Thursday, December 14, 2017

"Impulses"--419--"सहस्त्रार के ऊपर के चार चक्र" (Four Chakra above Sahastrara)

"सहस्त्रार के ऊपर के चार चक्र"
(Four Chakra above Sahastrara)

"हममे से बहुत से सहाजियों के बीच एक चर्चा सहस्त्रार के ऊपर के चक्रों के बारे में अक्सर चला करती है। क्योंकि "श्री माता जी" ने अपने एक लेक्चर में कहा था कि सहजयोगी वही माना जायेगा जिसने सहस्त्रार के ऊपर के चार चक्रों:-

i) अर्ध बिंदु ii) बिंदु iii) वलय iv) प्रदक्षिणा आदि को स्पर्श किया है इनकी अनुभूति की है। किन्तु प्रश्न ये उठते हैं कि:-

आखिर ये चक्र हैं कहाँ ? सहस्त्रार के ऊपर क्रमानुसार कितनी दूरी पर स्थित हैंहम इनको किस प्रकार से स्पर्श कर सकते हैंये किस प्रकार से जागृत किये जा सकते हैंइनके जागृत होने पर हमें क्या प्राप्त होने वाला हैकिस प्रकार से हम इनको अनुभव करेंकैसे पता लगे कि हमने इन चक्रो को स्पर्श कर लिया है ?

"श्री माता जी" के अनुसार यदि ये चक्र हमारे सहस्त्रार से ऊपर हैं तो क्या एक और 'सूक्ष्म तंत्र प्रणाली' हमारे अस्तित्व के साथ कार्यशील है ? या गहन ध्यान के दौरान ही ये कार्य करती है जिसके गतिमान होने पर इन चार चक्रों का लाभ हमें मिलता है

ये उपरोक्त प्रश्न हममे से बहुत से अभ्यासियों के जेहन में अक्सर परिक्रमा करते रहते हैं, जिनके उत्तर के एवज में कुछ और प्रश्न हमारी चेतना में प्रगट हो जाते हैं।

जहां तक हम सभी जानते हैं "श्री माता जी" ने शायद इन चक्रों के बारे में कोई स्पष्ट वक्तव्य जारी नही किया है जिससे इन चक्रों की गतिविधि, कार्यप्रणाली, अभिव्यक्ति का पता चल सके। 

हमारे सूक्ष्म यंत्र के भीतर के चक्रो को तो हम चित्त के माध्यम से वायब्रेशन या ऊर्जा के रूप में महसूस कर लेते हैं। परंतु इन चार चक्रो को कैसे महसूस करें जबकि ये हमारे स्थूल शरीर के भीतर स्थित सूक्ष्म यंत्र में स्थित ही नही हैं।

इन की वास्तविक स्थिति को आंतरिक रूप से जानने के लिए हमें केवल और केवल गहन ध्यान की स्थिति में अपने मध्य हृदए के भीतर आसीन "श्री माँ" से मूक वार्तालाप करना होगा। 

या फिर 'निर्विचार'' ध्यान समाधि में ये सब जानने के लिए अपनी 'आत्मा' के साथ अपनी चेतना को जोड़कर अपनी 'आत्मा' के मार्गदर्शन की मदद लेनी होगी जो स्वत्: उत्पन्न(Spontaneous) होने वाली प्रेरणा के रूप में प्रगट होती है।

मेरी निम्न समझ चेतना के अनुसार सहस्त्रार के ऊपर के इन चारों चक्रों को वही सहज-अभ्यासी स्पर्श कर पाता है जो गहन ध्यान की स्थिति में बारम्बार अपनी स्थूल देह इस देह से जुड़े संसार से परे यानि अपने सहस्त्रार से ऊपर की ओर अपने चित्त चेतना को ले जाने का अभ्यास निरंतर करता रहता है।

शायद इसी अभ्यास के द्वारा हम इन चक्रो को स्पर्श कर सकते है जो हमें चेतना की विभिन्न अवस्थाओं का रसपान कराते हैं और हमें आत्मिक उत्थान प्रदान करते हैं। 

इन चारों चक्रों की अनुभूति हमारे चित्त के माध्यम से ऊर्जा की प्रतिक्रिया के रूप में होकर हमारी चेतना के विकसित होते स्तर गहन होती हमारी सूक्ष्म समझ के रूप में प्रगट होती है।

वास्तव में इन चक्रो को हम अपनी चेतना की विभिन्न अवस्था में प्रगट होने वाले लक्षणों के आधार पर महसूस कर सकते हैं। जैसे यदि हम किसी से प्रेम करने लगते हैं तो जीवन के प्रति हमारा नजरिया कुछ अलग सा हो जाता है और हमारे नजदीकी लोग हमारे हाव भाव में परिवर्तन को स्पष्ट महसूस कर सकते है।

इसका मतलब यदि हम प्रेम के बारे में बिना अनुभव किये चर्चा करें तो हम प्रेम के वास्तविक रूप को कभी भी समझ नही सकते। चाहे हमने प्रेम के विषय में अनेको ग्रंथ हो क्यों पढ़ डाले हों .

और अनेको लोगों से उनके अनुभव ही क्यों सुने हों। बल्कि प्रेम को लेकर शास्त्रार्थ कर सकते हैं जो बाद में वाद-विवाद के रूप में परिवर्तित हो जाता है और अनेको लोगों का हृदए दुखाता है।

तो आइए चलते है इस 'चेतना' की समझ के मुताबिक इन चक्रों की विशेषताओं का आनंद लेने के साथ साथ इनके गुणों को आत्मसात करने के लिए एक अन्तरावलोकन की ओर।

1)अर्ध बिंदु चक्र:--जब अभ्यासी जाने अनजाने में इस चक्र को स्पर्श करता है तो उसकी चेतना कुछ देर के लिए "श्री माँ" के साकार स्वरूप को महसूस करती है तो कुछ देर के लिए "माँ" के निराकारा स्वरूप पर केंद्रित होती है। यानि उसके चित्त के केंद्र बिंदु "श्री माँ" के दोनों ही अस्तित्व होते हैं।

ऐसे साधक/साधिका निर्विचार होने के लिए ध्यान के प्रारंभ में या ध्यान के दौरान "श्री माँ" के साकार रूप का सहारा लेते रहते हैं और उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप ऊर्जा के रूप में "उनके" निराकार स्वरूप का भी आनंद लेते रहते हैं।

ऐसी स्थिति के अभ्यासी अपने चित्त की प्रतिक्रिया को वायब्रेशन के रूप में अपने यंत्र में भी लगातार महसूस करते हुए ध्यान को आगे बढ़ाते जाते है।वे अपने चित्त को अपने यंत्र में प्रगट होने वाली ऊर्जा को महसूस करने में लगाते हुए इस ऊर्जा के अनुभव का सहारा लेते हुए ध्यान का आनंद लेते हैं।

उनका चित् अपने स्थूल शरीर में स्थित सूक्ष्म यंत्र में होने वाली हलचलों पर स्थित रहता है जिसके कारण उनका 'मन' भी विद्यमान रहता है, यानी थोड़ा बहुत देहाभास बना ही रहता है। जिसके परिणाम स्वरूप उसके अंतःकरण में "माँ" से सांसारिक या आध्यात्मिक स्तर पर कुछ कुछ प्राप्त करने की अपेक्षा बनी रहती है।

2.बिंदु चक्र:--इस अवस्था को प्राप्त होने वाले अभ्यासी का चित्त ध्यान के प्रारंभ से अंत तक केवल ओर केवल "श्री माँ" के 'निराकार' स्वरूप पर ही होता है।वो "माँ" की उपस्थिति सानिग्ध्य को केवल ऊर्जा के रूप में ही अनुभव करता रहता है। 

यानि चित्त का केंद्र बिंदु "श्री माँ" का "ऊर्जा" रूप ही होता है, उसकी चेतना हर स्थिति परिस्थिति में "श्री अरुपा" के सानिग्ध्य का निरंतर आनंद उठा रही होती है। साथ ही अपने यंत्र में एक सुखद सी निरंतर बहती बयार रूपी ऊर्जा के माध्यम से "उनके" प्रेम का आभास अपने हृदए में कर रही होती है।

जैसे एक सच्चा प्रेमी/प्रेमिका अपनी/अपने प्रियतमा/प्रियतम के प्रेम में निरंतर डूबा रहता/रहती है, ऐसे चाहने वालों को अपने प्रिय के रूप को निहारने की भी आवश्यकता महसूस नही होती। 

ऐसा अभ्यासी अपने सांसारिक जीवन के समस्त कार्यों घटनाक्रमो के दौरान इसी 'दिव्य' ऊर्जा को लगतार अपने चित्त के द्वारा आत्मसात करने की प्रक्रिया को प्रार्थमिकता पर रखता है।

यानि वो अपने जीवन के समस्त उपक्रमो में शामिल होते हुए भी "परमेश्वरी" शक्ति को बिना 'इसकी' ओर लक्षित हुए आभासित करता रहता है।

जैसे हम अपने दैनिक जीवन में अपनी नासिका के माध्यम से आक्सीजन निरंतर लेते रहते हैं किन्तु आक्सीजन ग्रहण करने की प्रक्रिया पर हमारा चित्त नही होता।

इस स्तर के साधक/साधिका अपने किसी भी चक्र या नाड़ियों के स्वच्छ रखने या करने की चिंता भावों से पूर्णतया मुक्त होते हैं क्योंकि वो जानते हैं कि उनका यंत्र "श्री माँ" की देख रेख में स्वतः ही संचालित हो रहा है। 

या यूं कहें वो इन स्वच्छता की प्रक्रियाओं नाड़ियों में सन्तुलन स्थापित करने की इच्छा से ही विरत रहते हैं।ऐसे लोग अपने को सुरक्षित करने के लिए 'बंधन' लगाना भी गवारा नही करते।

ऐसे अभ्यासी "श्री माँ" से कुछ भी अपेक्षा नही रखते हैं वरन केवल और केवल "उनके" प्रेम में डूबे रहने में ही मस्त रहते हैं।इस स्थिति के अभ्यासियों की चेतना "माँ आदि शक्ति" के साथ निरंतर बनी रहती है।

3.वलय चक्र:-ये ध्यान की ऐसी अवस्था होती है जिसके दौरान चार अलग अलग विभूतियां पूर्णतया एकीकृत हो जाती हैं। यानि साधक/साधिका, उनकी शुद्ध इच्छा, साधना साध्य एक दूसरे में विलीन हो जाते हैं।इन चारों की पृथकता एक दूसरे में समा जाती हैं।

यानि ध्यानी, ध्यान, ध्यान की प्रक्रिया एवम ध्यानी के 'आराध्य', चारों ही एक रूप हो जाते हैं, और परिलक्षित होती है एक प्रेममयी एकाकारिता,
इतनी सुंदर स्थिति में हमारा चित्त हमारी स्वम् की चेतना में समा जाता है और हमारी चेतना 'चेतन' का हिस्सा बन जाती है और 'चेतन', 'अचेतन' में सिमट जाता है।

इस स्तर पर आने वाले अभ्यासी ध्यान के दौरान अपने देहाभास से मुक्त हो जाते हैं और उनके भीतर 'दिव्य आनंद' हिलोरे लेने लगता है।यानि मन, शरीर, 'आत्मा' "परमात्मा" एक हो जाते हैं। उनको ऐसा प्रतीत होता है मानो वे पूर्णतया अस्तित्व विहीन होकर सदानंद में परिवर्तित हो गए हों।
इस विलक्षण अवस्था में अभ्यासी की चेतना में सुखद विस्मृति छा जाती है।

उसको ये भी याद नही रहता कि वो ध्यानस्थ है, उसको ये भी स्मरण नही रहता वो किस को लक्षित करके ध्यान में बैठा/बैठी है। जैसे यदि किसी जलते हुए दीपक को गहन अंधकार में दूर से देखें तो केवल और केवल प्रकाश ही नजर आता है।

जबकि उस प्रकाश में दीपक, बाती, तेल और अग्नि का योगदान भी होता है। परंतु ये पृथकता कहीं भी नजर नहीं आती किन्तु इस 'एकात्मकता' का परिणाम 'प्रकाश' ही परिलक्षित होता है।

4.प्रदक्षिणा चक्र:-जब गहन ध्यान की अवस्था में अभ्यासी पूर्ण अस्तित्व विहीनता के अभ्यास की स्थिति में 'चेतन' में परिवर्तित हुई अपनी चेतना के माध्यम "परमपिता" के साथ तादात्म्य स्थापित कर लेता है। 

जो इस ब्रह्मांड से परे अपनी सम्पूर्ण रचना से निर्लिप्त विलग इस रचना को संचालित करने के लिए ऊर्जा के 'महापुंज' रूपी 'उपग्रह-स्वरूप' में परिक्रमा करते हुए अपनी 'ऊर्जा' को प्रवाहित कर रहे होते हैं।

इस प्रवाहित होती हुई ऊर्जा में असंख्य शक्तियां अनंत ज्ञान समाया होता है जो गहन ध्यान समाधि के निरंतर अभ्यास द्वारा मानव की चेतना को 'अचेतन' के स्रोत तक पहुंचने के योग्य बनाता है। 

इस अवस्था तक विकसित हुआ अभ्यासी अपनी 'उच्च स्थिति' को प्राप्त चेतना के माध्यम से इस 'दिव्य ऊर्जा' को अन्य सच्चे अभ्यासियों के यंत्र में प्रेषित करने के योग्य हो जाता है ताकि वे भी इस अवस्था तक विकसित हो पायें।

वास्तव में वो केवल "परमात्मा" की इच्छा से ही संचालित होता है, उसके भीतर किसी भी प्रकार का भय, आकांशा, मेहत्वाकांशा, इच्छा,अभिलाषा, अपेक्षा झुकाव विद्यमान नहीं होते। 

प्रदक्षिणा शब्द के दो पूरक अर्थ होते है।जिसमें पहला अर्थ है चक्कर लगाना यानि उपग्रह की तरह इस रचना के ऊपर परिक्रमा करते हुए "परमपिता"

और दूसरा इस प्रदक्षिणा शब्द की संधि विच्छेद करने पर दो शब्दों में प्रगट होता है। यानि प्रदक्षिणा=प्र=पार ब्रहम् +दक्षिणा=देना। 

यानि प्रदक्षिणा=परिक्रमा करते हुए "परमात्मा" से अपनी उच्च-चेतना के जरिये 'ऊर्जा' प्राप्त करना वास्तविक सुपात्रों के यंत्रों में उनकी विकास प्रक्रिया को जारी रखने के लिए अपनी शुद्ध इच्छा की उपस्थिति में अपने चित्त के माध्यम से प्रवाहित करते जाना।

किन्तु इस स्तर की ऊर्जा को ग्रहण कर केवल वही सुयोग्य यंत्र इस स्थित तक विकसित हो पाएंगे जिनके हृदए पूर्णतया स्वच्छ होंगे। 

यानि जिनके भीतर लोभ, ईर्ष्या, राग, द्वेष, वैमनस्य, घृणा, अहंकार, प्रतिस्पर्धा एवम नकल करने की प्रवृति नही होगी।वरन प्रेम, करुणा, दया वात्सल्य की अनुभूति विद्यमान होगी।

तो ये था सहसत्रार के ऊपर स्थित चार चक्रों का आभास, आशा है आप सभी ने कभी कभी, कहीं कहीं ध्यान यात्रा के दौरान कुछ देर तक अथवा क्षणिक रूप में इन उपरोक्त अवस्थाओं का आनंद जरूर उठाया होगा।

यदि नहीं तो कोई बात नही, यदि आपके भीतर सच्ची जिज्ञासा मौजूद है तो आज ही से कमर कस कर गहन ध्यान अभ्यास में जुट जाइये और "श्री माँ" के समक्ष अपनी ये शुद्ध इच्छा प्रगट कर दीजिये। इस चेतना की "श्री माँ" से सच्चे हृदए से प्रार्थना है कि "श्री माँ" आपकी शुद्ध इच्छा अवश्य पूर्ण करेंगी।"

----------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"

1 comment:

  1. जै जै श्री माता जी ...हमने भी श्री माता जी का वो लेक्चर सुना है..आपने उसका बहुत अच्छे से वर्णन किया है ..धन्यवाद

    ReplyDelete