है।हमको समझना होगा।

हाँ वो बात और है कि हम किसी को प्रेम अपने पन से कुछ एहसास दिलाना चाहें तो अच्छा है।वो हमारा कर्तव्य भी है और आवश्यकता भी।
क्योंकि ये सहजयोग के साथ साथ सहयोग भी है, ये बात हमें कभी नही भूलनी चाहिए।

एहसास कराने के लिए सबसे सुंदर मार्ग मौन का है, यदि आप किसी के प्रति केयरिंग हैं तो उससे पहले प्रेम से बातचीत करें या बताएं।यदि फिर भी वो समझ पाए तो बस शांत हो जाये। मौन हो जाएं।

जो भी वो करना चाहे करने दें ताकि जब वो स्वम् से परेशान हो जाएगा तो अंततः उसे आपकी बातें अवश्य याद आएगी और धीरे धीरे वो उन बातों को चुपचाप अपनाना शुरू कर देगा।

जो मरीज इलाज कराते हुए अत्यधिक चिल्लाता है या अपनी अपनी चलता है तो डॉक्टर उसको बताना बन्द कर देता है। डॉक्टर की बात मानने के कारण उसका रोग बढ़ता ही जाता है जिसके कारण पीड़ा भी बढ़ती जाती है।

और जब पीड़ा हद से ज्यादा हो जाती है तो उसे क्षमा मांग कर डॉक्टर की बात माननी ही पड़ती है और धीरे धीरे उसका रोग ठीक होने लगता है।

हममें से अनेको लोगों को अनेको प्रकार के मानसिक रोग पहले से ही लगे होते हैं, किन्तु ध्यान की प्रक्रिया (आपरेशन) के द्वारा हमारी "डॉक्टर" हमें फिर से ठीक कर देती हैं।"

--------------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"


1 comment:

  1. Uncle apne kitne sadharan or sunder shabdo mein bohot badi hakikat bayan Kar di thankyou uncle once again😊😊💐😊🙏Jai shree mata ji🙏💐

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