Friday, October 26, 2018

"Impulses"--466--"जो ईश्वर का हुआ वो किसी का भी न रहा"


"जो ईश्वर का हुआ वो किसी का भी रहा"

"ये बहुदा देखने में आता है कि कुछ सहजी परिवारों के सदस्यों सहजी रिश्तेदारों के मन मस्तिष्क में उस परिवार से जुड़े किसी बाहरी सहजी के लिए वैचारिक भिन्नता परिलक्षित होती है।

मानो किसी सहजी परिवार का मुखिया/बड़ी उम्र का सहजी रिश्तेदार किसी सांसारिक रूप से सम्पन्न/प्रभावशाली स्टेटस के सहजी से किन्ही सांसारिक लाभों/वर्चस्व के कारण जुड़ा है।

और वह सम्पन्न/प्रभावशाली सहजी किसी अन्य गहन सहजी के लिए अपने भीतर में पलने वाली ईर्ष्या/ अहंकार/तुलना/हीनता आदि भावनाओं से ग्रसित होकर उस सहजी परिवार के मुखिया/बड़ी आयुवाले सहजी पर उस अच्छे सहजी की झूठी बुराइयों कर कर के दूरी बनाए रखने/सम्बंद समाप्त करने के लिए दवाब बनाता है।

और उस ईर्ष्यालु सहजी के प्रभाव के चलते वह मुखिया/बड़ी आयु वाला सहजी उस "माँ" के गहन सहजी के साथ परिवार के अन्य सदस्यों से भी दूरी बनाने के लिए जोर डालता है।

तो उसके परिवार के कुछ सदस्य के हृदय अक्सर उस बड़े सहजी/मुखिया की बात नहीं मान पाते जिसके कारण उनके बीच वैचारिक भिन्नता उत्पन्न होने लगती है और उनके आपसी रिश्ते दरकने लगते हैं और सम्बन्धों में खटास भी आने लगती है।

क्योंकि वह मुखिया/रिश्तेदार अपने बड़प्पन प्रभाव के नाते अपने उन सभी पारिवारिक सहजी सदस्यों को अपने विचारों के अनुरूप ही ढालना चाहता है और उनके ढल पाने के कारण काफी खिन्न हो जाता है।

वास्तव में वह मुखिया/बड़ी उम्र का रिश्तेदार घोर अज्ञानता के चलते "श्री माँ" के "श्री चरणों" में आने के उपरांत भी वही पुराना सांसारिक रवैया अपनाए हुए है।

उसको आंतरिक रूप से अभी तक यह समझ नहीं आया है कि सभी जीवात्माओं को, चाहे वो किसी भी एक ही परिवार के सदस्य हों, केवल और केवल "श्री माँ" ही उनके हृदयों को प्रेरणा देकर संचालित करती हैं।

एवम उन सभी सहजियों के उत्थान के लिए, उनको और गहन बनाने के लिए, उन्ही की चेतना की अवस्था के अनुसार अपने किसी सुयोग्य यंत्र को उनके निकट लाती रहती हैं ताकि उनकी चेतना का निरंतर विकास होता रहे।

किन्तु इस सत्य से वह मुखिया/बड़े रिश्तेदार पूर्णतया अनभिज्ञ होने के कारण अपने उथले चेतना के स्तर से ही संचालित होते हैं अन्य पारिवारिक सदस्यों के उत्थान में अवरोध ही बनते हैं।

वास्तव में हमारे परिवार/रिश्तेदारों के रूप में जन्मी हुई जीवात्मा जब "श्री चरणों" में 'शरणागत' हो जाती है तो हमें अपने सांसारिक अस्तित्वों को उनके आध्यात्मिक मार्ग की बाधा नही बनने देना चाहिए।

क्योंकि उन जीवात्माओं के आगे बढ़ाने का मार्ग स्वम् "श्री माँ" ही प्रशस्त कराती हैं। और यदि कोई, कितना भी महत्वपूर्ण सांसारिक रिश्ता आध्यात्मिक विकास मार्ग में बाधा बनने का प्रयत्न करेगा तो वह एक एक दिन निश्चित रूप से छिन्न भिन्न हो जाएगा।

इस चेतना के समक्ष ऐसे बहुत से लोग हैं जो ऐसा कर चुके हैं, और जिनका परिणाम अत्यंत पीड़ा दायक रहा है।

अतः मेहरबानी करके अपने किसी भी सहजी पारिवारिक सदस्य/रिश्तेदार पर अपने सांसारिक प्रभाव का उपयोग करें अन्यथा भारी विपत्तियों के लिए तैयार रहें।

क्योंकि "श्री माँ" की दिव्य शक्तियों को यह नकारात्मक चेष्टा कदापि स्वीकार नहीं होती कि किसी भी जीवात्मा की आध्यात्मिक प्रगति में किसी भी प्रकार का कोई व्यवधान डाले।

ये 'अलौकिक शक्तियां' ऐसे अवरोधों को पूर्णतया तहस नहस कर देती हैं और ईर्ष्यालु/अहंकारी/शुष्क/दुष्ट प्रवृति के सहजियों को बेहद कष्टकारी सजा भी देती हैं।

एक बार 'शरणागत' होने के बाद हमारे ही पारिवारिक सदस्य/रिश्तेदार "श्री माँ" की सन्तानो के रूप में परिवर्तित होकर हमारे साथ चलने वाले बाहरी सहजियों की तरह 'सहज यात्री' बन जाते हैं।

जिनके अस्तितित्व सहज से सम्बंधित इच्छाओं, कार्यों, मेलमिलाप गतिविधियों का हमें उतना ही सम्मान करना होगा जैसे अन्य सहजियों का करते हैं।

अन्यथा एक बात सुनिश्चित है कि हमारी वो दुर्दशा होगी कि जिसको देख देख कर अन्य लोग ये मूर्खतापूर्ण कार्य कभी करने की शिक्षा प्राप्त करेंगे।

ऐसे ईर्ष्यालु नकारात्मकता से घिरे सहजियों के प्रभाव में आने वाले तथाकथित ये मुखिया/बड़े रिश्तेदार ये भी नहीं समझ पाते कि वो अपने पारिवारिक सदस्यों के साथ साथ स्वम् के आध्यात्मिक कल्याण के रास्ते को भी बंद कर रहे हैं।

जब भी कोई सहजी किसी भी अन्य सहजी से किसी सहजी की झूठी-सच्ची बुराई को सुनकर बिना अपने स्वम् के अनुभव के बुराई के शिकार सहजी से दूरी बनाना प्रारम्भ कर देता है।

तो उसके हृदय में आसीन "माँ जगदम्बा" उससे रुष्ट होने लगती हैं "जिनकी" नाराजगी के चलते "हृदय चक्र" पर बैठे हुए ग्रह भी क्रोधित होने लगते हैं जिसके परिणाम स्वरूप और उसका मध्य हृदय चक्र बिगड़ जाता है।

और जब हृदय चक्र गड़बड़ा जाता है तो सहस्त्रार अन्य चक्र भी गड़बड़ा जाते है। क्योंकि मध्य हृदय चक्र ही वो मुख्य चक्र है जो समस्त 21 के 21 चक्रो, तीनो नाड़ियों पांचों तत्वों को पोषित करता है।

जब मध्य हृदय चक्र खराब हो जाता है तो मानव के भीतर अनेको प्रकार के भय उत्पन होने लगते हैं और भयभीत मॉनव 'प्रकृति परमात्मा' विरोधी कार्य भी करना प्रारंभ कर देता है जिससे और भी स्थिति खराब होने लगती है।

जिसके फलस्वरूप उस मानव को अनेको रूपों में सजा मिलनी प्रारम्भ हो जाती है चाहे वो कितने ही सालों से 'सहज योग' को अपनाए हुए हो।

सहज योग में होने का ये मतलब कदापि नहीं हैं कि कोई सहजी अपने मानवता विरोधी कुकृत्यों के परिणामों से बच जाएगा।उसको आम लोगों से भी कहीं अधिक सजा मिलनी तय है।

जैसे 'परमात्म' शक्तियां लोभ, ईर्ष्या, अहंकार, आने वर्चस्व को बनाये रखने के लिए किसी निर्दोष मनुष्य की हत्या करने पर जो सजा देती हैं।

उससे कई गुना अधिक सजा किसी सच्चे "सत्य के खोजी" के मार्ग की बाधा बनने/उसको सताने चेष्टा करने/उसको अपमानित करने का प्रयास करने/ उसकी अन्यंत्र बुराई के द्वारा अन्यों की नजरों में गिराने की कोशिश करने के परिणाम स्वरूप मिलती है।

अतः सम्भल जाना चाहिए यदि गलती से भी हम केवल किसी की सुनिसुनाई बातों के चक्कर में पड़कर, बिना किसी अपने व्यक्तिगत अनुभव के किसी "श्री माँ" के बालक की उपेक्षा करें अथवा उसको गिराने का प्रयास करेंगे तो निश्चित रूप में हम कहीं के नहीं रहेंगे।

फिर भले ही हम सहज-समाज में अत्यंत सम्मान पा जाएं अथवा अपनी अच्छी प्रतिष्ठा बना लें किन्तु भीतर ही भीतर हम खाली कनस्तर की तरह ढप ढप ही कर रहे होते हैं।

साथ ही हमारे भीतर ही भीतर एक निरंतर चलने वाली एक आंतरिक टूटन बनी ही रहती है।जिसके कारण ऐसा सहजी ऊपर से तो सामान्य नजर आता है किंतु अन्तःकरण में एकदम खोखला होता जाता है।

इस बुरी स्थिति से बचने का एक मात्र उपाय है अपने मध्य हृदय सहस्त्रार में ऊर्जा को निरंतर महसूस करते रहना।

जो हमारे हृदय को इतना उन्नत प्रेममयी बना देती है कि हमारे हृदय से निरंतर प्रेम का प्रवाह चलता ही रहता है जो किसी के भी द्वारा की गई बुराई/बुरी भावनाओं को अपने साथ बहा ले जाता है उनको नष्ट कर देता है।"

-------------------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"


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