Friday, March 24, 2017

"Impulses"--351--"प्रेम-बंधन"

"प्रेम-बंधन" 


 "हममे से ज्यादातर सहजी अक्सर किसी किसी भौतिक परेशानी के कारण बंधन लगाते ही रहते हैं और सोचते हैं कि वो समस्त परेशानियां व् पीड़ाएँ "श्री माँ" अवश्य दूर कर देंगी। और वास्तव में "करुणामयी"-"प्रेममयी माँ" अक्सर हमारी परेशानियां समय समय पर दूर करती भी है जिसके कारण हमारे बंधन बढ़ते ही जाते है।

जिसके परिणाम स्वरूप हम और भी ज्यादा बंधन लगाने की प्रवृति के आदि होते जाते हैं और हमारा चित्त ध्यान में गहन होने के स्थान पर विभिन्न प्रकार की प्रक्रियाओं, प्रार्थनाओं व् बंधनो में उलझ कर उथला ही रह जाता है।जिसके कारण हमारी चेतना में समाधान व् समर्पण घटित ही नहीं हो पाता और सहजी 'सागर' में रहते हुए भी प्यासा का प्यासा ही रह जाता है।

अतः गहनता पाने के लिए पूर्ण ध्यानस्थ अवस्था में चिंतन करना होगा और इस 'बंधन' को समझना होगा कि वास्तव में ये बंधन क्या है।मेरी चेतना के अनुसार बंधन कुछ और नहीं केवल और केवल "श्रीं माँ" के प्रेम का प्रतिरूप ही है।

जैसे एक प्रेमी तो अपनी प्रेमिका के चित्र को अपने पास रखकर उसे बाहरी रूप से बारम्बार देखकर प्रसन्न होता रहता है।और समय समय पर अपने प्रेम का इजहार अपने शब्दों में कर अपनी प्रेमिका को रिझाता रहता है और रिझा रिझा कर उसके प्रेम के प्रति आश्वस्त होता रहता है।

वहीँ दूसरी और एक दूसरा प्रेमी अपनी प्रेमिका को व् उसके प्रेम को अपने हृदय में सदा महसूस करता रहता है और अपने प्रेम को उसके हृदय में महसूस करता रहता है, उसे अपनी प्रेमिका का चित्र व् छवि देखने व् अपने प्रेम को शब्दों में कहने की आवशयकता ही नहीं होती परन्तु दोनों एक दुसरे के प्रेम से लबरेज रहते हैं व् आनंदित रहते हैं।

ठीक इसी प्रकार से "श्री माँ" के प्रेम का बंधन कार्य करता है।यदि हमारे सहस्त्रार पर "श्री माँ" की उपस्थिति ऊर्जा के रूप में महसूस हो रही होती है और उसकी प्रतिक्रिया हमारे मध्य हृदय में हो रही हो तो हम "श्री माँ" के प्रेम से परिपूर्ण बंधन में बंधे हुए है।

ऐसी स्थिति में हमें अलग से, तो अपने चित्त से और ही हाथों से बंधन देने की आवशयकता ही हैं और ही शब्दों में प्रार्थना करने की ही जरुरत है, क्योंकि इस अवस्था में हम "श्री माँ" से एक रूप हैं।जिसके लिए भी हमारे हृदय में करुणा व् प्रेम प्रगट होगा "श्री माँ" की शक्तियां स्वतः ही कार्य करना प्रारम्भ कर देंगी। अलग से लगाया गया बंधन व् शब्दों में की गई प्रार्थना "श्री माँ" से दूरी को ही प्रगट करता है।

यदि हमारे शरीर से हमारे हाथ-पाँव ढीक प्रकार से जुड़े हुए हैं तो हमारे शरीर की शक्ति स्वतः ही इन अंगो को पोषित करती रहेगी और यदि नहीं जुड़े होंगे तो कमजोर होने लगेंगे और हमारे मस्तिष्क की कमांड को ले नहीं पाएंगे।

यानि हमारा मस्तिष्क हमारे हाथों को गिलास उठाने के लिए कहेगा फिर भी ये गिलास नहीं उठा पाएंगे बल्कि किसी और दिशा में ही चलेंगे।यानि शरीर के साथ एक रूप हो पाएंगे। और फिर डाक्टर("श्री माँ") आपरेशन(बंधन) के जरिये हमारे शरीर की नसों को पुनः जोड़ेगा तब ही जाकर कुछ समय बाद हमारे अंग-प्रत्यंग कार्य कर पाएंगे।

अतः हमें स्वम् ही महसूस करना होगा की हम "श्री माँ" से जुड़े हैं या अभी भी जुड़ने की प्रक्रिया ही घटित हो रही है। वास्तव में हमारे अवचेतन मन में स्थित पूर्व जन्मों के अनेको संस्कार "श्री माँ" के प्रति हमारे 'विश्वास' को जमने नहीं देते और हम अज्ञानतावश निर्थक प्रक्रियाएँ करते रहते हैं जो केवल हमारे विश्वास की कमजोरी को ही प्रगट करती हैं जिसके कारण गहनता हमसे कोसो दूर होती जाती है।"
----------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"

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