Monday, January 22, 2018

"Impulses"--428--"पूर्ण समर्पण के मार्ग की विभिन्न बाधाएं"

"पूर्ण समर्पण के मार्ग की विभिन्न बाधाएं"

हममे से बहुत से साधक कई सालों से सहज-ध्यान से जुड़े होने पर भी किन्ही बातों/भावनाओं/इच्छाओं को लेकर अपने ही अन्तःकरण में निरंतर संघर्षशील रहते हैं। जिसके कारण वे अपने अस्तित्व को "परमेश्वरी" के "श्री चरणों" में पूर्णरूप से समर्पण करने में असमर्थ रहते हैं।

जिसके फलस्वरूप उनको अपने भीतर में आनंद की अनुभूति नही हो पाती और उनके यंत्र में सदा चक्रों के कैच नाड़ियों के असंतुलन की समस्या लगातार बनी ही रहती है। जिसका दुष्परिणाम उनके गिरते हुए स्वास्थ्य और रोगी मानसिकता के रूप में प्रगट होता है।

जब हम जाने अनजाने में उन बातों या स्थितियों को ग्रहण करने की सोच रहे होते है जो वास्तविकता में वर्तमान समय के सत्य के अनुकूल नही हैं।
तो उन बातों की नकारात्मक प्रतिक्रियाएं हमारे शरीर को कमजोर करती हैं और हमारे मन को रुग्ण कर देती हैं।

वास्तव में हमारे शरीर के संचालन का भार हमारे मस्तिष्क पर ही होता है जो केवल और केवल सत्य को ग्रहण कर ऊर्जा शक्ति बढ़ाने वाले द्रव्यों को हमारी नसों नाड़ियों में स्त्रावित करता है।

इसके विपरीत यदि हम अज्ञानता में असत्य या भ्रामक बातों को अपने मन में धारण कर लेते हैं तो हमारा मस्तिष्क विषैले तत्वों को हमारी शिराओं धमनियों में स्त्रावित करने लगता है जिससे अनेको मानसिक शारीरिक व्याधियां उत्पन्न होने लगती हैं।

जो हमारे ध्यान के विकास को अवरुद्ध करने के साथ साथ हमारे साधारण मानवीय जीवन को भी क्षति पहुंचाती हैं। जिसकी वजह से हम निरंतर अनेको प्रकार की मानसिक,शारीरिक, समाजिक आध्यात्मिक परेशानियों से जूझते रहते हैं और आंतरिक रूप से विकसित नही हो पाते चाहे हम घंटो "श्री माँ" के 'अल्टार' के समक्ष क्यों बिताते हों।

अब जरा एक नजर डाल कर उन चीजों का अवलोकन करते हैं जिनके कारण हम पूर्ण समर्पण नहीं कर पा रहे हैं।
आखिर वो क्या भावनाएं हैं जो हमारे समर्पण के आड़े रही हैं ?

क्या हमारे भीतर किसी के द्वारा किये गए अपने अपमान की अमिट स्मृति के स्थाई होने के कारण उनके लिए कुछ रोष है ?

क्या अपने मन के मुताबिक सोची गई बात के पूर्ण हो पाने की टीस है ?

क्या स्वम् को अन्य लोगो के मुकाबिले कमतर आंकने की छटपटाहट तो नही ?

या किसी बेहद अपने के दूर होने के एहसास की पीड़ा का सदा रहने वाला भाव तो नही ?

या किसी को सदा के लिए खोने का नासूर बना हुआ हृदए का जख्म अड़चन डाल रहा है ?

या किसी से अपने को श्रेष्ठ साबित करने की अकुलाहट भीतर में कुलबुला तो नही रही ?

या दुनिया को कुछ बन कर साबित करने की तीव्र इच्छा तो बाधक नही बन रही ?

या महान बनने की आकांशा के विचार तो रुकावट नही डाल रहे ?

या सभी को अपनी बातों से मंत्रमुग्ध कर अपने हिसाब से सबको चलाने की महत्वाकांशा भीतर में उमड़-घुमड़ तो नही रही ?

जो भी इस प्रकार के भ्रामक कारण अपने मन के कोनों में महसूस हों, उन सभी कारणों को प्रतिदिन गहन ध्यानस्थ अवस्था में एक एक करके "श्री माँ" के "श्री चरणों" में समर्पित करते जाएं और इस प्रकार के मोहजाल में जकड़ने वाले विभिन्न बंधनो से मुक्त होने का आनंद उठाएं।"


--------------------------------------Narayan

"Jai Shree Mata Ji"


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