Friday, June 2, 2017

"Impulses"--375--"निर्थक शास्त्रार्थ"

"निर्थक शास्त्रार्थ" 

"ये अक्सर देखने में आता है कि ज्यादातर सहजी "श्री माता जी" के लेक्चर्स पर शास्त्रार्थ करते हुए आपस में खूब बहस करते दिखाई देते हैं।और अपने मॉनसिक ज्ञान के आधार पर एक दूसरे को दबाने का भरसक प्रयास कर रहे होते हैं। और कभी कभी तो इतने उत्तेजित हो जाते है कि आपसी प्रेम भाव को विस्मृत कर एक दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश करते हैं।

सबसे हैरान करने वाली बात तो तब और भी होती है जब वे ये भी बताना शुरू कर देते हैं कि "श्री माता जी" ने अमुक बात अमुक कारण से कही है। मानो "श्री माता जी" ने ऐसे सहाजियों को अपना 'प्रवक्ता' बना दिया हो, और "उनके" समस्त लेक्चर्स के कारणों व् उद्देश्यों से पूरे संसार को अवगत कराना बस उन्ही की जिम्नेदारी है।

जब उनसे उनके स्वम् के ध्यान के वास्तविक अनुभवों व् अनुभूतियों के आधार पर कोई प्रश्न पूछ लिया जाए तो वो दाएं बाएं बगले झांकते प्रतीत होते हैं। वास्तविक अनुभव होने के कारण ऐसे सहजी ठीक प्रकार से उत्तर दे पाने की जद्दो जहद से बचने के लिए पूछने वालों की ही कमिया गिना देते हैं।

उनके चक्र में पकड़ बता कर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करते हुए सहज के कर्मकांडो के जरिये उन्हें क्लीयरिंग करने की सलाह भी देने लगते है।
कई बार तो ऐसा प्रतीत होता कि जैसे कुछ  सहाजियों ने "उनके" लेक्चर्स पर PHD करके "श्री माँ" के समस्त वक्तव्यों पर अपना अधिकार ही जमा लिया हो।

यानि उनको "माँ" के लेक्चर्स से जो भी मानसिक आधार पर समझ आया है केवल वही ठीक है और जो अन्य लोग भीतर से समझ रहे हैं वो सब गलत है। ये तो ऐसे ही हुआ मानो आलू को पेटेंट करके उसकी रेसिपी को अपने नाम से रजिस्टर्ड करा लिया जाए ताकि कोई अन्य व्यक्ति आलू की सब्जी अपने तरीके से कभी भी बना सके।

मेरी चेतना के अनुसार"श्री माँ" के लेक्चर्स को लेकर आपस में डिबेट करने से अच्छा है कि जो भी हमने ध्यान में अनुभव किये हो केवल वही नए पुराने सहजियों को बताएं जाएँ उन्ही अनुभवों के आधार पर उन्हें सिखाया जाए। क्योंकि अपने अनुभवों को आसानी से साबित किया जा सकता है। बिना अपने अनुभव के मुख ही खोला जाये तो ही बेहतर होगा।"

-----------------------------------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"

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