Wednesday, March 1, 2017

"Impulses"--345--"सुरक्षा/असुरक्षा"

"सुरक्षा/असुरक्षा"

"सतही स्तर पर सुरक्षा व् असुरक्षा, दोनों ही भाव केवल हमारे मन की उत्पत्ति हैं, जो हमारे मन में संचित स्मृति के कारण उत्पन्न होते हैं।जो हमें व्यर्थ की चिंता की ओर धकेल देते है। ये दोनों ही भाव, अनेको प्रकार के नकारात्मक विचारों में हमारी चेतना को जकड़ कर हमसे अक्सर नाकारात्मक कार्य ही कराते है।

जो भी होता है वो होता तो "प्रभु" की इच्छा से ही है तो भला मानव कर ही क्या सकता है  हमारा व्यर्थ में सोच सोच कर भयभीत होना हमारे पूर्वजन्मों के नकारात्मक संस्कारो(कंडीशनिंग) से पोषित एक भ्रम मात्र है।जो केवल पूर्व स्मृतियों के तुलनात्मक विश्लेषण के कारण ही उत्पन्न होता है।

अतः इस भ्रम से निकालने के लिए हमें अपने 'चेतना' रूपी कोष को विभिन्न प्रकार की वास्तविक अनुभूतियों व् अनुभवों के माध्यम से भरने व् मन रूपी कोष में स्थित वर्तमान समय के लिए अनावश्यक व् अनुपयुक्त पूर्व स्मृति संग्रह को रिक्त करने की आवश्यकता है, जो केवल और केवल गहन ध्यान-अवस्था में ही संभव है।

परंतु अब जरा इन दोनों शब्दों के वास्तविक अर्थ को अच्छे से समझने व् आत्मसात करने के लिए चले चलते हैं। सर्व प्रथम हम 'सुरक्षा' शब्द को अपने भीतर उतारने के लिए पूर्ण ध्यानस्थ अवस्था में इस शब्द की संरचना का संधि विच्छेद करते हुए विश्लेषण करते हैं।

इस शब्द का सृजन दो शब्दों,'सु'+'रक्षा', जो तीन वर्णों व् दो मात्राओं से बने है, यानि ''+'+''+'क्ष'+, यानि '' वर्ण मूलाधार चक्र का सुर है जो 'माता कुण्डलिनी' के द्वारा इस चक्र को स्पर्श करने पर तरंगित होता है।

ये तरंगित सुर से उत्पन्न ऊर्जा-तरंगे "श्री गणेश" को इस चक्र पर जागृत कर देती हैं तो 'वे' प्रसन्न होकर इस ब्रह्ममाण्ड की उत्त्पत्ति से भी पूर्व "त्रिशक्तियों" व् "त्रिदेवों" के प्रगटीकरण के समय गुंजित होने वाले " "शब्द का नाद करते हैं जिसका प्रतिनिधित्व '' की मात्रा करती है।

इस आंतरिक 'निशब्द-नाद' से उत्पन्न ऊर्जा हमारी सुषुम्ना नाड़ी में प्रवाहित होने लगती है जिसके फलस्वरूप रीड की हड्डी में शीतल कंम्पन साधक/साधिकाओं को अक्सर महसूस होता है जिसका एहसास आत्मसाक्षात्कार के बाद हथेलियों में वाइब्रेशन के रूप में भी महसूस होता है। 

जिसका प्रवाह हमारी उधर्वगामी 'माता कुण्डलिनी' को शक्ति प्रदान करते हुए उनके मार्ग की समस्त बाधाओं को दूर करता हुआ 'उनको' सहस्त्रार चक्र पर ले जाने में सहायता करता है।

अतः ''+'' मिलकर 'सु' शब्द सृजित करते हैं जो सुषुम्ना नाडी को इंगित करता हैं, वर्ण ''=रमण=गतिशीलता=शक्ति, यानि इस नाड़ी की शक्ति जो भ्रमण शील है, को प्रदर्शित करता है।

इसी प्रकार 'क्ष'+'' मिलकर, अक्षया शब्द का निर्माण करते हैं, जिसका मतलब होता है, अक्षुण=जिसे कभी भी नष्ट नहीं किया जा सकता, जो अनश्वर है, जो 'अनंत' से जुड़ी है, जो इस रचना के 'स्रोत' तक ले जाती है, जो इस रचना के 'उदगम्' की मौलिक शक्ति का प्रतिनिधित्व करती है।

यानि 'सुरक्षा' शब्द हमें ये बताता है कि हम केवल और केवल सुषम्ना नाड़ी पर स्थित होकर ही सुरक्षित रह सकते हैं क्योंकि यह नाड़ी इस सम्पूर्ण रचना के स्रोत यानि उदगम से जुडी है।

अब हम, शब्द 'असुरक्षा' की ओर ध्यानस्थ अवस्था में चलते हैं और इस शब्द की गहराई में जरा उतरते हैं, तो हम पाते हैं कि इस शब्द में केवल 'सुरक्षा' से पहले वर्ण '' को जोड़ दिया गया है जो ='आत्मा' की ओर चलने की तरफ इशारा कर रहा है।

इसका अभिप्राय ये है कि जब भी कभी हमें किसी भी प्रकार की असुरक्षा महसूस हो तो हम केवल और केवल अपनी 'आत्मा' की ओर अपनी 'चेतना' का रुख कर लें। 

और ध्यानस्थ अवस्था की स्थिति में अपनी चेतना के भीतर अपनी 'आत्मा' को महसूस करें या फिर अपनी 'आत्मा' में अपनी चेतना के ठहराव को आभासित करें तो पुनः सुरक्षा का एहसास ही नहीं होगा वरन "परमेश्वर" का पूर्ण सौरक्षण भी वास्तव में उपलब्ध होगा"

---------------------------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"

No comments:

Post a Comment