Monday, July 17, 2017

"Impulses"--387--"शुद्ध इच्छा"

"शुद्ध इच्छा" 

"यदि हम शांत भाव से 'चिंतन' करके देंखे तो हम पाएंगे कि हमारी चेतना स्वतः ही हमारे जीवन के प्रारम्भ से ही हमें किन्ही इच्छाओं की ओर ले जाती चली जाती है।और हमारे समस्त भाव व् यतन भी उन्ही को पूरा करने की ओर ही होते हैं। जिसके परिणाम स्वरूप हम बड़े गर्व से अपने परिजनों, मित्रों व् समाज में लोगों को बताते हैं कि इस जीवन में अमुक चीज प्राप्त करना हमारा उद्देश्य है।

आखिर हमारे जीवन के प्रारंभिक काल में अपने आप हमारे भीतर किस प्रकार से कोई उद्देश्य बन जाता है ? जबकि अक्सर, हमारे वर्तमान जीवन में उस उद्देश्य की ओर जाने के तो कोई हालात होते हैं और ही कोई पूर्व इतिहास ही होता है।

वास्तव में एक साधारण मानव, जीवन भर बाह्य- मानवीय-जीवन से सम्बंधित समस्त प्रकार की वास्तविक आवश्यकताओं की पूर्ति करने में ही अपनी पूरी आयु बिता देता है। और यदि उनमें से कुछ किन्ही कारणवश पूरी नहीं हो पाती तो सदा उन्ही आवश्यकताओं को संतुष्ट करने के बारे में ही निरंतर विचार करता रहता व् चिंतित रहता है।

मेरी चेतनानुसार आवश्यकताओं की पूर्ति की ज्यादा चिंता करने के स्थान पर 'ये सोचा जाए कि ढीक है "परमात्मा" यदि चाहेंगे तो हमारी कोई भी जरूरत पूरी हो जाएगी और यदि वो पूरी नहीं करतें हैं तो जरूर उसमे कोई हमारी ही भलाई छुपी है। तो ऐसा समाधान अपनी चेतना में धारण करने पर कोई भी हमारी जरूरत इच्छा में परिवर्तित नहीं हो पाएगी।

जिसके कारण हमारी मृत्यु के समय पर हमारी कोई भी इच्छा शेष नहीं रहेगी और इच्छा शेष रहने के कारण हमें 'मोक्ष' प्राप्त होने की स्थिति उत्पन्न हो जायेगी। मनुष्य का वास्तविक भौतिक जीवन आवश्यकता प्रधान है इच्छा प्रधान नहीं है। सिवाय परमात्मा से मिलने की इच्छा के।

आवश्यकताओं के बारे में रात-दिन सोचते रहने से ही वो इच्छाओं में परिवर्तित हो हमारे 'अवचेतन' में अपना स्थान बना लेती हैं। हमारे शरीर की मृत्यु के बाद भी ये समस्त इच्छाएं हमारी चेतना में समा कर हमारे ही साथ अगले जन्म में भी पहुँच जातीं हैं हमें अपनी ओर खींचती रहती हैं।

जिसके कारण हमारे अगले जन्म में भी हम जाने-अनजाने में उन्ही इच्छाओं को पूरा करने की प्रार्थमिकता बना लेते हैं और हमारे इस नए जीवन का उद्देश्य उन समस्त अपूर्ण इच्छाओं को पूरा करना ही होता है।

तो क्यों "श्री माँ" के 'निरंतर-सानिग्ध्य' की आवश्यकता के बारे में रात-दिन विचार किया जाए। और इसे प्रगाढ़ इच्छा में परिवर्तित होने दिया जाय ताकि हमारे शरीर की मृत्यु के समय भी यही इच्छा विद्यमान रहे। और यदि हमारा अगला जन्म हो तो हमारा जन्म इस 'पवित्रतम' इच्छा के साथ ही प्रारम्भ हो।"

---------------------------------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"

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