Wednesday, April 20, 2011

चिंतन---24---"पंचम आयाम"(Fifth Dimension)

"पंचम आयाम"
(Fifth Dimension)


जब साधक की चेतना 'साधना' के पांचवे आयाम से गुजर रही होती है तो वह अपने लिए कुछ भी करना नहीं चाहता, वह सदा दूसरों के कल्याण के लिए ही जीता है।प्रथम अवस्था के भाव में अपने को भी वह एक दूसरे व्यक्ति के रूप में देखता है। अपने में लिप्त नहीं होता।

अपने शरीर को , अपने मन को, अपने व्यक्तित्व को, अपने सूक्ष्मयंत्र को, अपने मस्तिष्क को, अपने विचारों को, अपने पूर्व संस्कारों को, अपने भीतर में उठने वाले भावों को, अपनी कुण्डलिनी को, अपनी जीव-आत्मा को, अपनी आत्मा को, अंतत: अपने ही भीतर में उपस्थित ऊर्जा की विभिन्न अभिव्यक्तियों के रूप में उपस्थित 'परमात्मा की शक्ति' "आदि शक्ति" को अलग-अलग कर के महसूस कर पाता है।

इन सभी संस्थाओं की विभिन्न आवशयकताओं के प्रति पूर्ण रूप से जागृत होता है, और उनकी पूर्ति के प्रति कर्तव्य-निष्ठ होता है। इन सभी स्तरों को साक्षी बन कर अनुभव करता है और इनको ऐसे मानता है जैसे अलग-अलग स्वभाव वाले व्यक्ति उसके भीतर अनेकों प्रकार के व्यक्तित्वों के रूप में उपस्थित हैं।

इन सभी के प्रति उसके मन में करुणा बहती है। क्योंकि 'वो' समझ पाता है कि इन सभी की रचना स्वम 'परमपिता' ने की है। इन सभी की भिन्न-भिन्न जरूरतों को पूरा करने के लिए स्वम के भीतर 'परमात्मा' को महसूस कर उनकी 'दिव्य ऊर्जा' से इन सभी 'संस्थाओं' को सराबोर करता रहता है।

क्योंकि 'वो' समझ पाता है कि ये सभी जीवंत अस्तित्व है और इन्हें भी अपनी-अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त होना है। समस्त 33 करोड़ देवी-देवता जो उसके भीतर हैं उनकी मुक्ति का प्रबंध उसने ही परमात्मा' के साथ जुड़कर करना है। अपने इस 'शरीर रूपी' मंदिर को उसने स्वच्छ रखना है।

दूसरी अवस्था के भाव में वह परमात्मा के द्वारा निर्मित हर प्राणी रचना के प्रति सच्चा प्रेम रखता है सभी के भीतर में 'परम-प्रिय परमात्मा' को चित्त के माध्यम से ऊर्जा के रूप में अपने सहस्त्रार मध्य हृदय में अनुभव करता है।

उनकी बनाई इस पृथ्वी से बहुत प्रेम करता है। उनके द्वारा रचित 'सुदूर' दुनिया, ग्रह-नक्षत्रों, आकाश-गंगाओं अनंत ब्रहम्मांड में चित्त रुपी 'यान' द्वारा अपने 'प्रिय' परमात्मा को अपने सहस्त्रार मध्य हृदय पर महसूस करता है। 'उनकी' उन स्थानों पर व्याप्त शक्तियों का 'विभिन्न चैतन्य धाराओं' के रूप में स्वाद चखता है।

इस धरती के कोने-कोने पर कण-कण में व्याप्त "आदि शक्ति" को चित्त की सहायता से अपने दोनों मुख्य केन्द्रों पर महसूस करता है आनंदित होता है। वह ये तकनीकी रूप से जान जाता है कि भगवान कण-कण में होते है।

तीसरी अवस्था के भाव में वह समस्त चरा-चर जगत को, अपने भीतर में 'ऊर्जा धाराओं'(चैतन्य) के रूप में आने वाले जागृत होने वाले 'परमपिता' जो स्वम अपनी शक्ति' "आदि शक्ति" के रूप में उसके भीतर प्रवाहित हो रहे है, को अपने प्रकाशित चित्त के द्वारा वांछित स्थानों, मानवों, प्राणियों, समस्त प्रकृति प्रदत्त सम्पददा को चैतन्यतित करता है। ताकि इन सभी में व्याप्त "आदि शक्ति" के अनुपात को अपने स्वम से जोड़ कर जागृत कर अपने स्वम् में जागृत कर सके।

वो किसी भी मानव के भीतर में 'चित्त रूप' में परिवर्तित होकर (सूक्ष्म होकर) उसकी शारीरिक व्याधियों को दूर करने का प्रयास करता है। मन में प्रवेश करके उनके मन को जड़ताओं से हटा कर उसमें परमात्मा का प्रेम भर देता है। किसी के घर पर चित्त की सहायता से जाकर उसके घर के कुल देवताओं स्थान देवताओं को जगा कर उन्हें 'परम शक्ति का प्रेम' देकर उन्हें आराम देता है।

विश्व्यापी समस्याओं पर चित्त के द्वारा 'परमेश्वरी' के प्रेम को बहा कर उनके निराकरण का प्रयास करता है। आने वाली प्राक्रतिक आपदाओं के समय उत्तेजित 'पञ्च तत्वों' को चित्त की सहायता द्वारा अपने भीतर में जागृत 'माँ जगदम्बा' का प्रेम देकर उन्हें शांत करने का प्रयास करता है।

सद कार्यों के लिए सभी को उत्साहित करता है। और जो भी ज्ञान प्रेम 'परमात्मा' ने उसे दिया है वो सभी को खुले हृदय बांटता है।
कोशिश करता है कि सभी लोग 'परमात्मा' के द्वारा बनाई गई इस दुनिया को बचाने का प्रयास करें। यानि वो जो भी करता है कल्याण कारी ही होता है।"

--------------------------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"

---------------------------------to be continued,

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