Tuesday, May 30, 2017

"Impulses"--373--"नव-सहज-वृक्ष-विकास-प्रक्रिया"

"नव-सहज-वृक्ष-विकास-प्रक्रिया"

"वृक्ष के नीचे कुछ समय के लिए पौधा तो बड़ा हो सकता है पर वो पौधा कभी भी वृक्ष में परिवर्तित नहीं हो सकता क्योंकि उस बढ़ते हुए पौधे के हिस्से का समस्त भोजन पुराना ही वृक्ष ले लेता है और उसे पनपने ही नहीं देता।

अतः उस पौधे को वृक्ष बनने देने के लिए हमें उक्त पौधे को वृक्ष से आदर्श दूरी पर ही पुनररोपित करना होगा वर्ना उसकी बढ़ती हुयी टहनियां पुराने वृक्ष से टकराती व् उलझती रहेंगी जिससे नय वृक्ष ठीक प्रकार से बढ़ नहीं पायेगा या सूख जायेगा।

ठीक इसी प्रकार से जब कोई नया सहजी किसी पुराने सहजी के माध्यम से "श्री माँ" के द्वारा "श्री चरणों" में लाया जाता है और वह अपनी खुशी से पुराने सहजी के सानिग्ध्य में रह कर सहज-ध्यान की विधियां जानना व् सीखना चाहता है।

तो पुराने सहजी का कर्तव्य है कि उस नए सहजी को हृदए से अपने सहज के समस्त अनुभवों के बारे में जानकारी दे व् अपनी क्षमता व् चेतना अनुसार उसे ध्यान में उतरने व् उसमें स्थापित होने में मदद करे।

और जब नया सहजी अच्छे से सहज का कार्य करने योग्य हो जाए तो उसे स्वतंत्र रूप से कार्य करने के लिए प्रेरित करे ताकि वह भी सहज में अपने पावों पर खड़ा हो सके व् गहनता को प्राप्त हो सके।

यदि पुराने सहजी ने अपना झूठा मान-मनोव्वल व् अहम् बनाये रखने के लिए उसे आगे बढ़ने का अवसर नहीं दिया या उसे रोका तो नया सहजी ध्यान व् जागृति के कार्य में उन्नत नहीं हो पायेगा।

नए सहजी के ठीक प्रकार से विकसित होने के कारण उसकी 'जीवात्मा' मुक्त नहीं हो पाएगी और उसका यह स्वर्णिम अवसर व्यर्थ हो जाएगा। साथ ही "श्री माँ" का पूर्ण यंत्र बन पाने के कारण "श्री माँ" उससे अपेक्षित कार्य भी नहीं ले पाएंगी।

उधर नए सहजी के द्वारा किये जाने वाले 'संभावित सहज कार्य' को रोकने वाले पुराने सहजी से समस्त 'रूद्र व् गण' नाराज रहने लगेंगे जिसकी वजह से उस पुराने सहजी को हर प्रकार की भारी विपत्तियों का सामना करना पड़ेगा।

इस धृष्टतापूर्ण अज्ञानता के कारण उसकी पूरी जिंदगी अपने चक्र साफ करने व् अपनी नाडियों को संतुलित करने में ही बीत जायेगी और उसके भी 'मोक्ष' का अवसर नष्ट हो जाएगा।

अतः हम सभी को पूर्ण हृदए व् धैर्य के साथ नए 'खोजी' की समस्त जिज्ञासाओं को अपने स्वम् के द्वारा अर्जित ध्यान-साधना व् चिंतन-अनुभवों के द्वारा यथासंभव शांत करते हुए उसको सहज में पूर्ण आत्मनिर्भरता के साथ आगे बढ़ने की प्रेरणा देते रहना चाहिए।

जैसे कि संसारी माता-पिता अपनी संतानों को अपना कार्य संभालने व् आगे बढ़ाने के लिए तैयार करते हैं। और कार्य सिखाने की प्रारंभिक अवस्था में उनकी समस्त कमियों को धैर्य व् प्रेम के साथ दूर करते है और हानि उठा कर भी उसको अपने से आगे बढ़ाने में उसकी मदद करते हैं।

"श्री माँ" ने भी तो हमें ध्यान में स्थापित करने के लिए हमारे साथ अथक परिश्रम किया है व् हमारी कमियों व् अज्ञानता को बड़े प्रेम से दूर करते हुए हमें सम्हाला है। बस यही भाव हमें भी अपनी "परमप्रिय श्री माँ" का अनुसरण करते हुए अपने सहज परिवार में शामिल हुए नए सदस्यों के लिए रखना है। "

--------------------------------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"

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