Saturday, February 12, 2011

Contemplation----चिंतन----14-----'अजीब किन्तु सत्य'--12.02.11

"चिंतन"
'अजीब किन्तु सत्य'


परमात्मा की व्यवस्था भी बड़ी पेचीदा है, जब भी कभी मानव परमात्मा की(आत्म-साक्षात्कारी होना) ओर बढ़ता है और उनके कुछ अंश पा जाता है तब ही परमात्मा उसके मन में दमित वास्तविक संसारिक आवश्यकता या इच्छा को अक्सर पूर्ण कर देते हैं,परंतू पूर्ण रूप से पाने में थोड़ी कमी कर देते हैं, कुछ पूर्णता में कमी छोड़ देते हैं, ताकि मानव उसी इच्छा में ही रम जाये। जब-जब भी उसके अन्दर कमतरी का एहसास बढे तब तुरंत उसे परमात्मा याद आयें। वह फिर उनकी ओर जाकर मांग करे। यह सारी कमियां होकर परमपिता का मायावी रूप ही है। जो हमें किसी भी अवस्था में उनकी ओर बढने को मजबूर करता है और मानव को जो कमी महसूस होती है, वो उसकी धैर्य की परीक्षा है। यह कार्य निरंतर चलता रहता है, यदि मानव जागरूक है तो वह धैर्य से उस पीड़ा को साथ लेकर चलता है, और निरंतर ईश्वर की ओर बढ़ता जाता है।

पीड़ा का पूर्णता की प्राप्ति में गहरा रिश्ता है, पूर्णता एक दम से प्राप्त नहीं होती वर्ना मानव का अज्ञान उस पूर्णता का नाजायज फायदा उठा सकता है। इसीलिए परमात्मा ने पूर्णता को हजारों - लाखो टुकड़ों में विभक्त किया है। जिससे परमात्मा विशेष प्रेम करतें है उसे ही अपूर्णता का एहसास करातें हैं। और जब मानव परेशान होकर इधर-उधर पूर्णता को तलाशता है और उसे ईश्वर से जुड़ने का कोई मार्ग मिल जाता है

तब ही एक नए 'सकारात्मक' प्रारब्ध का निर्माण होता है। सकारात्मक प्रारब्ध का निर्माण बड़े ही धेर्य सहनशीलता से होता है। सकारात्मक प्रारब्ध संतोष शांति प्रदान करता है, जबकि नकारात्मक प्रारब्ध असन्तोष अशांति, खिन्नता आदि को उत्पन्न करता है, और परिणाम स्वरुप मानव पलायन कर जाता है और यहाँ-वहां भटककर उसी शांति को पाना चाहता है। सकारात्मक प्रारब्ध के कारण पूर्णता के कुछ अंश प्राप्त हो जाते है। किन्तु हृदय में दुःख दोनों ही परिस्थिति में रहता हैएक का परिणाम स्वम से भागना दूसरे का परिणाम स्थिरता सहनशीलता है।

यदि कोई आत्मसाक्षात्कारी मानव किसी दूसरे आत्मसाक्षात्कारी मानव से असंतुष्ट है तो उसे धेर्य के साथ बड़े प्रेम के साथ उसी मानव को अपने भाव प्रस्तुत करने चाहियें। धीरे-धीरे वह मानव आपकी बात को समझने लगेगा। यदि आप अपनी असंतुष्टि किसी अन्य व्यक्ति से, जिसे विराट ने "आत्म-साक्षात्कार" के बाद आपके लिए नहीं चुना है, पूरा करना चाहते हैं, तो यह 'विराट' की व्यवस्था के प्रतिकूल कार्य हो गया, इससे भयानक अशांतिपूर्ण उत्पाती परिणाम सामने आएंगे।

अत: साधकों को चाहिए कि आत्म-साक्षात्कार के बाद 'माँ' ने जिसकी व्यवस्था आपके लिए की है उसी के साथ आत्म-संतुष्टि पाने की कोशिश करनी चाहिए क्योंकि असंतुष्टी के रूप में यह आपकी परीक्षा थी। परमपिता स्वम उस व्यक्ति के साथ हैं आपको परीक्षा में पास कराकर 'वह' उस मानव को आपके अनुरूप कर देंगे, विश्वास रखिये। परमात्मा ने उसी के माध्यम से आपकी समस्त इच्छाओं को पूरा करना है। क्योंकि 'उसे' ही आपकी इच्छा के अनुरूप परमात्मा के द्वारा आपको दिया गया है। क्योंकि परमात्मा जानते हैं कि जब-तक यह मानव अपनी सांसारिक इच्छा को पूरा नहीं कर लेता तब तक वह पूर्ण आत्मा नहीं बन सकता। 'कभी भी पूर्ण आत्मा मात्र प्रार्थना भर कर लेने से नहीं बना जा सकता। प्रार्थना तो प्रारंभिक अवस्था में साधकों को हर रोज ही करनी पड़ेगी। प्रार्थना में सच्चाई को पाकर परमात्मा सबसे पहले आपकी सांसारिक वास्तविक इच्छा को ही पूरा करते हैं।

घोर आश्चर्य की बात है, कि आप मांग तो आत्मा बनने की कर रहे है परन्तु प्रत्यक्ष में परमात्मा आपकी दमित वास्तविक इच्छाओं को एक-एक कर के पूरा करने में लगें हैं। 

इसी बाहरी रूप के चमत्कारों से प्रभावित होकर मानव परमात्मा के आगे नतमस्तक होता जाता है और परमात्मा की ओर बढ़ता जाता है। और चमत्कारों की चर्चा समाज में करता जाता है। चर्चाओं को सुन-सुन कर अनेको मानव परमात्मा के मार्ग पर कदम रखतें है।

जिनमे कुछ ही सच्चे 'खोजी' होते हैं जो वास्तव में परमात्मा(पूर्णता) को पाते हैं। और बाकी थोड़ी बहुत भौतिक अध्यात्मिक प्राप्ति करते हैं और समर्पण की ओर बढ़ते जाते है। 

                                                     "समर्पण ही एक मात्र प्राप्ति की 'कुंजी' है।"

'समर्पण, शब्द बोलना बेहद आसान है लेकिन वास्तविक समर्पण बेहद कठिन है। "वास्तविक समर्पण वही है कि यदि परमात्मा ने कोई आपकी दबी हुई इच्छा पूरी कर दी है, और उसके बाद दूसरों की देखा-देखि उसमे कमी निकाल कर उस इच्छा को कहीं और से पूरा करें बल्कि पूर्ण सहनशीलता सम्मान के भाव के साथ उस इच्छित व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति के साथ निभा लें। यदि वह 'आत्मसाक्षात्कार' के बाद परमात्मा ने दिया है तो उसका सम्मान आवश्यक है, यदि सम्मान नहीं दिया गया तो यह परमात्मा का अपमान होगा और परमात्मा के अपमान से उनके देव गण बहुत जोर से रुष्ट हो जाते हैं और उस साधक पर दुनिया भर की आफतें आनी शुरू हो जातीं हैं। और अपनी गलती को महसूस करके वह साधक उसी व्यक्ति पर दोषारोपण करने लगता है जिसे स्वम परमात्मा ने उस साधक की इच्छा से उसी के लिए प्रदान किया था, और अंत में अपने 'पतन' का भागी बन जाता है। यानि यह खेल हो गया 'सांप और सीड़ी' का।

यह सब देख कर परमात्मा मंद-मंद मुस्कुराते रहतें है, क्योंकि बच्चा तो उनके आधीन है। ऐसे में उस साधक की अज्ञानता इतनी बढ़ जाती है कि वह परमात्मा को, किस्मत को,परिस्थितियों को, वातावरण को, अपने को, अपनी आदतों को, दूसरों को दोष देता चला जाता है अपने अन्दर से टूटता जाता हैऔर यदि वह अपनी कमी को जान जाता है तो स्थिर हो जाता है और शांत होकर अपनी उस कमी को तुरंत सुधार लेता है पुन: उस मानव को सम्मान देकर उसके साथ परमात्मा की ओर बढ़ जाता है पूर्णता के कुछ और अंशो को पा जाता है

'पूर्णता' की प्रक्रिया बिलकुल साधारण पढाई से सम्बंधित परीक्षा के परिणाम समान होती है जैसी परीक्षा देते हैं वैसे ही नंबर आते हैकेवल एक अंतर होता हैसाधारण परीक्षा में आप फेल हो सकतें हैं, पर इसमें परमात्मा हमें फेल नहीं होने देते केवल आपकी नकारात्मक भावनाएं ही आपको हारा हुआ महसूस करातीं हैं

यह देख कर परमात्मा आपकी भावनाओं को अन्दर से परिवर्तित कर देते हैं पुन: अपनी ओर बढ़ने की प्रेरणा देते जाते हैंऔर यदि दोनों मानव एक-दूसरे को पूर्ण रूप से समर्पित होते हैं तो एक नए क्रांतिकारी प्रारब्ध का निर्माण होता है और फिर वे बच्चे परमात्मा के द्वारा प्रदान की गई पूर्ण आत्मा को प्राप्त होते हैं उनकी इच्छा से संसार में आते-जाते रहते हैं

तब कहीं जाकर वे आत्मा के रिश्तों में बंधतें हैंयही आत्मा का सच्चा रिश्ता कहलाता हैफिर वे कभी भी दुखों की गिरफ्त में नहीं आते सारे संसार में घूम-घूम कर सुख बांटते हैं पूर्णता का उदहारण बनते है

--------------------------------------------नारायण

"जय श्री माता जी"

1 comment:

  1. completely my story, i took so much time to come to her divine place however now i dont want to go anywhere.

    Jai Shri mataji

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