Wednesday, April 20, 2011

चिंतन---26---"सप्तम आयाम"(Seventh Dimension)

"सप्तम आयाम"
(Seventh Dimension)


चेतना के सातवें आयाम में मानव इच्छा से भी मुक्त होता है। किसी को कुछ मिल रहा है या किसी का कुछ मिट रहा है उसे कोई फरक नहीं पड़ता।
वो अच्छे से समझता है कि जो कुछ भी हो रहा है वो सिर्फ और सिर्फ "परमात्मा" की इच्छा से ही हो रहा है। 

ऐसी अवस्था में उसका चित्त तो कुण्डलिनी पर होता है, ना चक्रों पर होता है ना हीअपनी नाड़ियों पर होता है और ना ही वो चैतन्य को चैक कर रहा होता है। और ना ही अपने भीतर में "परमात्मा" को महसूस करने पर होता है। क्योंकि वो जानता है कि वो और "परमात्मा" एक ही हैं।

"परमात्मा" उसके माध्यम से बिना उसकी इच्छा के अपने आप उससे कार्य लेते जाते है। वो जहाँ भी उसे भेजतें है वो वहां चला जाता है, जो उससे कराते हैं वो कर देता है, जो उससे बुलवाते है वो बोल देता है, जो उससे सोचवाते हैं वो सोच लेता है, जो लिखवाना चाहते हैं वो लिख देता है।

जो भी उससे 'वे' करवाते हैं उसके परिणाम स्वरुप यदि उसे प्रशंसा मिलती है तो वह साधक उसका श्रेय अपने पर नहीं लेता और यदि उसे बुराई मिलती है तो वो उस बुराई से भी प्रभावित नहीं होता।

वो तो कहता है कि जैसी प्रेरणा "परमात्मा" ने दी है वो तो वही कर रहा है। चाहे कोई उसका बुरा माने या भला उससे उसका कोई सरोकार नहीं है।
वो तो बस करता ही जाता है और "परमात्मा" उससे कराते ही जाते हैं।

यदि कोई उससे बुरा व्यवहार करे तो भी वो नाराज नहीं होता चाहे कोई उसकी बे-इज्जती भी करदे तो भी वो प्रभावित नहीं होता।हाँ, यदि कोई उसका सत्य के रास्ते में रोड़ा अटकाने का प्रयास करे या फिर उसे रोकने का प्रयास करे तो उसका हृदय तीव्र शक्ति की अग्नि से धधकने लगता है। और सामने वाले को उसमे अपना काल नजर आता है। ऐसी स्थिति में उसका सामना करना नामुमकिन होता है। रोकने वाले की टाँगे कांपने लगतीं हैं और डर के मारे वो भाग जाता है। 

साधारण स्थिति में उसके चेहरे पर सदा कायम रहने वाली एक मोहक 'मुस्कराहट' होती है, उसका चेहरा सदा कमल की तरह हर परिस्तिथि में खिला-खिला सा ही नजर आता है। और उसकी हंसी एकदम निश्छल होती है, वो हमेशा खिल-खिला कर हँसता है, जिससे सारा माहौल तरंगित हो जाता है।

चाहे कोई कितना भी दुखी क्यों ना हो उसकी उपस्थिति में उसके मुरझाये चेहरे पर एक भीनी सी मुस्कराहट ही जाती है। उसकी उपस्थिति "परमात्मा" का आशीर्वाद होती है, कुछ लोग उसको सामने पाकर कमल से खिल उठते हैं, और कुछ लोगों के दिल गुलाब से महकने लगते हैं।

और कुछ 'निम्न'स्तर की चेतना से बाधित लोग अपने भीतर भयंकर ईर्ष्या की अनुभूति करते हैं और वहां से भाग जाते है। कोई भी नकारात्मकता से घिरा मानव उसकी उपस्थिति या उसकी बातों या चर्चा को सहन नहीं कर पाता और मौका मिलते ही बुराइयाँ फैलाने में लग जाता है। पर उसके सामने वो उसकी बुराई कराने से डरतें हैं क्योंकि उससे फूटने वाली उच्च 'आवृति' की चेतना युक्त तरंगे किसी भी मानव के भीतर में छुपी बुराइयों या अच्छाइयों को मन की सतह पर लाने में सक्षम होती है।

उसका अस्तित्व सभी की चेतना, कुण्डलिनी आत्म-तत्व को अपनी ओर खींचने में सक्षम होता है। सभी अच्छे सच्चे मानव उसकी ओर स्वत: ही बिन डोर ही खींचते ही चले जातें हैं। एक अजीब सी किन्तु बहुत ही सुखद कशिश उसके प्रति कुछ लोग महसूस करतें हैं। अक्सर सभी लोग उससे अपनी सभी तरह की बातें पूरे विश्वास केसाथ उससे शेयर करते हैं और अपने को हल्का महसूस करते हैं।

अक्सर सभी लोग उसमे विश्वास करतें है कि यह शख्स हमारी बातों को समझ कर हमारे लिए कोई हल निकाल देगा। और वो भी सभी के विश्वास को निभा पता है।सभी सत्य-साधकों के लिए उसके हृदय में सामान रूप से प्रेम रहता है। हर पल हर-एक की आन्तरिक स्तर पर मदद करने के लिए वो तैयार रहता है।

एक और उसकी विशेषता होती है, यदि कोई उसे मूर्ख बनाना चाहता है तो जानने के वाबजूद भी वह उसका मन रखने के लिए ख़ुशी-ख़ुशी मूर्ख बनना पसंद करता है। वो चाहता है कि उसको बेफकूफ समझने वाला व्यक्ति अपने कार्य में सफल हो जाय अपनी इच्छा को पूर्ण करले। लेकिन बाद में वो उसको उनकी चालाकियों के लिए जरूर बता देता है। वो उसको ठीक होने का मौका देना चाहता है। इसीलिए उसको उसके मन की करने देता है।

ऐसा व्यक्ति वास्तव में पूर्ण रूप से निर्लिप्त होता है, वो सबमें शामिल होते हुए भी भीतर से शामिल नहीं होता। वो तो केवल अपने में ही समाया हुआ होता है। वो एक तरह से "गले तक भरी हुई गागर की तरह होता है जिसे तो भरने की जरुरत होती है और ही वो गागर छलकती ही है।"
ये मानव पूरी तरह से जिन्दगी और मृत्यु की इच्छा से मुक्त होता है।

जब तक "परमात्मा" जीने की प्रेरणा देते हैं जीता है और जब भीतर में प्रेरणा आती है कि ये जीवन को समाप्त करो तो वो 'उनकी' इच्छानुसार अगली यात्रा पर निकल जाता है। शरीर होते हुए भी उसकी चेतना शरीर में नहीं रहती। वो तो रहता है "परम" की इच्छा में जहाँ 'वो' उसको रखना चाहते है। और उसका चित्त सदा 'पर-कल्याण' पर ही लगा होता है।

वो कभी भी किसी भी हालत में याचना नहीं करता वो केवल देता होता है। उसे किसी से कुछ भी नहीं चाहिए जो उससे कुछ भी चाहता है यदि वो सत्य-गत होता है तो उसे अवश्य पूरा कर देता है। वो हर एक की इच्छा का सम्मान करने का प्रयास करता है। किसी का भी दिल भूले से भी दुखाना नहीं चाहता।

वो तो एक जंगल में विचरण करने वाले स्वतंत्र सिंह की तरह होता है। वो किसी की आज्ञा से कार्य नहीं करता वरन अपनी उच्च दर्जे की चेतना के माध्यम से सारा कार्य सम्पादित करता है। वो तो कहता है "मुझमें तू और तुझमें मैं"

लिखने का तो कोई अंत नहीं है क्योंकि अनंत से जुड़ाव है। इसलिए अभी के लिए विराम। "ध्यान की यात्रा 'मन' से प्रारंभ होती है और 'अमन' पर जाकर समाप्त हो जाती है।"


" इती श्री "या इती प्रारंभ"
---------------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"

----------------------------to be continued,

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