Wednesday, April 20, 2011

चिंतन---23---"चतुर्थ आयाम"(Fourth Dimension)

"चतुर्थ आयाम"
(Fourth Dimension)


जब मानव को उपरोक्त रिश्तों से भी पूरी तरह सुरक्षा प्राप्त नहीं होती या 'वो' फिर इन रिश्तों से कष्ट उठाता है, या उपरोक्त रिश्ते उसके जीवन में उपलब्ध नहीं होते, या किसी प्राकृतिक आपदा या मानवीय भूल के कारण नजदीकी लोग मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं, या उपलब्ध रिश्तों से वो संतुष्ट नहीं होता, या 'वो' रिश्तों से उदासीन हो जाता है तब ही जाकर उसके अन्दर की चेतना 'चौथे आयाम' की और उन्मुख होती है।

यानि कि अब उसका चित्त इन सभी खुली आँखों से दिखने वाली चीजों भीतर में कहीं उठने वाली भावनाओं को उत्पन्न करने वाले 'सृष्टि कर्ता' की ओर मुड़ता है।जिसे आम जीवन में भगवान्, इश्वर, खुदा, वाहे गुरु, भगवती माँ, God, इत्यादि के नाम से जाना जाता है। 

'परमात्मा' की ओर मुड़ने में मुख्य रूप से 'चार' ही मार्गों की भूमिका रहती है।"'और वो हैं 'दीनता', 'हीनता', 'दरिद्रता' और 'ख़ोज'"

पूर्व जन्म के कुछ अच्छे कर्मो के फल-स्वरूप उपरोक्त चारो मानसिक अवस्थाओं से गुजर कर 'वो' 'शुभ' दिवस भी जाता है जब उसे कोई 'सद-मार्ग' मिल जाता है। तब वो सच्चे हृदय पूर्ण श्रद्धा समर्पित भाव से 'उस' मार्ग को जागृत करने वाली 'शख्सियत' के आगे 'दंड-वत' हो जाता है और अपने "त्रि-आयामी" व्यक्तित्व को 'उस महान' व्यक्तित्व के आगे 'शून्य' कर 'उसके' बताये अभ्यास को पूरी निष्ठा के साथ करता है और धीरे-धीरे अपने 'वजूद' को 'उस' उच्चतम' अस्तित्व में समाहित करता जाता है।

और एक दिन अपने भीतर में 'उसकी' ऊर्जा को अपने भीतर में अपने विभिन्न 'शक्ति-केन्द्रों' पर अनुभव करता चला जाता है। और अंतत: अपने ही 'मध्य हृदय' में 'उसके पवित्र स्वरुप' 'उसकी' भीतर में उपस्थिति को महसूस कर लेता है और आश्वस्त हो जाता है। अब उसका विश्वास निखरने लगता है, धीरे-धीरे उसे 'परमात्मा' की अपने में ही अनुभूति होने लगती है और 'वो' आनंद मई स्वरुप उसे 'परमात्मा' का ही लगने लगता है।

और उसी के भीतर वो अपने 'आत्म तत्व' को आभासित कर पाता है और अपने ही 'आत्म-तत्व' में उसे 'परमात्मा' की अभिव्यक्ति होने लगती है, उसे लगता है कि 'तू' कुछ और नहीं उसी 'परम' का अंश है। ये वो स्थिति होती है जब उसे अपने ही व्यक्तित्व के भीतर एक नए किन्तु अपनापन लिए हुए आनंदमई अस्तित्व की अनुभूति होती है। ये सब अनुभव करते-करते उसको ऐसे-ऐसे विचार आते हैं जो उसकी सोचों से परे थे, उसे खुद पर आश्चर्य होता है कि ये वो क्या सोच रहा है, ये कहाँ से रहा है।

उसके हृदय में नितनए-नए भाव विचार जन्म ले रहे होते है। वो जिस चीज को भी देखता है उसकी पूरी की पूरी कहानी उसे पता चलने लगती है।
किसी भी मनुष्य से मिलता है तो जाने कैसे उसके मनो भाव खुद उसी के भीतर प्रगट होने लगते हैं। वो नहीं समझ पता कि कैसे उसे दूसरों की सोचो का अन्दर से ही पता चल रहा है। अनजाने में वो लोगों को उन्ही की बातें बिना उनसे पूछे ही बता रहा होता है। लोग आश्चर्य करते हैं कि इसको हमारी बातें कैसे पता लग रहीं है।

जब भी ऐसा व्यक्ति कही भी 'जाग्रति' देने जाता है तो उसे कोई भी तैय्यारी नहीं करनी पड़ती। जब भी कार्यक्रम प्रारंभ होता है बस वो खड़ा होता है और 'श्री माँ' को प्रणाम करके माइक पकड़ता है और खुद--खुद उसके अन्दर से अति सुन्दर ज्ञान प्रगट होने लगता है। ये ज्ञान उसके लिए भी कुछ नया सा होता है जो उसने कभी भी नहीं बोला लेकिन कभी कभी भूत काल में उससे गुजरा अवश्य होता है लेकिन उसने उन पूर्व की बातों को 'संज्ञान में नहीं लिया होता।

यानि कि, बिना किसी समझ के हम जो भी बात सुनते, देखतें, पढ़ते हैं या समझने का प्रयास करते हैं वही बातें बड़े ही सुन्दर संयोजित तरीके से एक 'विलक्षण प्रवाह' के रूप में पुनह: समूह के सामने जाती हैं। जिन बातों का जीवन के किसी किसी मोड़ पर हमने चिंतन किया होता है वो सभी भाव बाते एक अभूत-पूर्व सूत्र में पिरकर हमारे ही मुख से दुबारा प्रगट होती है।

यानि कि जब 'ईश अस्तित्व' हमारे भीतर में मुखरित होता है तो हमारे मस्तिष्क में समाई समस्त यादों को संयोजित तरीके से यानि उसी व्यक्ति के बाहरी, शाब्दिक या अनुभव पर आधारित ज्ञान को एक 'अमृत वाणी' के रूप में प्रगट करता है जिसे मेरी चेतना के अनुसार 'बैखरी' कहा गया है। इस प्रकार की वाणी को सुनकर अन्य लोगों की 'मृत' अवस्था में पड़ी सुन्दर-सुन्दर भावनाएं पुनह: जागृत हो जातीं हैं और अपने भीतर में दाखिल हुए प्रेम के प्रवाह के कारण प्रारंभिक अवस्था में अक्सर उन सभी की आँखे नम भी हो जाती है।

क्योंकि उन सभी को लगता है कि कोई है जो मेरे पीडाओं और दुखो को समझ कर उनके दूर करने का कार्य कर रहा है। और ऐसा साधक सभी को बेहद प्रिय होता है। और ऐसे साधक से जुड़ना 'लिप्तता' नहीं कहलाती है। क्योंकि उसके भीतर से "परमात्मा" का दिया हुआ 'शुद्ध' प्रेम बह रहा होता है।

और ऐसे ही सत्य-साधकों से अक्सर 'अध्यात्मिक संस्था' को चलाने वाले लोग बेहद 'ईर्ष्या' करते है और उनका उल्टा-सीधा प्रचार करते रहतें है और कभी-कभी तो इतने अच्छे साधकों के ऊपर 'चरित्र-हीनता' के आरोप भी जड़ देते है। क्योंकि उनको लगता है कि ये साधक हम लोगों से बहुत ऊपर है, अगर ये आगे बढ गया तो हमको कौन पूछेगा।

अतः अपनी ही 'नाकारात्मक' भावना से वशीभूत होकर 'माइक' पकड़ कर 'नियमों, प्रोटोकॉल, अनुशासन इत्यादि का सख्ती से पालन करवाने के लिए 'लेक्चर' देते रहते है। क्योंकि उनके पास 'चैतन्य लहरियों' की विभिन्न आवृतियों गहनता को समझने अनुभव के माध्यम से उनका मतलब निकालने की अच्छी समझ नहीं होती।

क्योंकि 'अहंकार' के कारण उन्होंने किसी अन्य को अपने से श्रेष्ठ मानने की कभी कोशिश भी नहीं की और ही अच्छे अनुभवी साधको के अनुभवों को अपनाने का प्रयास ही किया है। केवल और केवल संस्था में जोड़-तोड़ करने में ही अपना कीमती समय गवायाँ है। ऐसे लोग चैतन्य की भाषा कैसे समझेगें। ये स्थिति सामूहिकता के लिए बड़ी ही दुखद स्थिति है।

जब कोई मानव की चेतना 'चतुर्थ आयाम' के विभिन्न 'सोपानो' से गुजर रही होती है तो उसकी चेतना स्वत: ही उस 'प्रोटोकाल' का पालन कर रही होती है जो समस्त मानव-जाति,समस्त प्राणियों, समस्त तत्वों,समस्त ग्रह-नक्षत्रों, सम्पूर्ण प्रकृति समस्त परमात्मा के द्वारा रची गई रचना के अनुकूल होती है।

क्योंकि इस 'चौथे आयाम' में एक साधक "परमात्मा" के द्वारा अपने ही 'मध्य हृदय' में दी गई 'प्रेरणाओं' पर आधारित कार्य करता है उन्ही के मुताबिक जीता है। उसको किसी और के द्वारा सिखाने की कोई जरुरत नहीं रह जाती है। यानी कि सम्पूर्ण रचना के "रचनाकार" का कुछ अनुपात उसके हृदय में जागृत हो गया है।

और ऐसे जागृत लोगों से बात करते-करते या ऐसे लोगों के बारे में सोचने मात्र से हमारे 'मध्य-हृदय' हमारे 'सहस्त्रार' पर कुछ कुछ ऊर्जा की सुखद प्रतिक्रिया होने लगती है। अक्सर देखा गया है कि मध्य हृदय सहस्त्रार में शीतलता, खिंचाव(some sort of vacuum), हलचल या फिर फडकन जैसी अनुभूति होती है। यह एक शोध का विषय है।

कभी-कभी तो 'परमपिता' अपने आप को प्रमाणित करने के लिए उस काल में 'अवतरित' स्वरुप में, स्वप्न अवस्था में या ध्यान के दौरान या फिर 'दिवा-स्वप्न' के माध्यम से प्रगट होते है और साधक के विश्वास को और बढ़ा देते हैं। किन्तु यह तब ही होता है जब कि साधक को पूर्ण-विश्वास नहीं हो पाता। अज्ञानता में इन दर्शनों की भी चर्चा सहजी और दूसरे सहजियों पर प्रभाव डालने के लिए करतें हैं। और बाकी सहजी जिन्होंने ये बातें सुनी हैं अपने आप को उस 'महान' सहजी से निम्न समझ कर अपने को हीन समझतें है।

यदि बुरा माने तो ऐसे 'दर्शन करने वाले' साधको से मेरी चेतना का अनुरोध है कि "जब स्वम 'भगवान' चुपचाप से आपको दर्शन दे गए, 'वो' स्वम अपने दर्शनों को 'सीक्रेट' रखना चाहतें हैं, तो आप उनके साथ 'विश्वास-घात' क्यों कर रहें हैं। क्यों 'उनके' आने का ढिंढोरा पीट कर "उनको" 'शर्मिंदा' कर रहें हैं दूसरों पर दर्शनों का 'रौब' दिखा कर दूसरों को 'हीन' अपने को 'श्रेष्ठ' समझने गलती कर रहें है।"

----------------------------------------------------Narayan
"Jai Shree Mata Ji"

------------------------------to be continued,

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