Saturday, April 9, 2011

अनुभूति----17---"अनावरण"---31.12,06

"अनावरण"


इक दिन, एक साधक की गलती पर, कुण्डलिनी कों बड़ी गुस्सा चढ़ी ,
तुनक कर वो पुन: त्रिकोणाकार अस्थि में बैठ गई,
सहस्त्रार की सारी रौनक समाप्त हो गई,
सारे चक्र भी तब जोर-जोर से चिल्लाने लगे,
कभी रुक-रुक कर तो कभी तेजी से वो चलने लगे,
सारे 'बेसुरे' होकर अपना-अपना राग अलापने लगे,
नाड़ियों की भी अब तासीर बढ़ने लगी,
'पिंगला' गर्मी से और 'इडा' ठण्ड से तड़पने लगी,
'सुशुम्मना' की भी धड़कने अब रुकने लगी,
सारे रोम छिद्र भी अब गर्माने लगे,
उनपर बैठे देव-गण सभी, गर्मी से तड़पने लगे,
पीड़ित होकर गर्म-गर्म हवा वो छोड़ने लगे,
सारे नक्षत्र भी इधर-उधर भटकने लगे,
पांचो तत्व भी कुछ बेसुध से होने लगे,
अब तो भईय्या खून का दौरा भी गड़बड़ा गया,
रास्ता भटक कर वो कहीं से कहीं तक जाने लगा,
चारों तरफ एक कोहराम सा छा गया,

इस अफरा-तफरी में 'आत्मा' की समाधी टूटने लगी,
धीरे-धीरे अध्-खुली आँखों से वो चारों ओर देखने लगी,
भूख से तड़पते देवताओं कों देख उसका हृदय पिघलने लगा,
प्रेम का लावा फूट कर 'कुण्डलिनी' की ओर बढ़ने लगा,
बड़े प्रेम से 'उसने' अपनी 'कुण्डलिनी' कों पुकारा,
सुनकर 'आत्मा' की आवाज कों, 'कुण्डलिनी' ने कर दिया अनसुना,
तब 'आत्मा' ने अपनी करुणा से 'उसका' सर सहलाया,
तब जाकर थोड़ी पड़ी 'कुण्डलिनी' के कलेजे में ठंडक,
फिर भी 'उसने' अकड़ दिखा कर 'आत्मा' कों है लताड़ा,

क्या है तुम्हारे पास, सदा चुपचाप समाधी में मगन रहते हो,
मुझको देखो, कितनी सारी शक्तियां मुझसे मिलने आती हैं,
'माँ आदि' भी मुझसे अपना खूब काम करातीं हैं,
'चित्त' के साथ 'मैं' सारे ब्रहम्मांड का विचरण करती हूँ,
'निगेटिविटी' कों खा-खाकर सारे वातावरण कों सुन्दर 'मैं' करतीं हूँ,
सबके सहस्त्रारों पर चित्त के साथ जाकर,
उनकी सोई 'कुण्डलिनीयां' 'मैं' ही तो उठाती हूँ,
'माँ अदि' भी शक्ति बनकर सदा साथ चलतीं हैं मेरे,
और कभी-कभी तो 'मैं' 'भोले' का प्रसाद भी पातीं हूँ,
सारे चक्रों कों जगा -जगा कर उनके भोजन का प्रबंध भी 'मैं' ही करतीं हूँ,

'इडा'-'पिंगला' भी मेरे मार्ग दर्शन में चलतीं हैं,
और 'सुशुम्मना' भी मेरा साथ पाकर ख़ुशी से फूली नहीं समाती है,
मेरे आने पर ही 'सहस्त्रार' 'कमल' सा खिल उठता है,
मेरा 'खिदमतगार' बनकर, 'सिंहासन' मुझे पेश करता है,
अनंत शक्तियां भी मेरे क़दमों में तब करतीं हैं सदका,
'मैं' ही तो चित्त में प्राण डालतीं हूँ,
इसकी सारी गंदगी साफ़ कर विकार रहित करतीं हूँ,
मेरे कों सहस्त्रार पर पाकर 'मन' भी अचल हो जाता है,
मेरे सिंहासन पर बैठने से ही मानव में दिव्य गुण पनपते हैं,
तब सारे 'अवगुण' समर्पण करके 'गुणों' में विलय होने लगते है,
तब जाकर 'क्षत्तरिपु' प्रभाव हीन होने लगते हैं,
और तब ही सारी इन्द्रियां आज्ञाकारी बन जातीं है,
तब निगेटिविटी निर्बल होकर साथ छोड़ जाती है,
तब जाकर 'आदि गुरुओं' की वाणी मानव कों मिलती है,

उदय हो जाता है आत्म ज्ञान का सूरज, प्रेम की लालिमा भी फूट पड़ती है,
तब सारे देव-गण बजाते हैं खुश होकर अपने-अपने मृदंग,
सुरम्य हो जाता है सारा वातावरण जब राग बिखरतें हैं,
तब जाकर मानव का अस्तित्व कुछ खोने सा लगता है,
जमा पूँजी भी 'अवचेतन' की घटने सी लगती है,
अब शांत होकर बैठ जाता है 'अतिचेतन' भी,
जाग जाता है 'सुपर कांशस' बरसो का सोया,
विलीन हो जाती है 'मानवीय चेतना' इसके प्रकाश में,
छूट जाता है मानव 'आवागमन' के झंझटो से,

इतनी बड़ी घटना घटित होती है केवल मेरे ही दम पर,
तुम हो क्या चीज, क्या कीमत है तुम्हारी,
सदा साक्षी भाव में बैठ कर ध्यान-मगन रहते हो,
इतनी मेहनत मैं करतीं हूँ तारीफ़ कभी नहीं करते हो,
जब भी तुमको सहस्त्रार से देंखूं 'बुत' से बने रहते हो,
भावनाओ के 'सात' पर्दों में तुम सदा रहतें हो,
समझ नहीं आता 'परमात्मा' ने क्यूं तुम्हे बैठाया है,
अपना नाम तुमको देकर, 'भोला-भंडारी' कहलाया है,
हर पल खाली बैठ कर, खुद कों 'भोला' कहलाते हो,
खुद कुछ काम करते हो, और ही दूसरों कों काम करने को प्रेरित करते हो,
ऐसे अजीब से 'अकर्म' में रहकर क्या ये दुनिया चल जायेगी,
क्या हाथ पर हाथ रख कर बैठने से, क्या मानव को मुक्ति मिल जायेगी,

मुझको देखो, एक पल भी मैं विश्राम नहीं करतीं हूँ,
हर पल हर घडी कुछ कुछ काम 'मैं' करतीं हूँ,
पता नहीं काहे को तुम्हे मेरा जीवन-साथी बनाया है,
कैसा ये 'बेमेल' मेरा-तुम्हारा जोड़ा बनाया है,
कितनी सारी शक्तियों और देवताओं के साथ मैं चलती हूँ,
तरसती रहतीं हूँ, तुम्हारा साथ पाने को,
कभी इसके साथ कभी उसके साथ 'मैं' होती हूँ,
लगता है आजीवन मैं, तुम्हारा साथ कभी नहीं पाऊँगी,
हर पल हर घडी तुम्हारी याद में 'मैं' तड़पती ही रह जाउंगी,
बैठे रहो यहीं हृदय में, चिर-समाधी के रूप में,
देखते तक नहीं हो मेरी सुन्दरता को, कभी आँख खोलके,

सुनकर 'आत्मा' उसकी इस शिकायत पर मंद-मंद है मुस्काई,
तब जाकर 'कुण्डलिनी' ने 'अनंत प्रेम' की इक झलक पाई,
भूल गई वो सारा झगडा 'निर्मल' प्रेम दृष्टि से,
उतर गया उसका सारा 'अहंकार' उनकी इस 'चितवन' से,
तब तेजी से उठ कर बाहर निकल गई, अपनी 'त्रिकोण-अस्थि' से,
दौड़ कर उनके गले जा लगी वो बड़ी शिद्दत से,

देखकर उसकी इस तड़प को, 'आत्मा' ने बड़े प्रेम से से है सहलाया,
थप-थपाकर उसकी पीठ को इक प्रेम गीत है गाया,
डुबा कर अपने प्रेम सागर में उसको खूब नहलाया,
रंग कर 'आत्मा' के प्रेम रंग में खो बैठी अपनी सुध-बुध,
भूल गई वो सहस्त्रार पर जाना, खो कर अपनी सुध,
तब 'आत्मा' ने बड़े अपने-पन से, कान में उसके धीरे से फुसफुसाया,
तुम मेरी शक्ति, तुम मेरी धड़कन, तुम ही तो हो मेरी चाहत,
बिन तुम्हारे क्या रखा है मेरे इस जीवन में,
दबी पड़ी थी अनेकों जन्मों से, सिर्फ तुम्हारे ही तो इन्तजार में,
कब आओगी , कब साथ रहोगी, मेरे जीवन की प्रेरणा हो तुम,
तड़पता हूँ 'मैं' सदा सिर्फ तुम्हारी याद में,
तुम्हारे छूने से ही जाती मेरी जान में जान,
वर्ना बैठा रहता हूँ दुःख की अनंत समाधी में,

तेरे आने से ही तो प्रकाशित होता मेरा रोम-रोम है,
जब होता है मेरा तुम्हारा मिलन, चक्र 'अनहद' के शोर में,
घुल जाता हूँ, मैं तेरे ही तो स्वरुप में,
घुस कर तेरे इस विलक्षण रूप में,
मैं भी तो सहस्त्रार पर जाता हूँ, तेरा ही तो हाथ पकड़ कर दौड़ लगता हूँ,
तेरे साथ ही विराज कर सिंहासन पर, 'अर्दनारीश्वर' कहलाता हूँ,
यही स्वरुप तो अंत में 'इश्वर' बन जाता है,
जिसके आगे दंडवत होता ये सम्पूर्ण ब्रहम्मांड है,
प्रेम मैं हूँ तू शक्ति है, मेरे प्रेम से ही तो तुझे गति मिलती है,
हर पल मैं ही तो तेरे हृदय में निवास करता हूँ,
बंद आँखों से हर पल तुझे ही तो निहारता हूँ,
जहाँ तू जाती है मैं भी तो तेरे साथ जाता हूँ,
तभी तो तेरे छूने से सब में फूट पड़ता है प्रेम,
यही है तो मानव का दिव्य-क्षेम,
यही भाव तो मुक्ति की अवस्था बनाता है,
यही तो केवल मानवीय चेतना के साथ जाता है,
और मेरा पुत्र मानव पूर्ण मुक्त हो जाता है,
सुनकर गहरे राज की बातें, गद-गद हो गई 'कुण्डलिनी',
हृदय में 'आत्मा' की अनुभूति करके, फिर अपने कार्य से निकल गई 'कुण्डलिनी'।


-----------------------------नारायण


"जय श्री माता जी"

Note:-"Some of you have defected Kundalini"---H.H.Shree Mata Ji Shree Nirmala Devi














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