Friday, April 22, 2011

चिंतन---27---"चेतना का अष्टम आयाम"(Eight Dimension)

"अष्टम आयाम"
(Eight Dimension)


चेतना के सप्तम आयाम को लिखते-लिखते सोच रहा था कि इसको यहीं पर समाप्त कर दूंगा परन्तु जब अंत तक पहुँच ही रहा था तो भीतर में कहीं प्रेरणा गुदगुदाने लगी कि अभी अंत नहीं अभी तो असली यात्रा शुरू ही हुई है। "अनंत का अंत कैसे हो सकता है" अत: फिर भीतर के चिंतन में और नए आयाम उमड़ने-घुमड़ने लगे जिसके परिणाम स्वरुप ये सब सामने प्रगट होने लगा।

यही 'आठवें' आयाम' का प्रत्यक्ष उदहारण है कि "ना चाहते हुए भी चाहना और चाहते हुए भी ना चाहना" सब कुछ स्वत: ही घटित होने लगता है। सातवें आयाम के स्तर वाले साधकों को जो लोग उनके नजदीक रहतें हैं वो लक्षणों के आधार पर या अनुभूति के आधार पर थोडा बहुत जान सकते है या समझ सकते हैं।

लेकिन 'अष्टम' आयाम में विचरने वाले 'शख्स' स्वम अपनी ही स्थिति के आभास से मुक्त होता है, और ना ही वो आभास ही करना चाहता है, और ऐसे साधक को समझ पाना बेहद कठिन है।

"वो 'निर्लिप्प्त' है, इसीलिए 'चित्त' भी नहीं डालना चाहता या डालता,

वो 'निरिच्छित' है, इसीलिए कोई इच्छा ना करता है और ना ही करना चाहता,

वो 'निर्विचार' है क्योंकि किसी भी कार्य को करने या ना करने की भावना से ही मुक्त है,

वो 'निर्विकल्प' है क्योंकि जानता है हर कार्य के पीछे केवल 'परमात्मा' का ही विकल्प है यानी वो पूर्ण रूप से 'परम शक्ति ' पर ही निर्भर है।"

"अष्टम आयाम के भी लक्षण हैं चार,
निर्लिप्तता, निरिच्छितता, निर्विकल्पता और निर्विचार."

आठवी स्थिति में रहने वाला साधक "परमात्मा" की शक्तियों "परमात्मा" के लिए पूर्ण रूप से निश्चित और विश्वस्त होता होता है।
वो अच्छी तरह से जानता है कि 'वो' सब कुछ अपने आप ही ठीक कर लेंगे, ना तो चिंतित रहता है और ना ही दूसरों को चिंता करने के लिए उत्साहित करता है।

ना तो परमात्मा से कुछ मांगता है और ना ही दूसरों को मांगने के लिए कहता है। क्योंकि वो जानता है कि वो परमात्मा का पुत्र/पुत्री है।
जो उसे चाहिए होगा या उसके लिए उपयुक्त होगा 'श्री माँ' उसको स्वत: ही उपलब्ध करा देंगी। वरन वह सदा देने के भाव में ही रहता है, लेकिन जब उसके अन्दर देने का भाव विकसित हो तब ही।

कोई उससे कहे कि दे दो तो जरूरी नहीं है वह दे ही दे, और कभी उससे कोई ना भी लेने की अपेक्षा करे तो 'वो' बिना मांगे ही दे देगा।
क्योंकि वो 'अन्दर' की प्रेरणा से संचालित है। क्योंकि वो भीतर से जानता है कि उसके पास 'देने के लिए ही दिया जा रहा है' अत: उसे अपने पास नहीं रखेगा।

"मांग के साथ जियेंगे तो "महा माया" मिलेंगी,
देने के भाव में रहेंगे तो "माँ आदि" की छाया मिलेगी।"

वह इसलिए माँगना नहीं चाहता कि मांगने से 'महा माया' के चक्कर में उलझने का उसे कोई डर है वरन वह इसलिए नही मांगता कि माँगना उसका 'स्वभाव' नहीं है। वो तो कहता है कि

"देना हो तो दो वर्ना बैठो आसमान पे, "आपसे" कुछ चाहेंगे नहीं, 
बस केवल और केवल "आपके" प्रेम में ही डूबें रहेंगे क्योंकि "आपके" प्रेम में डूबना मेरा स्वभाव है।"

"डूब कर "तेरे" प्रेम की "पहली ही झलक" में पहली ही बार,
ना तो और डूबना और ना ही 'उबरना' चाहता हूँ मैं,
हर पल हर घडी हर हाल में,

सिर्फ "तुझे" और सिर्फ "तुझे" ही पाता हूँ मैं"

ना चाहता हूँ मैं "तुझसे" और जुड़ना,
ना चाहता हूँ मैं तुझसे कभी बिछुड़ना,
बस तेरे बजूद को अपने में,
और अपने अहसास को तुझमें पाता हूँ मैं,
और क्या बताऊँ तेरी दुनिया को इससे ज्यादा,
नहीं जानता और क्या-क्या कहना चाहता हूँ मैं।"

'इस' आयाम की स्थिति में ऐसे साधक के 'संज्ञान' में आये बिना भी उसके भीतर में समाई 'माँ' की शक्तियां अपने आप ही कार्य करतीं हैं।
जहाँ भी जिसको जिस चीज की आवश्यकता होती है, और यदि वो इंसान 'प्रकृति' या "परमात्मा" विरोधी कार्य नहीं करता। या फिर 'सत्य' के सहयोग में ही जीवन व्यतीत करता है तो 'उसके' अन्दर की जागृत 'शक्तियां' अपने आपही सक्रिय हो जातीं है और लोगों को लाभ पहुंचाती है।

और यदि कोई 'सत्य राही' परेशानी या तकलीफ में फंस भी जाता है और वो ऐसे मानव को यदि याद भी अगर करले तो 'परमात्मा' उसके माध्यम से उस तकलीफ में फंसे मानव की मदद कर देते हैं। ऐसे उच्च दर्जे(अष्टम आयाम से युक्त) की 'चेतना धारित' मानव से मनुष्य ही नहीं वरन पूरी रचना को लाभ पहुँचता है। ऐसे साधक की यादों अहसास मात्र से ही 'कुंडलनियां' स्वत: ही उठ जातीं हैं।

क्योंकि उनका 'ऊर्जा चुम्बकीय क्षेत्र' अत्यधिक विकसित हो जाता है और उसका यंत्र अपने आप ही सबको जाग्रति देता जाता है।
ऐसे साधक से सनिग्ध्य से 'चक्र' भी अपने आप सक्रीय होने लगते है। उसको कुछ भी नहीं करना पड़ता।

यदि कहीं अनाचार भी हो रहा होता है और उसको पता भी नहीं होता है तो भी उसके अन्दर की शक्तियां 'मानवता' और प्रकृति के विरोध में होने वाले घटना क्रम को रोकने का स्वत: ही प्रयास करतीं हैं। और 'सत्य' की स्थापना में परमेशवर की मदद करतीं है।ऐसा मानव हर प्रकार से मुक्त होता है।

जैसे "सूर्य की किरणे 'घनघोर' अंधेरों में बिना 'सूर्य' की अनुमति लिए उजाला करने के लिए स्वत: ही पहुँच जाती हैं, और 'तम' को प्रकाश में परिवर्तित कर देती है।" सूरज भी अपनी किरणों को ना तो रोकता है और ना ही उसके कार्य में 'दखल' ही देता है। क्योंकि किरण उसी का ही तो हिस्सा है। और जब सूरज जानना चाहता है तो जान भी लेता है।

"अब क्या बनाऊ पहचान मैं "श्री माँ" अपनी, तुझसे अलग,
तू ही मेरा सूरज मैं हूँ तेरी 'किरण',
तुझी से जुदा हुआ था मैं युगों पहले,
अब तो बस तुझ में ही समा गया हूँ मैं,
ऐसा लगता है शायद, खुद से ही 'खुदी' को पा गया हूँ मैं,
अब क्या ये अध्यात्म और 'संसार' जुदा-जुदा लगेंगे'
अरे दोनों में ही अब 'तुझको' पा गया हूँ मैं।

"ऐसी स्थिति में "मन, आत्मा में समा जाता है और आत्मा मन के द्वारा अभिव्यक्त होने लगती है।"

"श्री रोमिल जी " ने सेमीनार में कहा था कि "मैं अक्सर ये सोचत हूँ कि "श्री शिव" को 'साकार' रूप में 'समाधिस्थ क्यों दिखाया गया है ? और 'श्री ब्रहम्मा' 'श्री विष्णु' को 'निराकार' में क्यों रखा गया हैजबकि 'श्री भोले नाथ' जी ने कभी भी मानव स्वरुप में 'अवतार' नहीं लिया।"

तो मेरे चिंतन के मुताबिक जब एक साधक में 'ब्रहम्मा विष्णु' की शक्ति ध्यान के दौरान पूर्ण रूप से जागृत गतिशील हो जाती है तो 'उस साधक' के हाव-भाव ध्यानस्थ "श्री शिव" के स्वरुप से मेल खा रहे होते है। इसका मतलब, वो 'अष्टम आयाम' के स्वाद चख रहा होता है।अतः उनका 'साकार' रुप 'प्रतीकात्मक' है, यानि वो 'ध्यान में डूबे हुए एक साधक' का ही स्वरुप है।

"यानि वह हर चीज का 'द्रष्टा' होता है, किसी में शामिल नहीं होता, प्रतिक्रिया रहित होता है। बुरे से बुरे स्थिति चीजो को बिना किसी हिचक के धारण करता है, और बुरे से प्रभावित नहीं होता। जो लोग उसके साथ छल कर रहे होते हैं, जानने के वाबजूद भी ना तो नाराज होता है और ना ही मना करता है बल्कि, उनकी मुर्खता को देखकर मंद-मंद मुस्कुराता है।

क्योंकी जानता है कि ढोकर खा कर अपने आप ही ठीक हो जायेंगे। वो किसी से कुछ चाहता नहीं क्योंकि अपनी ही जागृत शक्ति की उपस्थिति के आनंद में आनंदित होता है पूर्णता की अनुभूति से परिपूर्ण होता है।

"नाभि से 'विष' निकाल कर कंठ में अपने बसाया है,
तभी तो अपने आपको 'नील कंठ' कहलाया है,
अध्-खुली आँखों से वो मंद-मंद मुस्काते है,
हर साधक को 'मदहोशी' का इक जाम सा पिलातें हैं,
हर पल खुद को 'समाधी' में रख कर,
साधकों को भी समाधी देते जाते है,
इसीलिए हर साधक 'उनका' "सद-चित्त-आनंद कहलाता है।"

सांसारिक जीवन में 'आंठ्वे आयाम' में रहने वाले साधक के बाहरी लक्षण बिलकुल आम लोगों जैसे ही होते है। वो चेतना के हर आयाम का विचरण करते हुए हर आयाम का आनंद उठा रहा होता है। यह सब देखकर अक्सर लोगों को भ्रम होने लगता है कि वो ध्यान की गहनता में मौजूद है भी कि नहीं है।

क्योंकि वो जिस आयाम में भी होता है उसको भरपूर जीता है उसमे पूरी तरह डूबा हुआ नजर आता है किन्तु अन्दर से पूरी तरह 'निरलिप्त' होता है।जो भी उसे मिलता है बिना किसी काल, परिस्थिति, उंच-नीच भेद-भाव के उसे ख़ुशी -ख़ुशी ग्रहण करता है और आनंदित होता रहता है।

"वो 'अति-महत्वाकांक्षी' कभी नहीं होता वरन 'विकास-शील होता।" जीवन के हर पहलू में वो विकसित होता जाता है। और अपने विकास के प्रति पूर्ण जागरूक होता है। क्योंकि विकसित होकर वो ऑरों को भी विकसित होने की प्रेरणा देता है। जीवन के बाह्य विकास-क्रम के प्रति पूर्ण रूप से जागृत होता है।

क्योंकि वो जानता है कि 'परमपिता' इस बाहरी संसार, जो दृष्टि-गत है, उसमें भी समायें हुए है। और ये सारा 'जगत उन्ही की ही रचना है। इस 'घोर कलयुग' में वो दिखाने के लिए साधुओं त्यागियों जैसे वस्त्र धारण नहीं करता बल्कि अन्दर से वैसे ही होता है।

वो झूठ नहीं बोलता, झूठ का प्रचार नहीं करता, किसी को कभी नहीं ठगता, दिखावा नहीं करता, लोगों को किसी भी तरह से प्रभावित नहीं करता।
जो भी ज्ञान 'श्री 'माँ' ने उसे दिया होता है वो बिना किसी भेद भाव के सभी तक पहुंचाने का प्रयास करता है। अक्सर तठस्थ रहता है, बढ़ा-चढ़ा कर कभी भी बात नहीं करता। कभी अपने आप से आगे नहीं आना चाहता।

बल्कि 'सत्य' पर चलने वालों को ही आगे लाना चाहता है, किसी भी पद पर बैठना नहीं चाहता क्योंकी वह स्वम-के-गुरु' पद पर पहले से ही आसीन होता है। लेकिन जहाँ पर 'सत्य' की खिलाफत हो रही होती है तो धैर्य के साथ सत्य' को स्थापित करता है, और कोई उसे काट भी नहीं पाता।

"जिसने केवल पढ़ा, वो बुरी तरह जड़ा, जिसने अनुभव किया, केवल वही आगे बढ़ा।"
"केवल पढते या सुनते ही रहने से जढ़ता की उत्पत्ति होती है, और अनुभूति से दृढ़ता की।"

("'God' is the 'Dictionary' and 'Spirit' is the Vocabulary'")


-------------------------------Narayan
:"Jai Shree Mata Ji"

-------------------------------to be continued,

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