Wednesday, May 24, 2017

"Impulses"--371--"किंकर्तव्यविमूढ़ता"

"किंकर्तव्यविमूढ़ता" 

"एक सामान्य साधक का आंतरिक संघर्ष तब प्रारम्भ हो जाता है जब कोई उसका अपना नजदीकी अपने विभिन्न प्रकार के स्वार्थों को पूरा करने के लिए उस 'साधक/साधिका पर अनेकों प्रकार के असत्यों को आरोपित करता जाता है।

और षड्यंत्र व् कुचक्रों के माध्यम से उसे दोषी बनाने का प्रयास करता है।ऐसे में वो विचार करने के लिए बाध्य हो जाता है वो क्या करे ?

क्या वो अपने को आरोपित करने वाले शख्स के मुताबिक ही असत्य तथ्यों का उपयोग कर अपना बचाव करे।

या सत्य पर खड़ा रहकर उस लोभी के द्वारा फैलाये गए जाल में फंस कर अनेकों पीड़ाओं का भागिदार बने।

या फिर अपने वजूद को बचाने के लिए शस्त्र उठाये और उस दुष्ट को उसके किये की सजा दे।

या अपने वजूद को पूर्ण रूप से "माँ परमेश्वरी" के हवाले कर हर प्रकार के कष्टों व् विपदाओं को स्वेच्छा से सहने व् स्वीकार करने के लिए अपने को तैयार करले।

क्योंकि अब जो करेंगी "श्री माँ" ही करेंगी। इसी धारणा पर अपने को समर्पित करदे और सत्य पर अडिगता के साथ निश्चिन्त होकर खड़ा रहे।

मेरी चेतना के अनुसार अंतिम विकल्प ही सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि जो भी होता है 'प्रभु' की इच्छा से ही घटित होता है।


हमें तो बस किसी भी प्रकार की चालाकी या ट्रिक का प्रयोग किये बगैर, ध्यानस्थ अवस्था का आनंद उठाते हुए असत्य का पुरजोर विरोध करते हुए संघर्ष करना है, बाकी सब कुछ "परमपिता" की इच्छा पर छोड़ देना चाहिए।"

--------------------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"

No comments:

Post a Comment