Friday, May 26, 2017

"Impulses"--372--"चिन्ता"

"चिन्ता" 

"ये बहुतायत में देखने को मिलता है कि जब हमारा समय विपरीत चल रहा होता है तो हममे से बहुत से साधक/साधिका किसी किसी बात को लेकर अक्सर चिंता करते रहते हैं। 

नकारात्मक विचारो की श्रृंखला लगातार हमारे मन मस्तिष्क को उलझाती चली जाती है।जिसका दुष्प्रभाव हमारे स्नायु तंत्र पर पड़ता जाता है। 

और हम भीतर ही भीतर स्वम् को बेहद अशक्त व् दीन-हीन समझना प्रारम्भ कर देते हैं। और अवसाद की घटायें हमारी चेतना के आकाश को पूरी तरह से आच्छादित कर देती है।

शनै शनै हमारी आशाओं का सूर्य लुप्त होने लगता है और हमारी जागृति पूर्णतया अज्ञानता के तिमिर में कहीं खो सी जाती है और हम स्वम् को पराजित सा महसूस करते हैं।

क्या कभी हमने इस चिंता के ऊपर चिंतन करके देखा है कि आखिर हमें व्यर्थ की चिंताएं क्यों घेरती रहती हैं

क्यों हम इसके चंगुल में फंस कर अधो गति को प्राप्त हो जाते हैं। ?

वास्तव में हमारा जैविक शरीर केवल और केवल सत्य को ग्रहण करने के लिए ही बनाया गया है, क्योंकि इसे स्वम् "परमात्मा" ने बनाया है जो 'सत्य' का ही रूप हैं।

जब मन के माध्यम से हम असत्य को ग्रहण कर लेते है तो इस शरीर की नसों नाडियों में आवश्यक ऊर्जा का प्रवाह अवरुद्ध हो जाता है तब ये शरीर धीरे धीरे रोगी होने लगता है। इन चिंताओं के उदय होने का क्या मुख्य कारण है ?

मेरी चेतना के अनुसार किसी भी प्रकार की चिंता की उत्पत्ति वास्तव में अज्ञानता वश् 'असत्य' को मन के द्वारा 'सत्य' मान बैठने के कारण ही होती है।

यदि किसी भी कारण वश् हमें अपनी जागृति में किसी अप्रिय घटना का आभास होता है तो हमारा मन उस आभासित होने वाली अप्रियता को स्वीकार नहीं करता और प्रतिक्रिया स्वरूप हमें विभिन्न किस्म की चिंताएं प्रदान करता है।

और इसके विपरीत यदि हमें किसी सत्य का आभास हो रहा होता है, चाहे वह सत्य हमारे विपक्ष में भी क्यों हो, ऐसी स्थिति में भी हमारा हृदए उस एहसास होने वाले सत्य को तुरंत स्वीकार कर लेता है और हमें व्याकुल नहीं होने देता बल्कि धैर्य प्रदान करता है।

इसका अर्थ ये हुआ कि जाने अनजाने में असत्य की ओर जाने से चिंता उत्पन्न होती है और यकायक सत्य के विषय में सोचने मात्र से धैर्य उत्पन्न होता है।

यानि हमारा मन असत्य पर अपनी प्रतिक्रिया देता है और हमारे अंतःकरण में बैचैनी भर देता है। और हमारा हृदए सत्य को आत्म सात करता चला जाता है और हमारे भीतर अथाह शांति की अनुभूति प्रदान करता है।

इस प्रकार की समझ को उन्नत करने से हमारे अस्तित्व में साक्षी भाव व् स्थित-प्रज्ञता घटित होती है जो हमारी चेतना को विकसित करने में अत्यंत लाभकारी है।"

--------------------------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"


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