Friday, November 9, 2018

"Impulses"--469--"मानवीय चेतना का द्वादश आयाम" (Twelfth Dimension)


"मानवीय चेतना का द्वादश आयाम"
(Twelfth Dimension)

जो साधक/साधिका अपनी साधना के माध्यम से "परम" के साथ स्थाई एकाकारिता स्थापित कर लेते हैं। 

तो ऐसी दशा में "उनकी" 'उच्च आवृति युक्त' अनेको गहन शक्तियां उनके सूक्ष्म यंत्र में लगतार भ्रमण करती रहती है।

'जो' उनके सहस्त्रार, मध्य हृदय, विशुद्धि, हाथों, चित्त दृष्टि से ही नहीं अपितु पंच तत्वों के द्वारा निर्मित उनके स्थूल शरीर के प्रत्येक रोम छिद्रों से भी प्रवाहित होती रहती हैं।

जिसके कारण ऐसी उच्च अवस्था के साधक/साधिका जिस स्थान पर भी विराजते हैं अथवा विश्राम करते हैं वह स्थान भी उनके भीतर से बहने वाली 'पवित्र ऊर्जा' से चैतन्यतित हो जाता है।

यानि उनका प्रकाशित 'सूक्ष्म-स्थूल -अस्तित्व' उन स्थानों पर उनके एक 'ऊर्जा शरीर' (Energy Body) का निर्माण कर देता है।जिसमें वही शक्तियां समाई होती हैं।

यदि ऐसे साधक/साधिका अपने स्थान से कहीं और चले भी जाएं तो उनके वहां पर उपस्तित होने का आभास उनके होने पर भी बना ही रहता है।

जैसे यदि एक लोहे के टुकड़े/कण को एक चुम्बक को साथ कुछ देर के लिए छोड़ दिया जाए तो उसमें भी चुम्बक की आकर्षण शक्ति जाती है और वह भी लोहे के अन्य कणों को अपने साथ चिपकाने में सक्षम हो जाता है।

ठीक ऐसे ही यदि 'उच्च अवस्था' के 'जागृत' मानवो के द्वारा इस्तेमाल किये गए स्थानों पर यदि कोई 'आत्मसाक्षात्कारी' बैठ जाये जो अपने सहस्त्रार पर उपास्थित है।

तो उसे तुरंत अपने सहस्त्रार, मध्य हृदय, विशुद्धि में ऊर्जा की सनसनाहट महसूस होने लगेगी और कुछ ही देर में उसके सम्पूर्ण यंत्र में ऊर्जा दौड़ती हुई प्रतीत होगी।

क्योंकि उस बैठने वाले सहजी के सम्पर्क में उस 'गहन साधक/साधिका का 'ऊर्जा शरीर' गया है जिसकी ऊर्जा उसके यंत्र में प्रवाहित होने लग गई है।

यदि किसी सहज-अभ्यासी के किन्ही चक्र नाड़ियों में कुछ अस्थाई दोष विद्यमान है। तो वे दोष तुरंत साफ हो जाते हैं और यदि कुछ स्थाई दोष हैं तो भी उसके स्थान पर निरंतर बैठने से वे दोष भी धीरे धीरे ठीक होने लगते हैं।

और यदि 'उसके स्थानों' पर साधारण सामान्य लोग बैठ जाएं तो उनके मन मस्तिष्क में शांति प्रसन्नता का संचार होता प्रतीत होता है।

और यदि ऐसे 'ऊंचे दर्जे' की चेतना के मानव जिन स्थानों पर स्थाई रूप से रहने लगते हैं तो वह स्थान उसके अस्तित्व से बहने वाली 'शुद्ध ऊर्जा' से आच्छादित रहता है।

जो भी 'ध्यान-अभ्यासी' उसके स्थान पर उसकी अनुपस्थिति में भी जाते हैं तो उनको अपने सम्पूर्ण सूक्ष्म यंत्रो में ऊर्जा की सक्रियता महसूस होगी।

और यदि वे ध्यान-अभ्यासी आने से पहले किसी किसी कारण से दुखी विचलित भी रहें हों तब भी उनके भीतर का दुख विचलन उन स्थानों पर बैठकर दूर होता प्रतीत होता है।

और यदि सर्व साधारण लोग उनके स्थानों पर कुछ देर बिताएं तो उनके हृदय अकारण ही प्रफुल्लित होने लगते हैं, उनको अपने भीतर में एक अनजानी सी प्रसन्नता महसूस होने लगती है।

यानि कि उन 'उच्च चेतनाओं' का 'ऊर्जा शरीर' उनके स्थानों पर पहुंचने वाले हर प्रकार के लोगों को राहत प्रदान कर रहा होता है। 

इसका एक उदाहरण हमारे इतिहास में राजा विक्रमादित्य के सिंघासन का भी है, जो एक पेड़ के नीचे गड़ा हुआ था।

एक बालक जब भी उस पेड़ के नीचे बैठता था वह बड़ी ऊंची ऊंची बाते करने लगता था और जैसे ही वह वहां से हट जाता था तो वह फिर सामान्य बालक हो जाता था।

यही नहीं उसके पहनने वाले वस्त्रो उसके द्वारा उपयोग में आने वाली वस्तुओं में भी वह 'ऊर्जा शरीर' विद्यमान रहता है।

यदि कोइ अन्य व्यक्ति उस उच्च चेतना के वस्त्रों समान का उपयोग भी करेगा तब भी उस व्यक्ति को उन चेतनाओं की 'सकारात्मक ऊर्जा' का लाभ मिलता रहेगा।

ऐसा ही एक किस्सा 'सन्त रविदास जी' का है, जो एक मोची का कार्य किया करते थे। 

उनके काल में एक राजा उनकी ख्याति को सुनकर उनसे मिलने आया और उनसे उनका आशीर्वाद ज्ञान देने की प्रार्थना की।

सन्त रविदास जी ने अपनी चमड़े की कठौती से एक चुल्लू पानी राजा को उसके हाथ में बिन बोले दे दिया।और जाने का इशारा किया।

राजा को चमड़े का पानी कुछ समझ नहीं आया उसने पानी गिरा कर हाथो को पीछे करके अपने वस्त्रो से हाथ पोंछ लिए। 

और सोचता सोचता वापस गया कि बाबा ने उसे आशीर्वाद ज्ञान क्यों नहीं दिया।

घर आकर उसने अपने कपड़े उतारे तो उस पर चमड़े के रंग का निशान देखा।तो उसने अपने धोबी को वह वस्त्र धोने के लिए दे दिया।

धोबी ने उस धब्बे को मिटाने का भरसक प्रयत्न किया किन्तु वह धब्बा साफ नहीं हो पाया। 

डर के मारे उसने वह वस्त्र राजा को वापस नहीं किया कि कहीं राजा उसे सजा दे दे।

किन्तु उसने रोज मर्रा के जीवन में वह वस्त्र पहनना प्रारम्भ कर दिया, देखते ही देखते उसके भीतर आत्म ज्ञान फूटने लगा, और उसके ज्ञान की चर्चा चारो ओर फैलने लगी।

उसके बारे में राजा को भी पता चला तो उसने उसको बुलवाया और उससे पूछा कि उसको सदज्ञान कहाँ से प्राप्त हुआ।

तब उसने राजा से क्षमा माँगते हुए राजा को बताया कि दाग छुट पाने के कारण उसने राजा का वह दागी वस्त्र पहना तो उसके अंतर्मन की आंखे खुल गईं और उसके हृदय से ज्ञान ही ज्ञान फूटने लगा।

इसके विपरीत कुछ नकारात्मक लोग उन स्थानों पर पहुंच जाएं जो मानवता, 'प्रकृति', "परमात्मा" के विपरीत कार्यों में संलग्न रहते हैं।

वो ऐसे स्थानों पर पहुंच कर वे अत्यंत बेचैन रहते हैं, उनका सर भारी होने लगता है, कभी कभी तो तेज सर दर्द भी हो जाता है और पूरे शरीर में बेकली होने लगती है इसीलिए वे कुछ ही देर में वहां से चले जाते हैं।

क्योंकि उन 'उच्च मनावों' का ऊर्जा-शरीर उनके सूक्ष्म यंत्र में सफाई प्रक्रिया प्रारम्भ कर देता है। 

जिसके कारण उनके अनेको चक्र नाड़ियों में पकड़ आनी प्रारम्भ हो जाती है जो उन्हें विचलित करती रहती है।

जब जब भी किसी भी मानव का सम्पर्क किसी भी प्रकार की 'पवित्र' ऊर्जा से होगा तो उसके सूक्ष्म यंत्र के दोष स्वतः ही कैच के रूप में प्रगट होने लगेंगे और अज्ञानता में वह मानव उस स्थान विशेष को दोष दे रहा होगा।

इसके विपरीत कोई भी दोष रहित सूक्ष्म यंत्र ऐसी 'उच्च' ऊर्जा से जुड़ेगा तो उसका सम्पूर्ण सूक्ष्म यंत्र ऊर्जा के प्रवाह से झंकृत होना प्रारम्भ हो जाएगा।

ऐसी 'उच्च दर्जे' की चेतनाएं जब स्थूल शरीर को त्याग देती हैं तब भी उनके स्थानों पर उनके ऊर्जा शरीर सदा सक्रिय रहते हैं जो कभी भी नष्ट नहीं होते।

हमारे देश विदेशों में भी हजारो स्थान ऐसे हैं जहां पर ऊंचे दर्जे के सन्त, सद गुरु, ऋषि, त्यागी, अवतार साधक रहा करते थे।

सदियां बीतने के बाद भी उनके रहने बैठने के स्थानों में उनके 'ऊर्जा शरीर' आज भी सक्रिय हैं और सच्चे लोगों का कल्याण करने में लगे हुए हैं। जो भी उन स्थानों पर जाता है कुछ कुछ लाभ अवश्य प्राप्त करता है।

जैसे जिन जिन स्थानों पर भी "श्री माता जी" अपने 'साकार' साक्षात रूप में रहीं हैं। उन स्थानों पर कुछ देर तक ध्यानस्थ होते ही अच्छे स्तर के साधकों के समस्त शक्ति केंद्र बहुत तेजी से चलने प्रारम्भ हो जाते हैं।

जैसे किसी ने वीणा के सातों के सातों तारों को झंकृत कर दिया हो और उनसे फूटने वाले सुर सारे वातावरण को तरंगित कर रहे हों।

इस प्रकार के स्थानों में समस्त प्रतिष्ठान, छिंदवाड़ा में "श्री माँ" का घर, धर्मशाला "श्री निर्मल धाम" आदि आते है।

वैसे इस धरा पर स्थित समस्त स्वम्भू स्थानों पर भी 'पवित्र ऊर्जा' सक्रिय रहती है किंतु उससे केवल उस स्थान विशेष से सम्बंधित चक्र नाड़ी में ही ऊर्जा की झंकार होती है।

"श्री माँ" के समस्त स्थानों पर यदि साधारण मानव भी कुछ देर के लिए बैठ जाएं। 

तो उनकी 'कुण्डलीनियों' में हलचल होनी प्रारम्भ हो जाती हैं और वे उठनी प्रारम्भ हो जाती हैं और उनको मन में भी अत्यंत शांति प्रतीत होने लगती है।

इस द्वादश आयाम का एक नकारात्मक पक्ष यह भी है कि अत्यंत दुष्टता, क्रूरता, बुराई, हिंसा लोभ से घिरे रहने वाले लोगों का भी 'नकारात्मक-ऊर्जा शरीर' उनके बैठने रहने के स्थानों पर उनके जीवित रहते हुए ही निर्मित हो जाता है जो उनकी मृत्यु के उपरांत भी बना रहता है।

जो उनके स्थानों पर पहुंचने वाले साधारण/सामान्य लोगों को अत्यंत हानि पहुंचता है, यानि उनके दुर्गुण उन स्थानों पर बैठने/रहने वाले नए लोगों में भी आने प्रारम्भ हो जाते हैं।

हमारे देश अन्य देशों में इस प्रकार के हजारों मशहूर अभिशिप्त
(Haunted Place) स्थान हैं जहां कोई भी जाना नहीं चाहता। 

और यदि कोई सहस्त्रार पर स्थित 'ध्यान-अभ्यासी' उनके स्थानों पर बैठे अथवा कुछ समय बिताए।

तो उसका गला सूखने लगेगा/उसके मध्य हृदय में घुटन महसूस होने लगेगी/उसके पेट में ऐंठन/दर्द होना प्रारम्भ हो जाएगा/उसके बायें दाएं हृदय में शूल सा प्रतीत होगा/उसके दाएं/बायें आगन्या में चुभन होती महसूस होगी।

क्योंकि उसका यंत्र जागृत है जिसके कारण उसके यंत्र की शक्तियां उस मानव के 'नकारात्मक-ऊर्जा-शरीर' से संघर्ष करने लग जाती हैं।

जिसके कारण उसको अपने शरीर के कई भागों जैसे पांव के तलवों/हथेलियों/कानो/आंखों/माथे/मध्य हृदर सहस्त्रार पर गर्माहट/जलन की अनुभूति भी होती है। 

इस संघर्ष में वो ही ऊर्जा प्रभावी हो जाती है जो दूसरे से ज्यादा शक्ति शाली साबित होती है।

यानि जो सहजी अपने सहस्त्रार से नीचे रहते हैं ऐसे स्थानों पर जाकर वो अपने साथ कुछ चक्रों में बाधा ले आते हैं जिनमें से कुछ सहज तकनीकों के द्वारा ठीक हो पाती हैं किंतु कुछ बाधाएं ठीक नहीं हो पाती।

ऐसी जड़ बाधाएं केवल "श्री माँ" के रहने/बैठने के स्थानों पर/"श्री निर्मल धाम" में लंबे समय तक लगातार रहने से ही ठीक हो पातीं हैं।

या फिर पंचम आयाम इससे से ऊपर के 'उच्व आयामों' में विचरण करने वाले साधक/साधिकाओं के सानिग्ध्य में आकर भी ठीक हो जाती हैं।

इन 'उच्च आयामों' में रहने वाले साधक/साधिका यदि ऐसे निकृष्ट स्थानों पर कुछ देर के लिए बैठ जाएं अथवा रह लें तो उनका "तीव्र ऊर्जा क्षेत्र" इन 'नकारात्मक-ऊर्जा-शरीरों' को नष्ट करना प्रारम्भ कर देता है।

क्योंकि उनके अस्तित्व से 'सर्वोच्च चेतन" की ऊर्जा प्रवाहित हो रही होती है जो ऐसे 'नकारात्मक-ऊर्जा-शरीरों' को जलाकर खाक कर देती है।

"श्री माँ" का स्वप्न भी शायद ऐसे ही उच्च अवस्थाओं/आयामों में विचरण करने वाले के सहजियों के लिए ही रहा होगा।

जिनका 'विकसित ऊर्जा' क्षेत्र केवल सत्य खोजियों को अनावृत कर उनको विकसित करेगा बल्कि इस धरा पर छाई हुई नकारात्मकता को निष्क्रिय कर इस धरा पर पुनः स्वर्ग की स्थापना भी करेगा।"

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"Jai  Shree Mata Ji"

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