Saturday, June 11, 2022

"Impulses"--610-- "बाह्य संस्कार"-"मानव-चेतना के क्रमिक विकास में बाधा"

 "बाह्य संस्कार"-"मानव-चेतना के क्रमिक विकास में बाधा"


"मानव के जीवन में बाहरी संस्कारों का योगदान उतना ही होना चाहिए जितना कि 'आटे में नमक' की मात्रा होती है।

अन्यथा, मानव की 'चेतना' मानव के पूर्व जीवनों में 'सत्य' को खोजने के लिए मानव के द्वारा किये गए समस्त प्रकार के 'पुरुषार्थों' के परिणाम स्वरूप जिस स्तर तक भी प्राप्ति होती है, उसे विस्मृत कर उस अवस्था से नीचे चली जाती है।

जिसके कारण मानव के वर्तमान जीवन का बहुमूल्य समय निर्थक चला जाता है और उसकी जीवात्मा को अत्यंत घुटन छटपटाहट का अनुभव होता है।

जो एक अनजान सी उदासी/उदासीनता/पीड़ा/दुख/अवसाद/निरुत्साहितता/अकर्मण्यता के रूप में मानव के चेतना पटल पर परिलक्षित होती है।

किंतु माता-पिता/पारिवारिक सदस्यों की आंतरिक जागृति के आभाव के चलते बालक के वर्तमान जीवन में उनके द्वारा जबरन लादे गए पारिवारिक/धार्मिक(बाहरी)संस्कारो के अत्याधिक प्रभाव के कारण वह इसका कारण खोज नहीं पाता।

बल्कि नासमझी में अपनी इस स्थिति से उबरने के लिए और भी ज्यादा उन संस्कारों से चिपक जाता है और आजीवन उन्ही संस्कारों के भंवर में डूबता चला जाता है और अपनी जीवात्मा की मुक्ति को कोसो दूर धकेलता चला जाता है।

यानि ये तो ऐसे हो गया कि यदि किसी बच्चे ने कक्षा 10 पास कर ली और माता-पिता उसे जबरदस्ती कक्षा 8 में दाखिला दिलवा दें तो जरा चिंतन कीजिये कि उस बच्चे को कितनी कोफ्त होगी।

हम सभी को समझना चाहिए कि हमारी 'जीवात्मा' की मुक्ति हमारी चेतना के उचित क्रमिक विकास से ही सम्भव है यदि विकास क्रम विकास प्रक्रिया सही नहीं होगी तो हमारी जीवात्मा को अनेको प्रकार के नरक भोगने जैसा अनुभव होगा।

दुख का विषय यह है कि जैसे जैसे मानव सभ्यता भौतिक स्तर पर विकसित हो रही है वैसे वैसे मानवीय प्रकृति का झुकाव बाह्य धर्म धार्मिक आडंबरों में जड़ होता जा रहा है।

क्योंकि भौतिक संसार भौतिक उपलब्धियों की तरफ झुकाव होने के कारण आपसी प्रतिस्पर्धा बढ़ती है, जिसके चलते लालच उत्पन्न होने लगता है,और लालच गलत तरीके से सुख साधन अर्जित करने की ओर उकसाता है और गलत कार्य भय की उत्पत्ति करते हैं और भय को ढकने के लिए लोग धार्मिक दिखावा/कर्मकांड/रीति रिवाजो/अनुष्ठान/पूजा-अर्चना/मन्नतों/देवी की चौकी लगाने/धार्मिक स्थलों में जाने,आदि में लिप्त होने लगते हैं।

अफसोस कि बात यह है कि मानव सभ्यता में सामूहिक स्तर पर फैली घोर अज्ञानता के कारण लोग उपरोक्त प्रक्रियाओं को ही "ईश भक्ति" मान बैठते हैं और सभी लोगों के बीच अपना मान-मन्नवल कराने की आकांशा भी अपने मन में धारण कर लेते हैं और आजीवन इसी चक्र में फंसे रहते हैं।

यहां तक कि बाहरी धार्मिकता में बुरी तरह जकड़ कर वे अक्सर "परमात्मा", 'प्रकृति' मानवता के विरोध में ही चले जाते हैं, और धार्मिक रूप से अत्यंत कट्टर बन कर वे अन्य धर्मों के लोगों की हत्याएं तक कर डालते हैं और अपने चारों ओर धार्मिक उन्माद ही फैलाते हैं जिससे मानवता और भी ज्यादा आहत होती है।

अपने फंसने का पता इन सभी लोगों को अपनी मृत्यु से कुछ पल पूर्व ही चल पाता है जब उनकी चेतना जीवात्मा की सुनवाई "परम" की अदालत में चल रही होती है,

तब उनकी चेतना बहुत पच्छताती है और "प्रभु" से पश्चाताप की अग्नि में जलते हुए क्षमा याचना कर रही होती है और अगले जीवन में वास्तविक भक्ति कर अपने कर्म सुधारने का वादा भी करती है तब जाकर उस मानव की जीवात्मा शरीर छोड़ पाती है।

फिर यह चेतना जीवात्मा पुनः गर्भ धारण करती है और जन्म होने तक निरन्तर "ईश्वर" से प्रार्थना करती रहती है।

किन्तु विडंबना देखिए कि, जैसे ही वह एक बालक के रूप में जहां भी जन्म लेती है 99.9% मामलों में उस बालक के माता-पिता परिवार फिर से उस पर अपने पारिवारिक/धार्मिक संस्कार लाद देते हैं और फिर से चेतना का विकास अवरुद्ध हो जाता है और वह चेतना उसकी जीवात्मा युग युगांतर तक छटपटाते रहते हैं।

यदि हम उपरोक्त चितन को समझें तो एक प्रश्न स्वाभिक रूप से उत्पन्न होगा कि क्या हमको अपने बच्चों में किसी भी प्रकार के संस्कार नहीं डालने चाहिए ?

क्या उनको संस्कार विहीन बनाना चाहिए, क्या यह उचित होगा ? क्या संस्कार विहीनता उसको पथ भ्रष्ट नहीं कर देगी ?

आप सभी के प्रश्न स्वाभिक हैं, क्या आप महसूस करते हैं कि आपके प्रश्नों में भी एक प्रकार का भय व्याप्त है।

निश्चित रूप से हमें अपने बच्चों के बाल्य काल में कुछ संस्कार अवश्य डालने चाहिए किन्तु यह संस्कार मानव धर्म का पालन करने के लिए डालने चाहियें।

थोड़ी देर के लिए जरा कल्पना करें कि एक बालक के माता पिता एक प्लेन क्रैश में मारे गए जो एक जंगल में क्रैश हुआ और सौभाग्य से उनका बच्चा बच गया, उस बच्चे को जंगल के जानवरों ने अपने प्रेम से पाल पास कर बड़ा कर दिया।

उस बालक को भी जानवरों से संस्कार मिले किन्तु वो संस्कार प्रेम के थे, आत्मनिर्भर बनने के थे, बाद में उस बच्चे को शहर में ला कर पढ़ाया लिखाया गया, पढ़ लिख कर वह एक बहुत अच्छा इंसान साबित हुआ जबकि उसके भीतर कोई भी धार्मिक संस्कार थे।

वास्तव में यदि किसी बालक के ऊपर बाहरी रूप से किसी भी प्रकार के संस्कारों का कोई भी बोझा लादा जाय।

तो उसके भीतर में रहने वाली आत्मा के संस्कार उसकी चेतना में फूटने प्रारम्भ हो जाते हैं और वह बालक अपनी चेतना के स्रोत से विकसित होना प्रारम्भ हो जाता है जो सर्वोत्तम होता है।

क्योंकि हम सभी का वास्तविक अस्तित्व तो एक आत्मा का ही अस्तित्व है जो 'स्वयं' "परमपिता परमेश्वर" का ही अंश है।

तो जरा विचारिये कि यदि किसी बालक के भीतर 'आत्मा' के संस्कार ही प्रस्फुटित होने लगें तो उस बालक के साथ साथ उसके सम्पर्क में रहने वाले उसके इर्द गिर्द रहने वाले लोगों का कल्याण नहीं हो जाएगा।

यदि अध्यन करेंगे तो पाएंगे कि आज तक धरा पर जितनी भी उच्च दर्जे की चेतनाओं ने जन्म लिया है उन पर किसी भी प्रकार के बाहरी संस्कारों का प्रभाव था, वे केवल और केवल अपनी आत्मा के संस्कारों से ही संचालित रहे।

वास्तव में हमारे परिवार में यदि किसी जीवात्मा ने जन्म लिया है हम यह जानते ही नहीं कि उसके पूर्व संस्कार क्या थे,

उसकी चेतना पूर्व जन्मों में कितना विकसित हो पाई होगी,

पूर्व जन्म में उसके परिवार के लोग, उसके माता पिता किस धर्म को मानने वाले रहे होंगे,

यदि समझें तो यह तो बिल्कुल ऐसा ही है जैसे कोई किसान हमारे घर के बगीचे में लगाने के लिए हमें कुछ बीज सब्जी फलों के दे जाय और जिनकी हमें कोई पहचान ही हो।

तो हम क्या करेंगे हम केवल उन बीजों को लगाने के लिए धरती की गुड़ाई करके उसकी मिट्टी को बस तैयार कर देंगे और एक प्रकार के दिखने वाले बीजों के लिए अलग अलग क्यारियां तैयार करके उन बीजों को उस तैयार हुई मिट्टी में लगा देंगे और कुछ प्राकृतिक खाद भी उसमें डाल देंगे।

इसके बाद हम ध्यान रखेंगे की बीजों के बोने वाला स्थान पर तो इतना पानी भर जाए कि वहां की मिट्टी कीचड़ में परिवर्तित हो जाय और ही वह स्थान इतना सूख जाए कि उसकी मिट्टी भुरभुरी होकर रेत जैसी दिखने लगे।

हम केवल और केवल इतना ही ध्यान रखेंगे कि धरती के उस टुकड़े में थोड़ी नमी बनी रहे उसे धूप भी मिलती रहे।

अपने समय पर 'पंच तत्वों' के दुलार से उन बीजों में कुल्ले फूटेंगे और फिर उनके पौधे थोड़े थोड़े बड़े होने लगेंगे।

कुछ और समय बाद उनमें फूल आएंगे और इसके कुछ और समय बाद उनमें फल दिखाई देंने लगेंगे तभी जाकर हमें पता चल पाएगा कि वे बीज किन किन सब्जियों फलों के थे।

अब यह हो नहीं सकता कि बीज तो हम जाने अनजाने में लोकी का डालें और उम्मीद करें कि उसमें से खीरा निकल आये।

यानि कि हमें अपनी नई पीढ़ी के लिए केवल और केवल आदर्श प्रेम मई वातावरण उपलब्ध कराना हैं क्योंकि हम नहीं जानते कि उनकी जीवात्मा में 'चेतना रूपी बीज' किस फल का पड़ा हुआ है।

हम अपने संस्कारों के वशीभूत होकर उस बीज की प्रकृति स्वभाव को नहीं बदल सकते और ही उस बीज से अपनी मर्जी के फल पैदा ही करा सकते हैं।

यदि कोई बीज सेब का है तो वह केवल ठंडे वातावरण में पहाड़ों पर ही फल सकता है, यदि हम उस बीज को रेगिस्तान में लगाने की कोशिश करेंगे तो वह निश्चित रूप से मर ही जायेगा।

*हमें तो बस एक माली की तरह उसके बड़ा होने तक उसकी उचित देखभाल करनी है, हम मात्र माली हैं, हम तो उस बीज के मालिक हैं और ही उस बीज से बने वृक्ष पर लगने वाले फलों पर हमारा अधिकार ही है।*

*यह तो उस वृक्ष के मालिक की ही मर्जी है कि वह हमें उस वृक्ष के फल दे या दे,उस पर हम अपना कोई भी दावा नहीं कर सकते।*

यही बात सहज अपनाने वाले माता-पिता पर उनके बच्चों के लिए लागू होती है कि वे उन बच्चों पर सहज के कर्मकांड बाह्य प्रक्रियाओं को लादने के स्थान पर 'ध्यान' में बने रहने के लिए ध्यान के विकास के लिए उपयुक्त वातावरण उलब्ध कराएं।

ताकि उनके बच्चों की चेतनाएं अपने पूर्व जीवनों में किये गए ध्यान-अभ्यास से आगे के अध्याय की ओर उन्नमुख हो प्रगृति कि ओर अग्रसर हो सके कि सहज-कंडीशनिंग में उलझ कर अधोगति को प्राप्त हो।

हम सभी जागृत चेतनाओं का उत्तरदायित्व है कि हमारे सम्पर्क में आने वाले प्रत्येक 'सत्य के खोजी' की वास्तविक 'आध्यात्मिक' आवश्यकता को सूक्ष्मता गहनता से समझ कर उसके स्तर से आगे की ओर बढाने में मदद करें।

साथ ही यह भी देखें कि उसकी चेतना उसके मन के किसी पूर्व संस्कारों में जाने अनजाने में जकड़ी तो नही हुई है ?

यदि उसकी चेतना में किसी भी प्रकार की जकड़न है तो उसकी चेतना को उस जकड़न से बाहर निकालने में अवश्य मदद करें।

किन्तु ध्यान रहे कि, किसी भी 'सत्य खोजी' की मदद करने से पूर्व स्वयं की चेतना की जकड़न का आंकलन अवश्य कर लें।

क्योंकि बिना अपनी चेतना की स्वतंत्रता के आप किसी भी सत्य राही की मदद करने योग्य ही नहीं होंगे।"


--------------------------------------Narayan

"Jai Shree Mata Ji"


06-04-2021

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