Friday, March 31, 2017

"Impulses"--353--""अहंकारोदय"

"अहंकारोदय"

"हममे से बहुत से लोगों के भीतर स्थित अहंकार अनेको प्रत्यक्ष व् अप्रत्यक्ष रूपों में मौजूद रहता है।परंतु फिर हममे से कुछ लोगों को लगता है कि जैसे हमारे भीतर अहंकार है ही नहीं। ज्यादातर हम लोग अहंकार को किसी व्यक्ति की उपलब्धि, गुण, प्राप्ति, श्रेष्ठता, पद आदि को धारण कर अन्य लोगों को हेय दृष्टि से देखते हुए तूलनात्मक व्यवहार के द्वारा उन शासन करने की प्रवृति से ही जोड़ते हैं।

हम अक्सर एक दूसरे से चर्चा करते हुए कहते भी हैं, कि 'अमुक व्यक्ति को सफलता ने बहुत घमंडी बना दिया है, अपने आगे वो किसी की सुनता ही नहीं है।

परंतु क्या हमने कभी चिंतन किया है कि वास्तव में अहंकार है क्या चीज ? ये कहाँ से आता है ? किस प्रकार से उत्पन्न होता है ?किस तरह ये हमारी चेतना पर हावी होता हैये क्यों प्रगट होता है ?

वास्तव में यदि गहनता से ध्यानस्थ अवस्था में चिंतन किया जाए तो हम पाते हैं की ये तो हमारे मन की प्रवृति के कारण परिलक्षित होता है जो अत्यंत सरल किन्तु बहुत ही सूक्ष्म घटना क्रम है, जिसकी ओर हम ध्यान ही नहीं दे पाते है। 

उदाहरण के लिए यदि हमारे साथ कोई घटना या दुर्घटना घटित हो जाती है तो हम तुरंत उस घटना के बारे में अपने मन के भीतर स्थित समस्त सूचनाओं के आधार पर कुछ कुछ सोचना या विचार करना प्रारम्भ कर देते हैं।

हम उस घटना को अपनी किसी किसी पूर्व के घटनाक्रम से जोड़कर भ्रामक कारण व् परिणाम भी निकाल लेते हैं और उन तथाकथित निष्कर्षों पर आश्वस्त भी हो जाते हैं।

वास्तव में यही तो हमारा छुपा हुआ अहंकार है, क्योंकि जो हुआ "प्रभु" की इच्छा से हुआ तो हम भला विवेचना करने वाले कौन होते हैं।
क्या हम "परमपिता" के कार्यों पर भी अपनी सीमित समझ, चेतना, ज्ञान व् बुद्धि के माध्यम से टिप्पड़ी देने की हैसियत रखते है।

इसका मतलब ये हुआ की हम स्वम् को अनजाने में "परमेश्वर" से भी बड़ा मान बैठते हैं और स्वम् ही स्वम् के व् अन्यों के भविष्य के बारे में अपने विचारो पर आधारित घोषणा भी कर देते हैं।

क्या ये संसार व् रचना हमारी सोचो से संचालित हो सकते हैं ? क्या समस्त प्राणियों के भोजन व् रहने का हम प्रबंध कर सकते हैं ? क्या जीवन व् मृत्यु हमारी सोचों से घटित हो सकते हैं ?

जब ये उपरोक्त घटनाएं हमारे विचारों से संचालित नहीं हो सकतीं तो भला हमें किसी भी चीज के विषय में इतना विचारने की आवश्यकता ही क्या है।

मानव के अतिरिक्त समस्त प्राणी केवल अपने भोजन व् शयन के विचारो तक ही सीमित हैं, इसीलिए वो सदा अहंकार रहित रहकर प्रसन्न रहते हैं। और अनेको प्रकार के सूक्ष्म अहंकारों से ग्रसित मानव सदा दुखी ही रहता है और भीतर व् बाहर अक्सर रोता ही रहता है।क्योंकि वह पीड़ित ही अपने स्वम् के सोचने के कारण होता है।

वास्तव में अहंकार से प्रभावित विचार हमारे भीतर में घुटन को उत्पन्न करते है जो हमें भीतर ही भीतर पीड़ा देती रहती है और हम उदास व् दुखी बने रहते हैं। तकनीकी रूप से हमारा मस्तिष्क हमारे असत्य व् अहंकार से परिपूर्ण विचारो पर प्रतिक्रिया कर हमारे भीतर एक प्रकार का विष स्त्रावित करता है जिससे हमारे भीतर नकारात्मक प्रतिक्रियाएं प्रारम्भ हो जाती हैं।

जिसके कारण और भी ज्यादा हानिकारक विचार जन्म लेते चले जाते हैं और हम भीतर ही भीतर विभिन्न प्रकार की वैचारिक व् जैविक प्रतिक्रियाओं में उलझते चले जाते हैं और भीतर से कमजोर हो जाते हैं।

वो बात और है कि गहन ध्यानस्थ अवस्था में "श्री माँ" किन्ही तथ्यों के बारे में हमारी 'प्रकाशित आत्मा' के प्रकाश में हमारे हृदय के माध्यम से स्वतः ही हमारे मार्ग दर्शन हेतु कुछ कुछ प्रेरणा दे दें।

किन्तु अपने मन में संचित सूचनाओं के आधार पर किये गए समस्त प्रकार के विचार, तर्क, वितर्क व् कुतर्क, केवल और केवल हमारे अव्यक्त व् अदृश्य अहंकार को ही प्रदर्शित करते हैं।जिसके बारे में हम आम हालात में कभी भी समझ ही नहीं पाते।

इससे निष्कर्ष निकलता है कि हमें मध्य हृदय व् सहस्त्रार में "श्री माँ" के प्रेम को ऊर्जा के रूप में महसूस करते हुए हर घटना व् परिस्थिति में केवल और केवल हृदय के भीतर से उठने वाली प्रेरणाओं पर ही आश्रित रहना चाहिए।

क्योंकि ये अवस्था 'परम' के साथ ऐकाकारिता को ही प्रगट करती है जिससे अहंकार कभी भी प्रभावी नहीं हो सकता। और इसके विपरीत मन से उठने वाले विचारों का त्याग करना ही श्रेष्ठ है क्योंकि ये स्थिति केवल और केवल 'परमसत्ता' से अलगाव की ओर ले जाकर हमें अनजाने अहंकार के गर्त में धकेल देगी।"

---------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"

No comments:

Post a Comment