Tuesday, July 27, 2010

अनुभूति-8 "श्री माँ कहाँ रहती हैं"

अनुभूति--8 "श्री माँ कहाँ रहती हैं" 25.12.2006

भाग-1
पूछा हमसे इक सहजन ने इक दिन, श्री माँ कहाँ रहती हैं,
भाव में शांति, चित्त में स्थिरता रखकर हम चहके ,
हर पल हर घडी हर बच्चे के साथ वो होती हैं,
आंख में हैरत, बात में अचरज भरकर वो बोले ,
ये भी भला कोई बात होती है,
हृदय में प्रेम, चेहरे पर मुस्कराहट रखकर हम यूँ बोले,
की क्या बताएं भैया.................

1) लेती हैं साँस जब श्री माँ तो, हमें वायु प्राण मिलती है,
जिस्म के जर्रे जर्रे में, इक सिहरन सी मचलती है,
होता है कम्पन एव स्पंदन, समस्त नाड़ियों व् चक्रों में,
बहती है इक स्फूर्ति धरा, सभी शिराओं व् धमनियों में,
स्थिर सा हो जाता है चित्त व् मन, सहस्त्रार की झंकार में,
सिमटता सा प्रतीत होता है विराट, अपने ही ब्रहमांड में,
लगता है मानो समस्त देव व् गण, खड़े हों इक कतार में,
रुक जाता है चक्र काल का भी, ऐसे ही शुभ अवसर पर,
तब आती हैं "माँ आदि", सवार हो अपने रथ पर,

2) मुस्कराती हैं जब श्री माँ ब्रह्म में, तब भोर होती है,
भरी निद्रा से उठकर चिड़ियाँ, मस्त हो चह-चाह उठती हैं,
तब कहीं जाकर कलियों में भी , इक जान सी पड़ती है,
कोमल पत्तो की सुखद गोद में, ओस की बूँदें मचल उठती हैं,
गुनगुनाते भोंरे चल पड़ते हैं, मुस्कुराते फूलों की ओर ,
झुक जाती है फूलों की भी डाली, होकर भाव विभोर,
तब उठता अलसाया सा सूरज , दूर छितिज की ओर,

) खिलखिलाती हैं जब "श्री माँ " गगन में, तब धुप निकलती है,
तब कहीं जाकर वृक्षों व् पोधो की, थमी साँस सी चलती है,
उस क्षण इनकी सुंदर पत्तियां, भोजन ग्रहण करती हैं,
मुस्कराते खेतों के चौड़े सीनों पर, लहलाती बालें पका करती हैं,
हृदय पर धरती के जमी नमी फिर, आवारा बादल बनती है,
कड़ाके की सर्दी में ठिठुरते जिस्मों को, राहत तब मिलती है,
गर्मी की तपती हुई दुपहरी में, नकारात्मकता जल जल कर मरती है,

) इशारा कर बुलाती हैं "श्री माँ"तो, साँझ हुआ करती है,
समस्त प्राणी सकुशल वापस आयें, ये माएं दुआ करतीं हैं,
ग्राम ,ग्राम के चौपालों पर , बच्चों की टोली विचरती है,
सागर के गहरे हृदयों पर, मौजें किलोल करती हैं,
नगरों ,ग्रामों के घर द्वारों से , धूप की सुगन्धि उठती है,
दूर दूर पेड़ों के झुरमुट से , गूँज कलरव की उठती है,
इस क्षण थका मादा सा सूरज , अलविदा कहता है,
मंद, मंद मुस्कराहट लिए , तब चन्द्रमा निकलता है,
अंत में फैली लालिमा भीकहीं खो सी जाती है,
नतमस्तक होकर प्रकृति देवी , तब संध्या करती है,

) डूब कर याद में "पिता श्री" की जब, "माँ" अँखियाँ बंद करती हैं,
तब ये जानो मेरे भैया , रात हुआ करती है,
बन, बन कण परम चैतन्य के, जगमग करते हैं तारे,
देख बच्चों को झिलमिल करते, चन्द्रमा भी निहारे,
लिपट कर आँचल में "माँ रात्री" के, सोते हम बच्चे सारे,
उतरकर गहरे अवचेतन के, दृश्य देखें न्यारे,
कभी मुस्काते कभी बुदबुदाते, लगते कितने प्यारे,
कभी कभी तो उठकर निद्रा में, कर जाते पार घर द्वारे,
आकर स्वप्न में "श्री माँ" हमारे , ले जाती साथ अपने, द्वारे द्वारे,
स्वप्न में भी हम तो सोचें रे भैया, कैसे कैसे हैं ये दिव्य नज़ारे,
कभी गोद नें बैठाती, वो कभी हमें सहलाती, कर देती हमारे वारे न्यारे,
कैसा खेल है ये अजीब प्रारब्ध का, फैला पावं पसारे,
यही वो "पिता" हैं, यही वो "श्री माँ" हैं, जो इन  सब से पार उतारे.

भाग-

) फिर भी समझो तो मेरे भैया, झांको जरा हृदय में,
दिव्य दर्शन होंगे "श्री माँ" के , गर उतरे गहरे में,
समस्त रसों में वही विचरती, समस्त मनो भावों में, वो रहा करती,
समस्त नकारात्मकता उनसे चलती, समस्त देव गणों की टोली उनसे मिलती,
समस्त संतों की करुणा में रहती , समस्त ज्ञानियों के ज्ञान में वो बसती,
समस्त त्यागियों के त्याग की वो शक्ति, हर भक्त के हृदय में निवास वही करतीं,
निराकार से साकार तक, हर काल में वहीँ हैं मिलतीं,
बन कर गुरु हर वक्त में वक्त का, नए नए धर्मों को वही हैं घड्तीं,
रचना से लेकर संसार तक, सारा उत्तर्दाइत्व स्वम ही रखती,

) हर मानव की विभिन्न इच्छा बनकर, अंत में उसकी तुष्टि करतीं,
कुछ कर दिखाने की इच्छा में वो होतीं
कुछ पाने की ललक में वो बसतीं,
कुछ खोने के डर में वो रहतीं, खोकर पुनः पाने की तीव्र इच्छा में वो होती,
कभी गहरे दुःख से वो हमें रुलातीं
कभी उदासी बन वो हम पर छा जातीं,
कभी देकर ढाढस हमें दुलारतीं,कभी सपना बन वो हमें गुद गुदातीं, ,
कभी बन सफलता हमें उकसाती
कभी बन हंसी वो हमें झंकृत करतीं,
कभी उठातीं कभी गिराती, जीने की इच्छा से हमें निर्लिप्त बनातीं,
खेल खेल में हमें शिक्षित कर जातीं,

) बन नाकाराक्त्मकता हमें वो सजा दिलांती, बन फ़रिश्ता हमें पुरुस्कृत करांती,
दिखाकर भय हमें भूत राक्षसों का, उनसे लड़ना वो हमें सिखातीं,
सिखाकर बंधन हमें प्रेम का , हृदय से वो हमें लगातीं,
सिखाकर हमें तकनीक सहजयोग की, पंचतत्वों का उपयोग सिखाती,
आकर रूप में हर देवता के, जीवन साधकों का धन्य कर जातीं,
उत्पन्न कर भ्रम हममे मोक्ष का, भव सागर से पार कराती,
देकर सहस्त्रों कष्ट वो हमें, इस इच्छा से भी वही हटातीं,
मुक्त कर इच्छा से हमें मुक्ति की, अनुचर वो अपना हमें बनातीं,
समर्पण कराकर हमसे हमारा , हमारे यंत्र पर वही राज करतीं,
जगाकर ज्ञान वो हममे अपना, हमारे मुखारविंद से वही बोल जातीं,
उतार कर धाराओं को अपनी, शब्दों में हमारे
महामंत्र हमसे वहीं हैं बुलवातीं,

) कभी हिलाती कभी दुलातीं, समस्त चक्रों को वही हैं चलातीं,
देकर स्पंदन सहस्त्रार में हमारे, अपनी उपस्तिथि दर्ज करातीं,
बनाकर माध्यम हमें वो अपना, सबकी कुंडलनिया खुद ही उठातीं,
बनाकर एककारिता हमसे वो अपनी, अपनी सृष्टि स्वम ही चलाती,
मथकर सागर भव का हमारे, नीलकंठ वो हमें ही बनातीं,
कहीं से वो आती कंही वो जाती, हमारे अंतस में वो जाग जाती,
बनाकर अंग प्रत्यंग वो हमें अपना , विराट शरीर में अपने हमें "वो" समातीं.

---------------नारायण

"जय श्री माता जी"


नोट:- तो ये था मेरी नज़र में "श्री माँ" का वास्तविक रूप, आशा है आप सबको पसंद आया होगा.




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