Friday, November 16, 2018

"Impulses"--470--"मानवीय चेतना का त्रयोदश आयाम" (Thirteenth Dimension)


"मानवीय चेतना का त्रयोदश आयाम"
(Thirteenth Dimension)

जब किसी साधक/साधिका की साधना अत्यंत गहनतम अवस्थाओं में रहने लगती है तो उसकी 'चेतना' "माँ आदि शक्ति" से पूर्ण एकाकारिता प्राप्त कर लेती है।

जिसके परिणाम स्वरूप उसके पास अपने 'अणु रूप' 'स्थूल अस्तित्व' को 'दिव्य ऊर्जा' में परिवर्तित कर "माँ आदि" शक्ति की 'निराकार शक्ति' के साथ एक रूप होकर समस्त रचना में प्रवाहित होने की क्षमता स्वत् ही प्राप्त हो जाती है।

यानि वह "उनकी" स्वम् की ही 'शक्ति' का हिस्सा बन जाती है और "परमात्मा" की इस रचना को संचालित करने में "उनकी" मदद करते हुए अपनी सहभागिता निभाती है।

ये घटनाक्रम बिल्कुल ऐसे ही घटित होता है जैसे एक पूर्ण रूप से पुष्पित किसी पुष्प की सुगंध 'स्फूर्तिदायक बयार' के साथ एकरूप होकर स्थान स्थान पर बहती हुई सारे वातावरण को सुगंधित करती रहती है।

यानि जब साधक/साधिका अपने बाह्य अस्तित्वों के बंधनों से आंतरिक रूप से पूर्ण मुक्त हो जाते हैं।

तब उनकी चेतना उनके हृदय, उनके अन्तःकरण से प्रस्फुटित होने वाले 'प्रेम', 'करुणा' 'वात्सल्य' 'आत्मज्ञान' में परिवर्तित हो "परमेश्वरी" की 'दिव्य ऊर्जा' में विलय होकर सम्पूर्ण चराचर जगत में प्रवाहित होने लगती है।

ऐसी अवस्था के साधक/साधिकाओं को यदि कोई सहस्त्रार पर रहने वाला 'खुले हृदय चक्र' का अन्य सहजी स्मरण भी यदि कर ले।

तो तत्क्षण उनकी 'ऊर्जा रूपी चेतना', उनके सहस्त्रार को स्पर्श करेगी जिसके स्वागत में उनका सहस्त्रार प्रसन्न होकर बढ़ते हुए वायब्रेशन ऊर्जा के रूप में सुखद सा खिंचाव उत्पन्न करेगा।

साथ ही उन साधकों/साधिकाओं के निर्वाजय प्रेम की भी अनुभूति उनके अपने हृदय में होगी जिससे उनका हृदय प्रेम वात्सल्य से गद-गद हो जाएगा।

इस प्रेम की अनुभूति के साथ उन्हें भीनी भीनी सुगंध का भी अनुभव होगा जो उनके मन मस्तिष्क को प्रसन्नता से भर देगी।

जैसे यदि हमारा कोई अत्यंत प्रिय हमारे घर के द्वार पर आता है तो हमारा हृदय प्रेम आनंद से भर जाता है और हम उसका स्वागत अपने हृदय से लगाकर करते हैं।

कभी कभी तो स्मरण के साथ 'तेहरवें आयाम' में विचरण करने वाले ऐसे 'विलक्षण' साधक/साधिकाओं के स्थूल शरीर की महक भी अनुभव की जा सकती है।

क्योंकि उनका सम्पूर्ण बाह्य भीतर के अस्तित्व के 'अणु' द्रव्य बनकर एक दूसरे में विलय हो चुके होते हैं जिसके कारण उनकी स्थूलता सूक्ष्मता एक 'ऊर्जा' का रूप धारण कर चुकी होती है।

वास्तव में उन उच्च कोटि की चेतना के साधक/साधिकाओं के समस्त चक्र नाड़ियों के देवी-देवता पूर्ण रूप से जागरूक प्रसन्न रहते हैं।

जिसके परिणाम स्वरूप उनके समस्त चक्र निर्बाध रूप से चलते हुए विभिन्न प्रकार की पुष्प सम सुगंधि को भी प्रस्फुटित करते रहते हैं जो उन 'उच्च चेतनाओं' के 'ऊर्जा रूप' में भी समाहित होती हैं।

जो उन्हें स्मरण करने वाले सहजी को हृदयानंद सुगंधि के रूप में अक्सर अनुभव होती है।

और यदि ऐसे उच्च कोटि के मानवो को कोई साधारण सामान्य मनुष्य याद करता है तो उनकी चेतना उनके हृदय को उत्साह से लबरेज कर देती हैं।

यानि ऐसी 'ऊर्जासम चेतनाएं' उनके मन मस्तिष्क में प्रवेश करके उनके भीतर एक सुखद स्फूर्ति भर देतीं हैं जिनसे यदि वो किसी कारण से उदास निराश भी हैं तो भी वे प्रसन्नचित हो जाते हैं।

ऐसी 'ऊर्जा-रूप-धारी-चेतनाएं' किसी भी अच्छे हृदय के साधारण/ जागृत मानव के अन्तःकरण में प्रवेश करके उनके हृदय के माध्यम से स्वतः उत्पन्न होने वाली प्रेरणा के रूप में किसी भी सद्कार्य के लिए प्रेरित भी करती रहती हैं।

यही नहीं ऐसी 'फरिश्ता सम' चेतनाएं, अज्ञानता निकृष्ट भावना के चंगुल में जकड़ कर किसी भी मानव के द्वारा किये जाने वाले समस्त प्रकार के "परमात्मा",'प्रकृति' मानवता विरोधी कार्यो को भी उनके अन्तर्मन में प्रवेश कर उसकी नकारात्मक भावनाओं को परिवर्तित कर, रोकती भी हैं।

ये चेतनाएं जब देखती हैं कि कोई साधारण मानव/साधक/साधिका का हृदय दुर्भावनाओं से आच्छादित हो गया है।

तो वे उनके आगन्या में प्रविष्ट होकर उनकी समस्त नकारात्मक भावनाओं को उनके भीतर छुपे हुए समस्त दुर्गुणों यानि कामक्रोध,
लोभ,मोह, धूर्तता, ईर्ष्या अहंकार आदि के रूप में प्रगट कराकर उन्हें अनावृत भी करती हैं।

ताकि वह अपनी/सबकी नजरों में अपमानित होकर इनसे तौबा कर ले और स्वम् को सुधारने के लिए अपनी कमर कस ले और अपने को आने वाले भयंकर कष्टों की पीड़ा से बचा ले। 

ऐसे ऊंचे दर्जे की चेतनाएं जब अपना स्थूल शरीर का त्याग कर देतीं तो उनकी शक्तियां और भी बढ़ जाती हैं।

और वे लगातार "परमेश्वरी" शक्ति के साथ निरंतर "उनकी" रचना में विचरण करती रहती हैं और निरही प्राणियों, भोले भाले मानवों जागृति के मार्ग पर अग्रसर साधक/साधिकाओं की निरंतर मदद करती रहती हैं।

एक प्रकार से वे ही "ईश्वरी" शक्ति का अंग-प्रत्यंग बन कर इस रचना के हर प्रकार के जीवनों का पोषण करती उनकी देख भाल करती हैं।

तेहरवें आयाम में विचरण करने वाली चेतनाओं का एक अत्यंत नकारात्मक पक्ष भी है जो हमारे आज के समाज में अनेको अगुरुओं, कुगुरुओं, तांत्रिकों, मांत्रिकों, अघोरियों और वाम मार्गियों के रूप में उपस्थित हैं।

ये लोग चूंकि वास्तव में या तो राक्षसों के पुनर्जन्म होते हैं या फिर तीव्र राक्षसी प्रवृतियों के चंगुल में फंसे होते हैं जिनके कारण इनके भीतर से अनेको प्रकार की 'शैतानी शक्तियां' कार्यान्वित होती हैं।

जिनके कारण से आज्ञाचक्र के प्रभाव में रहने वाले सामान्य लोगों/ साधक/साधिकाओं की चेतनाओं को अपने कंट्रोल में ले लेते हैं और उनसे अपनी समस्त प्रकार की इच्छाओं की पूर्ति कराते रहते हैं।

यंहा तक कि "श्री माता जी" के "श्री चरणों" में आने के वाबजूद भी कुछ सहज अनुयायी अपनी सांसारिक आवश्यकताओं/इच्छाओं की पूर्ति हेतु सत्य के रास्ते से भटक कर इन दुष्ट चेतनाओं के चंगुल में फंस जाते हैं।

चाहे ऐसे नकारात्मक लोग मृत्यु को प्राप्त भी हो जाएं किन्तु इनकी चेतना के पास मृत्युपरांत भी वो समस्त शक्तियां उपलब्ध रहती हैं जिनके जरिये ये अंधकार में घिरे अनेको इंसानों के जरिये अपनी समस्त प्रकार की वासनाओं की पूर्ति में लगे रहते हैं।

जब भी ये किसी सुप्त मानव के मन मस्तिष्क को जकड़ने का प्रयास करते हैं तो उससे पहले उन् लोगों को बड़ी ही गंदी बदबू आती है।

और उसके बाद उनके मन मस्तिष्क सुन्न हो जाते हैं और उनके मन के भीतर बुरी बुरी बातें अपने आप आनी प्रारम्भ हो जाती हैं जो वे कभी भी सोचना नहीं चाहते थे या जिनके बारे में कभी भी सोचा ही नहीं था।

कभी कभी अनेको प्रकार की गालियां धारा प्रवाह मन के भीतर में उठनी शुरू हो जाती हैं चाहे उस इंसान ने अपने जीवन में कभी भी गाली दी हो।

इन नकारात्मक चेतनाओं से प्रभावित मनुष्यों के मन में अनेको प्रकार की निकृष्ट बातें प्रगट होने लगती हैं, निम्नतम स्तर के विचार इनके अन्तःकरण को आच्छादित कर देते हैं।

और अंततः इन निम्न विचारों से प्रभावित व्यक्ति उन विचारों के मुताबिक कार्यों को कर ही डालता है और करने के बाद अक्सर बहुत पछताता भी है।

किन्तु उसका अपने मन मस्तिष्क पर कोई भी नियंत्रण नहीं रह पाता, ऐसे इंसानों को भूत/शैतान बाधित(Possessed) कहा जाता है।

कई बार ऐसी निम्न स्तर की अदृश्य चेतनाएं अपने नकारात्मक कर्मो निकृष्ट जीवन से तंग आकर 'उच्च दर्जे' की चेतनाओं से सम्पर्क स्थापित करने के लिए उनके निकट आती हैं।

तब भी वैसी ही बड़ी ही गंदी बदबू का अनुभव होता है और उच्च दर्जे की चेतनाओं के सहस्त्रार में तीव्र ऊर्जा का एहसास होता है और उनके हृदय में घुटन के साथ उन निम्न चेतनाओं की व्यथा अपने आप विचारों के रूप में प्रगट होने लगती है।

साथ ही उनके सूक्ष्म यंत्र के बाएं/दाएं आगन्या में तीव्र दर्द/चुभन के साथ और कानों, हथेलियों, मध्य हृदय, पांव के तलवों में तीव्र गर्माहट का अनुभव भी होता है।

ऐसी दशा में उस अच्छी चेतना को अपने मध्य हृदय सहस्रार की ऊर्जा को एक करके अपने मध्य आगन्या में अपने चित्त चेतना को ले जाकर अपने मध्य हृदय से कुछ देर तक ऊर्जा प्रवाहित करनी चाहिए।

"श्री माता जी" से उस निम्न चेतना की उस शोचनीय अवस्था से मुक्ति के लिए सच्चे हृदय से प्रार्थना भी करनी चाहिए ताकि उस चेतना को "श्री माँ" कोई उचित स्थान प्रदान कर उसकी यंत्रणा उस योनि से उसे मुक्त कर सकें।

वैसे 'तेहरवें आयाम' में स्थित 'उच्च दर्जे' की चेतना के सम्पर्क में आते ही ऐसी 'निम्न चेतनाएं' स्वतः ही मुक्ति की ओर अग्रसर हो जातीं हैं।

पहले तो ऐसी 'तेहरवें आयाम' में रहने वाली निम्न चेतनाएं उन 'उच्च चेतनाओं' से संघर्ष करती हैं।

जिसके परिणाम स्वरुप उच्च चेतनाओं के स्थूल शरीर में इन निम्न चेतनाओं की विभिन्न प्रकार की वासनाओं अतृप्त इच्छाओं के अनुसार उन क्षेत्रो से सम्बंधित चक्रो के अंग प्रत्यगों में कुछ काल तक तीव्र पीड़ा होती है।

किन्तु इस स्तर तक विकसित साधक/साधिका की स्थायी तठस्थता स्थित-प्रज्ञता के कारण वह कुछ समय बाद ठीक भी हो जाती है।

ऐसी उच्च दर्जे की चेतनाओं के साथ ये सिलसिला बदस्तूर चलता ही रहता है।इनका प्रभाव विषेध रूप से कंठ, नाभि, बायां/दायां/मध्य हृदय, पीठ का ऊपरी भाग, रीढ़ की हड्डी पर ज्यादा रहता है।

क्योंकि ज्यादातर ये निम्न चेतनाओं के मूलाधार, विशुद्गी, नाभि, हृदय अत्यंत बुरी स्थिति में होते हैं जिनका प्रभाव उच्च दर्जे की चेतनाओं के केवल स्थूल शरीर पर होता ही रहता है।

जबकि 'तेहरवें आयाम' में स्थित इन उच्च चेतनाओ के सूक्ष्म यंत्र चेतना में इन निम्नता में जकड़ी चेतनाओं का बिल्कुल भी प्रभाव नहीं होता है क्योंकि उनकी चेतना को "माँ" आदि शक्ति के साथ एक रूप हो चुकी है।

एक प्रकार से इस आयाम में विचरने वाली उच्च दर्जे की चेतनाएं ऐसी नकारात्मक चेतनाओं की स्थाई शांति सुकून का माध्यम ही बनती हैं।

इस 'तेहरवें आयाम' में रहने वाले साधक/साधिकाओं की चेतना में समाहित चित्त सर्व्यापी/व्यक्तिगत नकारात्मकता को नष्ट करने के लिए 'लेजर बीम' से भी तीव्र कार्य करता है, जिसका प्रभाव कुछ ही समय में अक्सर परिलक्षित भी होता ही रहता है।

किन्तु ऐसी ऊंची अवस्था को प्राप्त चेतनाओं का इस्तेमाल कोई अन्य साधक/साधिका/साधारण/सामान्य व्यक्ति अपने हितलाभ के लिए कभी नहीं कर सकता क्योंकि वे तो केवल "श्री माँ" के अथवा अपने स्वम् के द्वारा ही संचालित होती हैं।

जब तक उसके स्वम् के हृदय में कोई अनुभव नहीं होता उसकी चेतना सक्रिय ही नहीं होती चाहे उससे कोई कितना भी कह ले।क्योंकि वह तो स्वम् में सम्पूर्ण होता है।

और कोई यदि कुछ भी कहे तब भी यदि उसकी चेतना को किसी नकारात्मक चेतना का अभास होता है तो उसकी शक्तियां स्वतः ही कार्यान्वित हो जाती हैं।

इसके अतिरिक्त किसी वास्तविक सत्य-साधक को किसी आंतरिक मदद की आवश्यकता है तब भी उसकी चेतना की शक्तियां स्वतः ही जागृत होकर उसकी मदद करने लगती हैं चाहे वह सत्य साधक उससे बाह्य/भीतरी रूप से कुछ कहे या कहे।

इस धरा पर /ब्रह्मांड में जो भी वास्तविक सत्य साधक/उनकी चेतनाएं उपास्थित हैं, उन सभी की मदद करने उनसे जुड़ने के लिए इस विलक्षण 'तेहरवें आयाम' को जीने वाली चेतनाओं को कुछ प्रयास ही नहीं करना पड़ता वरन उसकी जागृत शक्तियां ही यह कार्य स्वम् कर देती हैं।

जैसे किसी भी बड़ी चुम्बक को किसी अन्य चुम्बक लोहे के कणों को अपने से जोड़ने के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने की आवश्यकता  ही नहीं क्योंकि उसका चुम्बकीय क्षेत्र ही यह कार्य कर डालता है।

एक और उदाहरण हम सूर्य का लेते हैं जिसका प्रकाश किरणे ही उसका सम्पूर्ण कार्य स्वतः ही कर डालते हैं।"

--------------------------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"


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