Tuesday, October 11, 2016

"Impulses"--309--"चेतना की विभिन्न अवस्थाएं"

"चेतना की विभिन्न अवस्थाएं"

"एक साधक/साधिका को "पारब्रह्म परमेश्वर" से एकाकार होने के लिए 'चेतना' की विभिन्न अवस्थाओं के दौर से गुजरना होता है जो साधना के दौरान एक के बाद एक घटित होती जाती हैं और साधक/साधिका को इसी भौतिक संसार में बने रहते हुए 'सर्वोच्च अवस्था' तक पहुंचा देती हैं।


और वो मुक्त स्थिति के आनंद में आनंदित रहते हुए वास्तविक उत्थान में रूचि रखने वाले साधक/साधिकाओं को अपने अनुभवों व् अपनी चेतना के माध्यम से 'उसी स्तर' तक पहुंचाने में निस्वार्थ भाव से मदद करता/करती है।

हम सभी की 'प्रभु-मिलन' यात्रा-

1)
स्मरण--"परमात्मा" के प्रति 'प्रेम-भाव' से प्रारम्भ होती है और अपने मन में अपने प्रिय 'प्रभु' को श्रद्धा से स्मरण करता है, उनके प्रति प्रेम व् भक्ति प्रगट करने के लिए भजन, पूजा, हवन, मंत्रोचारण व् अनुष्ठान इत्यादि करता है।

2) वायब्रेशन--उसके उपरान्त अपने शुभ कर्मों के परिणाम स्वरूप "श्री माँ" की कृपा से 'सहज-योग' को प्राप्त होता है और प्रथम बार "परमेश्वरी शक्ति"(वायब्रेशन) को अपने भीतर से बहता महसूस करता है और उसके बहाव के आधार पर तथ्यों व् घटनाओं को सत्य व् असत्य के आधार पर परखता है।

3) निर्विचारिता--वायब्रेशन को परखते व् महसूस करते समय कुछ पलों के लिए 'निर्विचारिता' को महसूस कर पाता है और धीरे धीरे निरंतर ध्यान व् चिंतन के अभ्यास के माध्यम से उसके चित्त में सांसारिकता के विचार आने कम होते जाते हैं और वो 'निर्विचारिता' का आनंद उठाने लगता है।

4) निर्विकल्पता--और इसके उपरांत उसका विश्वास 'परम सत्ता' के प्रति बढ़ता जाता है और वो धीरे धीरे अपनी समस्त चिंताओं व् उपलब्धियों को "श्री माँ" के "श्री चरणों" में नित्य समर्पित करता जाता है।

और अपनी समस्यायों को हल करने के लिए समस्त प्रकार के सांसारिक विकल्पों का त्याग करते हुए 'निर्विकल्प' की और अग्रसर होता जाता है और एक दिन "निर्विकल्प अवस्था" में स्थापित हो जाता है। यानि सांसारिक व् आध्यात्मिक जीवन के हर पहलू में वो अपने चित्त में सदा "ईश्वर" को ही पाता है।

5) अस्तित्व शून्यता--निर्विकल्प अवस्था का आनंद लेते लेते अक्सर उसे अपना स्वयं का अस्तित्व शून्य होता प्रतीत होता रहता है, यानि उसका चित्त कभी कभी एकदम से खाली हो जाता है यहाँ तक कि उसके चित्त में "परमात्मा" भी विस्मृत होने लगते हैं।

यानि चेतना में रिक्त अवस्था उत्पन्न होने लगती है और वो "रिक्तता" का आनंद उठाने लगता है यानि उसका चित्त अब 'रिक्त-अवस्था' का स्वाद चख रहा होता है।

6) अस्तित्व विहीनता--और जब उसकी चेतना में सुन्दर रिक्तता स्थापित होने लगती है तो उसकी चेतना में उसके स्वयं के अस्तित्व का आभास मिटना प्रारम्भ होने लगता है, उसको लगता है कि वो समाप्त हो रहा है। यानि उसके स्वयं के द्वारा किये गए कार्य भी उसे स्वयं के नहीं लगते।स्वम् के द्वारा बोली गई बात भी उसे अपनी नहीं लगती।

उसको लगता है कि कोई अज्ञात किन्तु आनंदमई 'विशाल अस्तित्व' उसके माध्यम से सक्रिय हो गया है जो उसके समस्त कार्यों को सम्पादित कर रहा है। जिसके पास हर प्रश्न का उत्तर है और उसके व् अन्यों के अस्तित्वों से सम्बंधित हर प्रकार की भौतिक व् आध्यात्मिक समस्या का हल मौजूद है।

7) अस्तित्व नगण्यता--और जब "वो" 'विशाल अस्तित्व' उसकी चेतना को अपने में पूरी तरह समां लेता है तब उसको अपना स्वयं का अस्तित्व आभासित होना समाप्त हो जाता है और वह 'पारदर्शी' शीशे जैसे हो जाता हैं।

यानि जो भी व्यक्ति, वस्तु स्थान, स्थिति, परिस्थिति, विचार व् चिंतन  जैसे ही उसकी चेतना के संपर्क आता है, इन सभी से सम्बंधित उपयोगी, आवश्यक व् कल्याणकारी जानकारियां उसके 'चेतना-पटल' पर स्वतः ही प्रगट होने लगती हैं और उसकी "जागृति" को उन्नत करती जाती हैं।

ऐसी अवस्था में वह किसी व्यक्ति विशेष के लिए ही उत्तरदायी नहीं रहते वरन सम्पूर्ण रचना के लिए पूर्ण जागरूकता के साथ होते हुए अपने भीतर में एक जिम्मेदारी महसूस कर रहा होता हैं। और इस रचना के लिए उपयोगी प्राणियों, विशेषकर 'निर्वाजय प्रेम' में पगे हुए समस्त मानवों व् जागृत जीवात्माओं को समान रूप से "प्रेम" करता हैं।

8) साक्षी अवस्था--इस सुन्दर अवस्था में जीते हुए "सर्वोच्च" चेतन को अपने भीतर से कार्यान्वित होते हुए महसूस कर रहा होता हैं और साथ ही "पूर्ण ऐकाकारिता" को जी रहा होता हैं।

ऐसी 'ब्रह्म्मानंद' की स्थिति में वह संसार में रहते हुए, संसार को पूर्ण आनंद व् सुरुचि पूर्ण भावों के साथ भोगते हुए भी वह संसार व् स्वयं के प्रति अनासक्त रहकर "पूर्ण साक्षी" भाव में अपनी समस्त भौतिक व् आध्यात्मिक जगत की जिम्मेदारियों को प्रसन्नता के साथ निभाते हुए जीवन व्यतीत कर रहा होता है।"


-----------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"

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