Tuesday, January 16, 2018

"Impulses"--426--"नाड़ी व् चक्र-बाधा निवारण"

"नाड़ी व् चक्र-बाधा निवारण"

"हममे से ज्यादातर सहजी अपने चक्रों नाड़ियों की पकड़ के प्रति काफी चिंतित रहते हैं। इसके निवारण के लिए हम अक्सर अनेको प्रकार की क्लीयरिंग प्रक्रिया में लगे रहते हैं अपने कीमती समय ऊर्जा को जाया करते रहते हैं। कई बार तो चक्रो की पकड़ की चिंता भय में परिवर्तित होकर हमारे अवचेतन में भी प्रवेश कर हमारी निद्रा को भी प्रभावित कर देती है।

जिसके कारण रात्रि में सोते सोते अचानक से उठ जाते हैं और पुनः अनजाने भय से ग्रसित होकर पुनः संतुलन चक्र शोधन प्रक्रिया में संलग्न हो जाते हैं। किन्तु काफी समय के बाद भी समस्त प्रकार के उपायों को अपनाने के बाद भी हमें अपनी नाड़ियां चक्र बाधित ही प्रतीत होते है। जिसका एहसास हमें उद्विग्नता निराशा की ओर धकेलता जाता है।और निराशा उद्विग्नता हमें हताशा की तरफ ले जाती है।

और हताश होकर हम भीतर ही भीतर स्वम् को अक्षम हीन समझने लगते हैं जिसके कारण वास्तव में हम 'लेफ्ट साइडिड' हो जाते हैं। आखिर इस समस्या से निजात पाने के लिए और क्या किया जाय ये हमें सूझ ही नही पाता और हमारी चेतना इस भंवर में निरंतर गति करती हुई अधोगति की ओर अग्रसर हो रही होती है।

यदि हम गहन ध्यानस्थ अवस्था में इस विषय पर कुछ समय चिंतन करेंगे तो पाएंगे कि हमारे चक्र हमारे मन के किन्ही भौतिक स्थितियों में अटकने के कारण ही बाधित होते हैं।

वास्तव में हमारा मन अपने स्मृतिकोष में उपलब्ध सूचनाओं के आधार पर दाहिने आगन्या की सहायता से तूलना, गड़ना, आंकलन, विश्लेषण निरंतर करता रहता है जिसके परिणाम स्वरूप हमें जाने अनजाने में किन्ही भौतिक स्थितियों, वस्तुओं, रिश्तों का अभाव महसूस होता है। और यही किंचित अभाव का एहसास हमारे उस क्षेत्र के चक्र में बाधा/पकड़ को उत्पन्न करता है।

जब हम वर्तमान जीवन को हृदय से मन के भ्रामक आंकलन के कारण स्वीकार नही कर पाते तभी हमारी नाड़ियां असंतुलित होती हैं। और किसी विशेष भौतिक संसाधन या भावनात्मक रिश्ते की कमी उससे जुड़े उस खास चक्र को बाधित कर देती है। जब उक्त कमी का आभास निरंतर लंबे समय तक बना रहता है तो उस चक्र से संबंधित अंग में बीमारी लगनी प्रारम्भ हो जाती है।

वास्तव में जैसा भी हमें वर्तमान जीवन मिला है वो "परमपिता" की ही अनमोल देन है। और "उनके" द्वारा प्रदत्त इस अमूल्य जीवन की अज्ञानता के वशीभूत होकर हमारे द्वारा किन्ही तु'च्छ भौतिक' स्थितियों के कारण उपेक्षा करने,तिरस्कार करने, या अन्यों से तूलना करने के कारण हमारे सूक्ष्म यंत्र पर स्थित देवी-देवता नाराज हो जाते हैं। 

और उनकी नाराजगी चक्रों नाड़ियों पर पकड़ के रूप में परिलक्षित होती है। क्योंकि समस्त देवी-देवता "परमात्मा" की देन पर प्रश्न चिन्ह लगाने या भौतिकता से आच्छादित मांग करने से क्रोधित ही हो जाते हैं।इसे वो "ईश्वर" की अनमोल भेंट का अपमान ही समझते है।

यदि हम अपनी इस समस्या से परे जाना चाहते है तो हमें केवल एक छोटा सा कार्य करना होगा और वो है अपने मन को अपने मध्य हृदय में स्थापित करना। इसके लिए हमें कुछ दिन तक लगातार अपने मन को अपने हृदय में "श्री माँ" के साथ रखने का अभ्यास करना होगा जब तक हमारा मन हृदय में रहने का अभ्यस्त हो जाये।

मेरी चेतना के अनुसार यदि हमने इस निरंतर किये जाने वाले अभ्यास में सफलता पा ली तो निश्चित रूप से हमारे चक्र नाड़ियां किसी भी स्थिति परिस्तिथि में कभी भी नहीं पकड़े जाएंगे। क्योंकि मन के हृदय में स्थित होते ही हमारा आगन्या निष्क्रिय हो जाता है यानी साक्षी हो जाता है और "माँ" का प्रेम हमारे सम्पूर्ण सूक्ष्म तंत्र में प्रवाहित होने लगता है।

जिसके परिणाम स्वरूप हमारा मन किसी भी प्रकार के अभाव कमी को महसूस ही नही कर पाता और ही हमारे चक्र पकड़ते हैं। अनादि काल से हम सुनते रहे हैं कि दो प्रकार के 'भगवान' होते है, एक हमारे दिल में रहते है और दूसरे "ऊपर वाले" के रूप में ऊपर रहते हैं।

जब ध्यानस्थ अवस्था में हम अपने चित्त को अपने मन कुण्डलिनी के साथ अपने सहस्त्रार पर रखते हैं तो "ऊपर वाले" का 'अंश' प्रेम-ऊर्जा बन कर अनंत ब्रहम्माण्ड से हमारे सहस्त्रार से प्रवेश कर हमारे दिल में रहने वाले 'भगवान' के साथ रहने के लिए जाता है। इन दोनों 'भगवानो' के मिलन से ही दिब्य योग घटित होता है और हमारी जीवात्मा प्रसन्नता से अभिभूत हो जाती है।

और जब हम इस 'विलक्षण' योग के घटित होने के बाद अपने मन को हृदय में रखने के अभ्यस्त हो जाते हैं तो हमारे कोई भी चक्र नाड़ी कभी भी नही पकड़ती है। क्योंकि इन दोनों "भगवानो" के प्रेम से हमारा मन आनंदित रहने लगता है जिसके परिणाम स्वरूप हमारे भीतर एक स्थाई आत्मसंतुष्टि का अनुभव निरंतर बना ही रहता है।

और आत्मसंतुष्टि की सुखद बयार हमारे अन्तः करण को आनंदित रखती है जिससे किसी भी प्रकार की कमी का अनुभव हमारे भीतर में कभी भी प्रगट ही नहीं हो पाता। और समस्त चक्र नाड़ियों के देवी देवता भी सदा प्रसन्न रहते हैं और हमें विभिन्न रूपों में अपनी 'विभूतियों' से आशीर्वादित भी करते रहते हैं।"
------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"

No comments:

Post a Comment