Saturday, November 3, 2018

"Impulses"--468--"मानवीय चेतना का एकादश आयाम"


"मानवीय चेतना का एकादश आयाम
(Eleventh Dimension)

जब कोई साधक/साधिका निरंतर ध्यान, चिंतन, मनन, आत्मविश्लेषण, आत्मावलोकन, आत्म मंथन, आत्म निरीक्षण के सतत अभ्यास के द्वारा अपने हृदय को पूर्णतया मलिनता मुक्त कर लेते हैं तो उनका हृदय एक साफ सुथरे दर्पण जैसा हो जाता है।

तब उनके मध्य हृदय में 'माँ जगदम्बा' जागृत हो जाती हैं जो उनके यंत्र पर उपस्थित समस्त देवी-देवताओं, गणों, ग्रहों, सद गुरूओं की शक्तियों को जागृत कर देती हैं।

ऐसी अवस्था में ऐसे उच्चकोटि के साधक/साधिका का चित्त जिस चीज/स्थान/ व्यक्ति पर जाता है तो उसी की सूचनाएं उनके हृदय में स्वतः ही प्रतिबिंबित होने लगती हैं।

साथ ही उन्हें एक और शक्ति प्राप्त होती है जो उसके अपने आंतरिक अस्तित्व को सूक्ष्तम 'अणु स्वरूप' में परिवर्तित कर सकती है।

जो चित्त के द्वारा इस ब्रहम्माण्ड में स्थित किसी भी स्थान पर उपस्थित जागरूक मानव/भोले भाले मानव के सहस्त्रार के द्वारा उसके हृदय में प्रवेश करके उसके आंतरिक कष्ट/दुख को दूर कर आनंदित कर देने की क्षमता रखती है।

यही नहीं ऐसे साधकों का यह 'आण्विक' 'अदृश्य स्वरूप' इस ब्रहम्माण्ड के किसी भी स्थान पर मन की गति से यात्रा करके तुरंत पहुंच जाता है।

और उस स्थान पर उपलब्ध "माँ आदि शक्ति" की 'शक्तियों' के साथ तादात्म्य स्थापित कर उस स्थान को लाभान्वित करने की भी शक्ति रखता है।

यह स्वरूप कभी कभी सफेद गोलों (Orbs) के रूप में किसी भी कैमरे से फ्लैश गन के साथ खींचे गए फोटो अथवा इंफ्रा रैड लाइट में भी परिलक्षित हो जाता है।

किन्तु यह 'आण्विक स्वरूप' केवल और केवल चेतना की कार्यों को गति देने/मानवता की रक्षा करने/किसी सत्य के खोजी के आध्यात्मिक उत्थान में आने वाली बाधाओं को दूर करने/किसी भोले भाले इंसान की मदद करने।

मानवता/'प्रकृति'/"परमात्मा" के विरोध में किये जाने वाले कार्यों/ उन कार्यों को अंजाम देने वाले लोगों/ उन लोगों के मन मस्तिष्क को जकड़ने वाली नकारात्मक शक्तियों को नगण्य करने के लिए ही कार्यान्वित होता है।

यह किसी भी प्रकार के भौतिक साधनों की उपलब्धि/ किसी की मानसिक भावनाओं की तुष्टि/ किसी भी प्रकार के सांसारिक आक्रोश को शांत करने/किसी भी मानव से बदला लेने के लिए यह कभी भी कार्य नहीं करता है।

अतः इस शक्ति का दुरुपयोग कभी भी किया ही नहीं जा सकता क्योंकि यह शक्ति "माँ आदि शक्ति" के द्वारा ही उपलब्ध कराई जाती है।

इस स्तर के साधक/साधिका के हृदय में स्वत् ही उस सत्य के वास्तविक खोजी/ भोले भाले व्यक्ति का नाम प्रस्फुटित हो जाता है जिसको वास्तव में आंतरिक मदद की आवश्यकता है।

तब उसका चित्त स्वतः ही कार्यान्वित हो जाता है और उसका यह 'आण्विक स्वरूप' ततक्षण उस जरूरत मन्द सरल हृदय के मानव के पास पहुंच कर उसके सूक्ष्म यंत्र/हृदय में मदद कर रहा होता है।

जब यह घटना घटित हो रही होती है तब उस पीड़ित व्यक्ति के हृदय में शांति आनंद की स्थापना हो रही होती है और स्वतः ही उसके हृदय में उसका नाम भी प्रगट होता है, यदि वह उस उच्च कोटि के साधक/साधिका को बाह्य रूप से भी जानता होता है।

अन्यथा उसके हृदय में "श्री माता जी"/उसके अपने देवी-देवता का नाम स्वत् ही स्मृत हो जाएगा जिससे उसे लगेगा कि "श्री माँ"/उसके "इष्ट" ने उसकी सहायता की है।

और यदि पीड़ित व्यक्ति 'आत्मसाक्षात्कारी' है तो उसका सम्पूर्ण यंत्र ऐसे ऊंचे दर्जे के साधक/साधिका के स्मरण मात्र से ऊर्जा से झंकृत हो जाएगा।

क्योंकि स्मरण करते ही उस उच्च कोटि के साधक/साधिका का 'आण्विक रूप' प्रकाश से भी कई गुना तीव्र गति से उसके सहस्त्रार के द्वारा उसके मध्य हृदय में प्रवेश कर उसके हृदय चक्र को अपनी ऊर्जा से आडोलित कर देगा।

जिससे उसके सूक्ष्म यंत्र में 'दिव्य ऊर्जा' का प्रवाह बढ़ जाएगा और उसको अपने भीतर आनंद, शांति शक्ति महसूस होगी। इसके विपरीत यदि कोई नकारात्मक प्रवृति का मानव ऐसे उच्च दर्जे के साधक/साधिका को याद करे।

अथवा ऐसे उच्च अवस्था के साधक/साधिका का चित्त उस ऋणात्मक मनोभावों से युक्त इंसान पर जाए। 

दोनो ही दशाओं में भी उसका 'आण्विक स्वरूप' स्वतः ही सक्रिय होकर उस नकारात्मक व्यक्ति के आगन्या पर कार्य प्रारम्भ कर देगा।

जिसके परिणाम स्वरूप उस नकारात्मक व्यक्ति के हृदय में पहले घबराहट होगी और फिर उसके हृदय में भय का संचार होगा। 

और इसी भय घबराहट में वह और भी ज्यादा उल्टे सीधे कार्य करना प्रारम्भ कर देगा और जल्दी ही सबके सामने एक्सपोज हो जाएगा।

तो इस प्रकार 'ग्यारहवे आयाम' की स्थिति को प्राप्त साधक/साधिकाओं का 'सूक्ष्तम आण्विक स्वरूप' हर प्रकार के मानवो पर कार्य करता है उनकी प्रवृति के अनुरूप ही उनको परिणाम देता है।

यह 'सूक्ष्मतर आण्विक स्वरूप' उन उच्च कोटि के साधक/साधिकाओं को उनके स्थूल शरीर की मृत्यु के उपरांत भी प्राप्त हो जाता है।

इस धरा पर अब तक अवतरित "ईश्वर" के अवतारों, सद गुरुओं, संतो, ऋषियों, तपस्वियों, साधकों/साधिकाओं के अनेको 'सूक्ष्मतम अस्तित्व' इस रचना की भलाई के लिए इसी 'आण्विक स्वरूप' में लगातार विचरण कर रहे हैं। जो सच्चे मानवों/साधकों/साधिकाओं की किसी किसी रूप में मदद कर रहे होते हैं।

जिन साधक/साधिकाओं के चित्त अपने सहस्त्रार पर निरंतर बने रहते हैं उनके सहस्त्रारों पर ये उच्च दर्जे के 'अस्तित्व' 'सूक्ष्मतम आण्विक' रूप में स्वतः ही लगातार आते जाते रहते हैं।

जिनके स्पर्श से खुले हुए ब्रह्मरंध्रों की संख्या के अनुसार उनके सहसत्रार विभिन्न प्रकार की प्रतिक्रिया करते हुए अनेको प्रकार की संवेदनाओं को प्रगट कर लाभान्वित हो रहे होते हैं।

और इन्ही संवेदनाओं के परिणाम स्वरूप सहस्त्रार पर उत्पन्न होने वाली ऊर्जा को वे जागरूक साधक/साधिका अपने मध्य हृदय में ग्रहण कर रहे होते हैं।

इस ऊर्जा में उन उच्च कोटि के 'सूक्ष्मतम आण्विक' अस्तित्वों का आत्म ज्ञान भी सम्मिलित होता है जिसके परिणाम स्वरूप हृदय में ग्रहण करने वाले साधक/साधिकाओं के हृदय में नवीन प्रेरणाएं नवीन विचारों के रूप में प्रगट होने लगती हैं।

और उनका मध्य हृदय चक्र चलना प्रारम्भ हो जाता है जो बाकी के अन्य चक्रों को भी सक्रिय कर देता है और वो चक्र भी विभिन्न प्रकार की ऊर्जा का उत्पादन प्रारम्भ कर देते है।

इसके उपरांत समस्त चक्रों की यह मिश्रित ऊर्जा आत्मज्ञान के रूप में साधक/साधकों के सम्पूर्ण सूक्ष्म यंत्र में प्रवाहित होने लगती है और फिर सहस्त्रार से बाहर उत्सर्जित होती हुई सारे वातावरण को चैतन्यतित कर खुशनुमा बना देती है।

यानि कि सरल शब्दों में यदि कहा जाए तो 'एकादश आयाम' को प्राप्त हुए इस प्रकार के उच्च 'सूक्ष्मतम आण्विक अस्तित्व' किसी भी यंत्र के भीतर सहस्त्रार के माध्यम से प्रवेश करके उस यंत्र को हर प्रकार की राहत आनंद प्रदान कर सकते हैं।  

साथ ही "श्री माँ" के स्वप्नों को साकार करने में भी सक्षम होते हैं। इसके अतिरिक्त एक दूसरा नकारात्मक पहलू भी इस 'एकादश आयाम' का है वो है।  

कुछ साधारण मानव भौतिक जगत में किसी किसी प्रकार की अतृप्ति असंतुष्टि से सदा ग्रसित रहते हैं और रात दिन उन्ही सांसारिक चीजो के अभाव उनके मन में खलते रहते हैं।

जब ऐसे मनुष्य मृत्यु को प्राप्त होते हैं तो स्थूल शरीर छोड़ने के उपरांत उनकी 'निम्न स्तर' की चेतनाएं भी इस 'एकादश आयाम' में प्रवेश कर जाती है और उनके अस्तित्व भी 'सूक्ष्मतम आण्विक रूप' को धारण कर लेते हैं।

ऐसे सीमित चेतना से आच्छादित 'अस्तित्व' अपने ही जैसे जीवित मानवों को खोजते रहते हैं जो उनकी मनोदशा से मेल खाते हैं यानि सांसारिक रूप में किसी किसी कारण से अतृप्त असंतुष्ट रहते हैं।

ऐसी 'सूक्ष्तम अवस्था में रहने वाली 'निम्न चेतनाएं' उनके 'आगन्या' पर अपना अधिपत्य जमा कर उनके माध्यम से अपनी अतृप्त इच्छाओं की पूर्ति कराती रहती हैं।

जिसे 'भूत बाधा'/शैतान प्रभाव के रूप में भी जाना जाता है, इनके भी अनेको स्तर होते हैं।उनकी चर्चा विस्तृत रूप में किसी अन्य लेख में की जाएगी।

ऐसी 'सूक्ष्तम आण्विक चेतनाएं' ऐसे सहज साधक/साधिकाओं को भी प्रभावित कर लेती हैं जो 'अति महत्वाकांशी' होते है।

यानि जो अपने आगन्या का हर समय अत्याधिक प्रयोग करते रहते हैं, सहज योग को भी केवल और केवल अपने मन से ही समझते संचालित करते हैं।

या जिनके हृदयों में करुणा प्रेम भाव की नगण्यता रहती है,

या जो अपने सहस्त्रार पर कुछ मिनट तक भी टिक नहीं पाते,

अथवा उनको अपने सहस्त्रार पर कभी भी कुछ भी अनुभव नहीं होता हो,

या जिनके मध्य हृदय बिल्कुल ही बंद रहते हैं,

या जो अक्सर किसी किसी आशंका, हीन भावना अवसाद से ग्रसित रहते हैं।

चाहे ऐसे साधक/साधिकाएं कितना भी सहज का कार्य क्यों करते हों।चाहे वो कितनी भी पूजा, सैमिनार हवन आदि भी क्यों अटैंड करते हों।
चाहे बिना नागा सहज-सेंटर ही क्यों जाते रहते हों।

वे कभी कभी वो ऐसी असंतुष्टि अतृप्ति की मारी 'सूक्ष्तम अणु' रूपी अदृश्य चेतनाओं के चंगुल में फंस ही जाते हैं।

इस स्थिति को समझने के लिए हमें अपने आस पास रहने वाले कुछ सहज अभ्यासियों की जीवन शैली, रहन सहन तौर तरीकों का बारीकी के साथ अध्यन करना होगा।

यदि अपने नजदीक ही कुछ सहजियों पर गौर करेंगे तो पाएंगे कि कुछ सहजी जो पहले साधारण जीवन चर्या के साथ अपना जीवन व्यतीत करते थे वे कुछ ही समय में अचानक मॉडर्न हो गए।

या उनके व्यक्तित्व बाह्य रूप से पूर्णतया परिवर्तित हो गए। उनके तौर तरीके स्टाइल ही पूर्णतया बदल गए।

यदि वो सहजी स्त्री है तो वह सादगी शालीनता को त्यागकर अचानक से बेहद फैशन करने वाली हो जाएगी।

और यदि वह सहजी पुरुष है तो वह अपना रहन सहन, हाव भाव, पहनावा, लुक एकदम से बदल लेगा।

यदि किसी ने ऐसे स्त्री/पुरुषों को पहले देखा हुआ है तो 'सूक्ष्म आण्विक स्वरूपी' इन 'निम्न चेतनाओं' के सम्पर्क में आने के बाद ऐसे सहजी एकदम से पहचाने ही नहीं जाते।

और तो और कुछ सहजी व्यसनी तक हो जाते हैं, वो गुप् चुप रूप से अपने व्यसन अपनी आधी अधूरी अतृप्त इच्छाओं की पूर्ति में ही लगे रहने लगते है।

यंहा तक कि वो सहज से जुड़े लोगों अपने सहज परिवेश का उपयोग अपनी महत्वाकांशाओं को पूरा करने के लिए करने लगते हैं।

तो कुछ सहजी बिना किसी विशेष कारण के दुखी अवसाद ग्रसित रहने लगते हैं।

कोई कोई सहजी तो एकदम शासक जैसा ही व्यवहार करने लगते हैं, सभी सहजियों को अपने कंट्रोल में लेने का प्रयास करते रहते मानो उनसे बड़ा ज्ञानी प्रकांड पंडित कोई और है ही नहीं।

और जो भी सहजी/लोग उनकी महत्वाकांशाओं की पूर्ति में बाधक बनता प्रतीत होता है उसी से ऐसे 'बाधित सहजी' खिन्न/नाराज हो जाते हैं।

और उस सहजी को अपने रास्ते से हटाने की रात दिन योजनाएं बनाते रहते हैं।जिनमें वो कभी भी सफल नहीं हो पाते।

क्योंकि ऐसे बाधित लोग अपने अहंकार में "परमेश्वरी" की ही खिलाफत कर रहे होते हैं जो "उनको" कभी भी मंजूर नहीं होता।

इस प्रकार की नकारात्मक सूक्ष्म अस्तिव धारी चेतनाओं से बचे रहने का केवल और केवल एक ही उपाय है कि हम सदा "श्री चरणों" में समर्पित रहें सभी सहजियों के प्रति प्रेम भाव रखें।

अतः समस्त समस्त साधकों/साधिकाओं से प्रेममयी आग्रह है कि अपने हृदय को स्वच्छ बनाये रखते हुए ज्यादा से ज्यादा समय तक अपने सहस्त्रार पर घटित होने वाली विभिन्न प्रकार की हलचलों/संवेदनाओं को निरंतर महसूस करते रहें।

ताकि 'उच्च स्तर' की 'सूक्ष्मतम आण्विक अस्तित्वों' में विचरण करने वाली 'चेतनाएं' आपके सहस्त्रारों को निरंतर लाभान्वित कर आपकी चेतना को निरंतर विकसित करने में मदद करती रहें।

इस 48th 'सहस्त्रार दिवस' पर इस चेतना की ओर से आप सभी के लिए "श्री आदि माँ" से पूर्ण हृदय से प्रार्थना है कि आप सभी के "दसवें द्वार" को "वे" खुला रखने में सहायता करें।"

----------------------------------------Narayan

"Jai Shree Mata Ji"


1 comment: