Wednesday, August 4, 2010

अनुभूति--9 "दुःख या सुख/सुख या दुःख"--27.12.06

अनुभूति-- "दुःख या सुख/सुख या दुःख" 27.12.06

दुःख तुझे हजारों सलाम मैं करता हूँ,
हर पल हर घडी तेरा इस्तकबाल मैं करता हूँ,
जिधर जाता हूँ मैं हर तरफ, तू ही तू नजर आता है,
तेरे नकाब के पीछे मुझे, "श्री माँ" का अक्स नजर आता है,
कहीं तू "श्री माँ" खिदमतगार तो नहीं,
जब भी मैं "माँ" की तरफ चलता हूँ, तू पहले टकराता है,
उनके आने से भी पहले, उनके आने की दस्तक तू दे जाता है,
जगा देता है उम्मीदों को, हर शख्स के दिलों दिमाग में,
होगा इक दिन दीदार उस "माँ" से इस भरी महफ़िल में,
मिल जायेगा सुकून, पड़ जाएगी ठंडक हर कलेजे में,
करके एहसास "माँ" की आमद का , नाच उठता है जिस्म का कतरा कतरा,
दुःख के बादलों में, खुशियों का रंग बिखर जाता है,
लरजते होटों पर "माँ" तेरा ही नाम आता है,

इस रंगीली बारिश में, दुःख भी फूला समाता है,
दुःख की मेहनत का सिला, उसकी ख़ुशी में नजर आता है,
कितनी शिद्दत से की है खिदमत, उसने परवरदिगा"की,
उनके कहने से, बिना अपनी इच्छा के, हर शख्स के वो साथ रहा है,
हर एक की दुत्कार को, बड़ी जिन्दादिली से इसने सहा है,
हर इक इंसान की जिन्दगी में, उनका साया बनकर रहा है,
जाने कितना दुःख, इस दुःख के दिल में भरा है,
पर कभी इसके चेहरे को, किसी शिकन ने ढका है,
यदि सीख लेनी है तो, सीख लेलो इस दुःख से,
आल्हा ताला ने बनाया, इसको बड़ी मेहनत से,
अपना सारा वक्त उन्होंने , इसे सवारने में ही तो लगाया है,
कहीं नजर लग जाये, इसके माथे पे काला टीका लगाया है,
अपनी ताकत देकर उन्होंने, सबसे ताकतवर बनाया है,

इसे देख कर, अच्छे अच्छों के होश ठिकाने लग जाते हैं,
ये सामने अगर जाये तो, भूत पिशाच भी भाग जाते हैं,
अरे इसकी सोच कर तो, शेतनों को भी पसीने आते हैं,
इसी की तपन से ही तो, रात दिन जलता है, "आफताब",
इसके एहसास से ही तो, बेरौनक होता है "महताब",
इसके आते ही तो, दौड़ जाता है सुख,
इसी की तकलीफ से ही तो, उठते हैं तूफ़ान,
इसके खुमारी चड़ते ही तो, हो जाती है बारिश,
इसके उबलने से ही तो, फूट पड़ते हैं "ज्वालामुखी",
इसकी पीड़ा सहकर ही तो, काँप उठती है, 'धरती",
इसके खौफ से ही तो, नदी में गति आती है,
इसके आगोश में आकर ही तो, पर्वत जम जातें हैं,
इसकी गर्मी पाकर वो, फिर से पिघल जातें हैं,
अरे इसकी ताकत से तो, असुर भी सुर में आतें हैं,

चक्रों के दिलों दिमाग पर जब, चोट इसकी पड़ती है,
बिलबिलाती सी "कुण्डलिनी"लहरा के उठती है,
कुण्डलिनी की दुलार से, फूट पड़ते हैं सुर",
तब कहीं जाकर, उत्पत्ति होती है, सुरीले संगीत की,
अकेलेपन के दुःख से ही तो, "माँ" ने सृष्टि बनाई है,
दुःख से बनी इस दुनिया में, तभी तो दुःख की रसाई है,
इसके होने से ही तो, सुख की औकौत समझ आई है,
इसी के कारण तो "माँ आदि" ने, जन्म लिए एक हजार,
लगता है "श्री माँ" इसको हटाने आईं हैं इस बार,
अंतिम बार "माँ आदि" ने, रूप धरा है दुःख का,
अनेकों जन्मों के कर्म फलों का, मिटाना चाहतीं हैं वो लेखा जोखा,
तभी तो अपने "श्री चरणों" में, दिया है दुःख को स्थान,
अरे प्रहरी बनाया इसको जो, सबका पूछे पता और नाम,
लगता है ये दुःख कोई और नहीं, स्वम हैं "श्री गणेश",
जो लेते परीक्षा हर प्राणी की, देकर उसे दुःख के जाम,
बैठाते उसको तब "श्री चरनन" में, लेकर परीक्षा, सुबहो शाम,
जो खरा उतरे उनकी इस परीक्षा में, उसे मिलती मित्रता इस दुःख से,

तो कैसे असर भला उसको दुःख का होगा, सखा बनकर वो हरदम संग चलेगा,
जो निभाएगा आजीवन इस दुःख को, उसे "श्री माँ" का दरबार मिलेगा,
सुख की चाहत जिससे छूट जाएगी, वही चेतना ही तो, हृदय में "श्री माँ" के स्थान पायेगी,
फिर दुःख की वेदना उसे कैसे होगी, जब स्वम दुःख बनके, "श्री चरणों" में समां जाएगी,
इसीलिए ही तो हर हाल में ये दुःख, बड़ी ख़ुशी से रहता है,
दुनिया जहान के ग़मों सितम, ये अपने दिल ही दिल में लिए फिरता है,
उफ़ तक नहीं करता ये कमबख्त कभी, हर रोज हर तकलीफ सहने की और इच्छा रखता है अभी,
बड़े मुक्कदस रोज, "खुदा" ने इसे बनाया है,
देकर नाम अपना इसे, मंदिर, मस्जिद, गिरजा, गुरूद्वारे में पुजवाया है,
दिखा कर डर इसका, जानवरों को भी "इंसान" बनाया है,
लगाकर साथ इसे ही तो इंसान के, उनको ही "पैगम्बर" बनाया है

---------नारायण
शब्द- अर्थ
इस्तकबाल= सम्मान , अक्स=चेहरा , आमद=आना, शिद्दत=दिल से, खिदमत=सेवा, परवरदिगार=भगवान, आफ़ताब=सूरज, महताब=चन्द्रमा, मुक्कदस=शुभ, पैगम्बर=भगवान् का सन्देश लाने वाला

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