Monday, May 7, 2018

"Impulses"--443--"ध्यान-प्रगति-मूल्यांकन"


"ध्यान-प्रगति-मूल्यांकन"

"हममें से अनेको सहजियों को यदा कदा ये विचार आता है कि, कई साल सहज योग से जुड़े हो गए है, 'क्या हम सहज में ठीक प्रकार से उन्नत हो पा रहे है ?

क्या हमारी चेतना विकास की उन ऊंचाइयों को स्पर्श कर पा रही है जिस पर पहुंच कर हमारे अन्तःकरण में स्थाई शांति, संतोष, आनंद निर्वाजय प्रेम उपस्थित रहता है ?

मेरी चेतना समझ के अनुसार इन तथ्यों को जानने के लिए ध्यानस्थ अवस्था में हमें स्वयं से कुछ प्रश्न करने होंगे और उनके उत्तर भी स्वम् को देने होंगे।

तभी हम अपनी ध्यान प्रगति के बारे में ठीक प्रकार से जान पाएंगे।अतः यदि हम चाहें तो हम अपनी चेतना को निम्न प्रश्नों से गुजार सकते हैं:-

1.क्या हम अभी भी किन्ही लोगों से कुछ ईर्ष्या या प्रतिस्पर्धा का भाव रखते हैं ?

2.क्या हम अभी भी किसी को नीचा दिखाने के लिए भीतर ही भीतर आतुर हैं ?

3.क्या हम अक्सर अन्य लोगों के समक्ष अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए लालायित रहते हैं ?

4.क्या हम अधिकतर अन्य लोगों की छोटी छोटी कमियों को ही देखने के आदि हैं ?

5.क्या हम उन लोगों की कमियों की चर्चा उन लोगों की पीठ पीछे अन्य लोगों के बीच अक्सर करते रहते है ?

6.क्या हम सदा अपने भीतर केवल और केवल अपनी ही श्रेष्ठता देखते रहते हैं ?

7.क्या हम ज्यादातर अपनी ही अंतर्निहित तुच्छ भावनाओं कुंठाओं का प्रदर्शन अपने वक्तव्यों अपनी बातों में अक्सर करते रहते हैं ?

8.क्या हम बारम्बार अन्य लोगों पर जबरदस्ती अपनी बेतुकी सोचे लादने का असफल प्रयास करते रहते हैं ?

9.क्या हम "श्री माता जी" के समस्त बच्चो के प्रति किन्ही सतही कारणों से घृणा, ईर्ष्या, भेद-भाव, ऊँचनीच, अमीर-गरीब आदि रखते हैं ?

10.क्या हम अन्य सहजियों के सांसारिक जीवन के क्रिया-कलापो, तौर-तरीकों, व्यक्तिगत जीवन, उनके मित्रों रिश्तेदारों, उनकी आय उनके मेल-मिलापों पर नजर रखते है ?

11.क्या हम अन्य सहजियों से कभी प्रोटोकॉल के नाम पर, तो कभी सहज संस्कार के नाम पर, तो कभी सहज तकनीक के नाम पर, तो कभी सहज आचरण के नाम पर, तो कभी सहज योग के नाम पर, तो कभी "श्री माता जी" के लेक्चर्स के नाम पर वाद-विवाद करने के आदि तो नहीं हैं ?

यदि उपरोक्त में से एक दो या कुछ या सभी मन की बातों में हमारा चित्त अक्सर उलझता रहता है। तो निश्चित तौर पर अभी हमारी वास्तविक 'आत्मिक-उत्थान-यात्रा' का 'श्री गणेश' ही नहीं हुआ है।

आंतरिक उन्नति के स्तर पर अभी तो हम बस वहीं ही खड़े हैं जहां से चले थे।

फिर भले ही हमने हजारों लोगों को आत्मसाक्षात्कार ही क्यों दे दिया हो।

भले ही हमें सहज योग को अपनाए हुए 10-20 साल ही क्यों हो गए हों।

भले ही हम प्रतिदिन ध्यान में कई घंटे की बैठक क्यों लगाते हों।

भले ही हम सहज सामूहिकता के समस्त प्रकार के कार्यक्रमों में सदा हिस्सा ही क्यों लेते हों।

भले ही हमें हमारे हाथों सहस्त्रार में वायब्रेशन ही क्यों आते हों।

भले ही हम बहुत सुंदर भाषण अनेको सहज सभाओं में क्यों देते हों।

भले ही हमारे आध्यात्मिक लेखों को सहजियों के द्वारा सराहना ही क्यों मिलती हो।

भले ही हमें "श्री माता जी" के समस्त लेक्चर्स कंठस्थ ही क्यों हों।

भले ही हम अत्यंत सुंदर भजन मंत्रो का उच्चारण ही क्यों करते हों।

भले ही हमें सहज योग की समस्त पूजा हवन करने में महारथ ही क्यों हांसिल हो।

भले ही हमने सहजयोग पर अनेको पुस्तकें ही क्यों लिख डाली हों।

भले ही हम अत्यंत ऊंचे दर्जे के सहजी माने जातें हों।

यदि अन्तरवलोकन के दौरान हम पाते हैं कि उपरोक्त प्रश्नों के अधिकतर उत्तर 'हाँ' में हैं तो हमारी चेतना को अत्यंत परिष्कार की आवश्यकता है।
इसके लिए केवल और केवल एक ही कार्य करना है और वो है "श्री चरणों" में निशर्त समर्पण के साथ 'आत्म चिंतन'

और इसके विपरीत यदि हम पाते हैं कि इस प्रश्नावली के उत्तर अधिकतर या सारे 'ना' में हैं तो हमें "श्री माँ" के प्रति हृदय से अनुग्रहित होते हुए कृतज्ञता से नतमस्तक होना चाहिए।"

------------------------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"


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