Monday, January 2, 2017

"Impulses"---328---"नव-वर्ष / नव-हर्ष"


"नव-वर्ष / नव-हर्ष"

"नववर्ष शब्द दो शब्दों व् चार वर्णों से मिलकर बना है यानि नव==नवीन=नया, व्=वरण=अपनाना और
वर्ष=व्=व्याप्तर्ष=हर्ष=प्रसन्नता।

यानि नवीनता में समाये 'हर्ष' के साथ हमारे जीवन में घटित होने वाले नए पलों का स्वेच्छा से वरण करना यानि हृदय से एक नए अंदाज में स्वीकार कर "परमात्मा" के द्वारा प्रदान किये गए इस मानवीय जीवन का भरपूर आनंद उठाना।

नवीनता की इस नव-बेला में, नव-पलों, नव-भावो, नव-अनुभूतियों, नव-उमंगों, नव-योजनाओं, नव-श्रृंगार, नव-रसों, नव-स्वादों, नव-आशाओं, नव-सृजन एवम नव-चिंतन से आच्छादित हृदए से ओतप्रोत ये 'चेतना' समस्त 'जागृत चेतनाओं' को नव-वर्ष '2017' के लिए अनेकानेक शुभकामनाएं प्रेषित करती है।

"परमपिता परमेश्वर" के द्वारा प्रदत्त इस 'अनमोल जीवन' को हर रूप में सार्धक बनाने के लिए "परमेश्वरी" से हार्दिक अनुग्रह व् प्रार्थना करती है कि, "मानव देह में उपस्थित समस्त जीवात्माओं को उनका अंतिम लक्ष्य यानि 'मोक्ष' प्राप्त हो और सभी मुक्त चेतनाएं इस रचना के सुव्यवस्थित संचालन में "परम माता" के लिए अपनी भागीदारी प्रस्तुत कर सकें।

"माँ सर्वेश्वरीआप सभी के हृदयों में 'आनंदसंतुष्टि व् आत्मज्ञानके 

दीपकों को प्रज्वलित कर आप सभी के अन्तः कारणों को 'आलो

कितकरें ताकि आप सभी का ये 'पुनर्जन्म' सार्थक हो सके।"

यदि हम गहनता से चिंतन करके देखें तो हम पाएंगे कि हमारी चेतना में स्थित नवीनता के प्रति हमारा आकर्षण व् झुकाव आंतरिक व् नैसर्गिक है। ये कहीं से कहीं तक भी हमारे मन में विद्यमान पूर्व संस्कारों के परिणाम स्वरूप घटित होने वाले बाह्य घटनाक्रमो पर आधारित तूलना, प्रतिस्पर्धा, पसंदगी, नापसंदगी, मोह, घृणा, ईर्ष्या आदि भावों पर निर्भर नहीं करता है।

वरन ये सुखद अनुभूति, तो इस 'रचना' की रचना के साथ ही स्थापित हुए परिवर्तन के 'शास्वत नियम' के कारण हमारे अंतःकरण में समय समय पर प्रस्फुटित होती रहती है।

यदि हम गंभीरता से अवलोकन करें तो हम पाएंगे कि इस रचना में समस्त चीजे गतिमान हैं। समस्त ग्रह, नक्षत्र, आकाश-गंगाएं, हमारी धरा, इस धरा पर उपस्थित हर प्रकार का जीवन, ऋतुएँ, हमारे सूक्ष्म यंत्र में स्थित समस्त चक्र, नाड़ियाँ, हृदए, नब्ज, शिराएं, धमनियां किसी न किसी रूप में गति कर रहे हैं। 

और यही गति परिवर्तन की कारक है और परिवर्तन ही विभिन्न प्रकार की नवीनताओं का उत्प्रेरक है। इसीलिए हम सभी की आंतरिक व् बाह्य स्थिति बदलती रहती है, वो कभी भी पूर्व की तूलना में एकसी नहीं रहती है।

किन्तु एक 'विभूति' हमारे भीतर है जो अज्ञानता के कारण जड़ हो जाती है और जड़ता के कारण परिवर्तन नहीं चाहती है,और वो है हमारा 'मन'। वास्तव में हमारा मन 'स्मृति' पर कार्य करता है, और अक्सर स्मृति ही मन के भीतर जड़ता को उत्पन्न करती है।

जब जाने अनजाने में हमारी कुछ आवश्यक आवश्यकताएं उचित समय पर किन्ही कारणों से पूर्ण नहीं हो पाती हैं तो जरूरतें धीरे धीरे हमारी अतृप्त इच्छाओं में परिवर्तित होकर मन की स्मृति का हिस्सा बन जाती हैं और अनादी काल तक हमारे मन में बनी रहती हैं। यहाँ तक कि वर्तमान जीवन से गुजरकर हमारी मृत्युपरान्त अगले जीवन चक्रों में भी पहुँच जाती हैं।

इन्ही इच्छाओं के कारण हमारी चेतना कुछ काल के लिए एक ही स्थिति में ढहर जाती है किंतु उस तीव्र इच्छा के वृत में परिक्रमा करती रहती है। हमारे जिस चक्र के गुण से सम्बंधित वो इच्छा होती है उससे जुड़े स्नायु तंत्र व् उस स्थान को वो लंबे समय में रोगी बना देती है और हमें किन्ही बिमारियों से दो-चार होना पड़ता है।

इसका आशय ये हुआ कि यदि हम अपने जीवन के बाह्य या आंतरिक परिवर्तनों को स्वेच्छा से स्वीकार कर पूर्ण समर्पित भाव में गति नहीं करेंगे तो निश्चित रूप से हम उत्थान की ओर अग्रसर नहीं हो पाएंगे और अंततः हम अधोगति को प्राप्त होंगे।


यानि "परमात्मा" व् 'माता प्रकृति' की इच्छा से घटित होने वाले परिवर्तनों को पूर्ण हृदए से ग्रहण कर उल्लसित भाव में इस 'दुर्लभ-मानवीय-जीवन' के "रचनाकार" की हर पल वंदना करते हुए नव-सृजनित व् पुष्पित पलों का आनंद उठाते हुए अपने जीवन यात्रा को सार्थक करें।"

----------------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"

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