Wednesday, April 20, 2011

चिंतन---25---"षष्टम आयाम"(Sixth Dimension)

"षष्टम आयाम"
(Sixth Dimension)


चेतना के छठे आयाम में जब मानवीय चेतना रहने लगती है तो वह मानव प्रयास रहित अवस्था में प्रवेश कर जाता है। ऐसी अवस्था में उसका सहस्त्रार पूर्ण रूप से खुल जाता है और दूसरों की कुंडलनियाँ ऐसे लोगों के सहस्त्रार की ओर स्वत:ही खिंचती हैं और शक्तियां ग्रहण करतीं जाती है।

और उसके सहस्त्रार पर आसीन "माँ आदि शक्ति" से जुड़कर स्वम भी शक्ति शाली होती हैं और ऐसे मानवों को और भी शक्ति शाली बनातीं जाती है। ये सब अपने आप ही घटित होता जाता है।"जैसे एक नदी में कई धाराएँ मिलती जाएँ और फिर उस नदी से कितनी ही और धाराओं को जन्म दिया जा सकता है।"

'जीसस' ने कहा था कि "मैं सर पर दहकते हुए शोलों के रूप में प्रगट होऊंगा"(I will come in the form of flames) और उस मानव के सर पर भी लपटों के रूप में प्रकाश दिख सकता है।

ये अनुभव 'श्री माता जी' ने भी अपने सहस्त्रार खुलने के बारे में भी बताया था, 'उन्होंने कहा था कि "जब मेरा 'सहस्त्रार खुला तो 'औरेंज-कलर' का प्रकाश मेरे सर से फूट रहा था।"

ऐसी अवस्था में वह मानव पूरी तरह से भय रहित होता है। और उसका व्यवहार अति साधारण सरल होता है। वो हर बात में "परमात्मा" को आगे रखता है। जो भी उसे मिलता है वह सहर्ष स्वीकार करता है। उसकी पसंद नापसंद दोनों ही लगभग समान हो जातीं हैं।

प्रतिक्रियाएं लग-भग समाप्त ही हो जाती हैं, परन्तु यदि कोई भी घटना या बात सत्य के खिलाफ हो तो उसका पूरा अस्तित्व प्रतिक्रिया करता है और उसे स्वीकार नहीं करता तथा उसके भीतर से अत्यंत शक्ति-शाली ऊर्जा प्रसारित होती है और उस घटना को रोकने या समाप्त करने के लिए कार्यान्वित हो जाती है।

उसका मन निष्क्रिय उसकी सूक्ष्म शक्तियां सक्रीय हो जाती हैं। वह बाहर से कोई प्रयास नहीं करता बस केवल उसकी सत्य की रक्षा के प्रति संवेदना ही कार्यान्वित होती है। वो सत्य की स्थापना के लिए कोई योजना नहीं बनता अपितु "परमपिता" उसकी सत्य की रक्षा करने की इच्छा को स्वत: ही घटित कराते हैं।

जो भी उसके अन्दर भाव जन्म लेता है वो स्वत: ही पूरा होने लगता है। या यूँ कहिये 'परमपिता' उसके अन्दर अपनी इच्छा से प्रेरणा डालते हैं और बस उसके हृदय में उससे केवल 'अपनी' इच्छा का अनुमोदन ही कराते हैं।

क्योंकि " माँआदि शक्ति" इतनी निर्लिप्त हैं कि यदि मानव कोई इच्छा ही करे तो वो भी कुछ नहीं करेंगी। इसी लिए वो हमारे भीतर मध्य-हृदय में 'श्री जगदम्बा' के रूप में जागृत होकर मानव से स्वम इच्छा कराती हैं और मानव की इच्छा को स्वम कार्यान्वित करतीं हैं। क्योंकि 'भगवान्' अपने ऊपर किसी की खुद मदद करके 'पक्ष पाती ' नहीं कहलाना चाहते। जब भी यदि कोई उनसे प्रश्न करदे तो 'वो' यही कहेंगे कि उसने मुझसे कहा तो मैंने कर दिया।

इसीलिए 'वो' राक्षसों को भी वर दे देते हैं और जब मानव-जाति त्राहि-त्राहि करने लगती है और "परमात्मा" से मदद मांगती है तो किसी किसी 'अवतार' को भेज कर उस राक्षस का अंत करा देते है। इसीलिए 'श्री आदि माँ' से आत्म-साक्षात्कार माँगना पड़ता है।

किन्तु जो 'श्री माँ' के द्वारा 'पुनर्जीवित' किये गए मानव (सत्य साधक) हैं जब वे छठे आयाम में होते हैं तो उन बच्चों की मात्र इच्छा भी 'श्री माँ' की शक्तियों को कार्यान्वित कर देतीं हैं। और उन बच्चों के सहस्त्रार से बिना चित्त डाले या हाथ उठाये दूसरों की 'कुण्डलिनी माँ' जागृत हो जाती हैं।

क्योंकि 'आदि शक्ति' तो शुद्द इच्छा से संचालित हैं। इस अवस्था में चित्त डालने से भी मुक्ति मिल जाति है।इस प्रकार के प्रयोग हम कई बार करके देख चुके हैं। ऐसे "माँ" के बच्चे साक्षात 'संत' ही बन जाते हैं "परमपिता" की वास्तविक संतान ही बन कर 'उनके' ही द्वारा संचालित होते है।

और ऐसी अवस्था में जाति-बंधन,धर्म-बंधन,समस्त प्रकार के कर्म-कांड, चिंताएं, मृत्य क़ा भय, कोई भी लालसा, लिप्सा, शोक, संताप दुःख इत्यादि से काफी हद तक मुक्ति मिल जाति है। ऐसा साधक समभाव में स्थित हो जाता है। वह "परमात्मा" के साथ जुड़कर "उनकी" श्रृष्टि चलाने में उनकी मदद करता है।

यही वो कारण है जिसके कारण 'भगवान्' ने मनुष्य को जन्म दिया है। समस्त प्राणियों मेंश्रेष्ठ मानव को 'उन्होंने' अपना सबसे बड़ा पुत्र माना है।
और उससे अपेक्षा की है कि मानव "मेरे" समस्त प्राणियों इस पृथ्वी माँ का ध्यान रखे इसके संचालन में मेरी मदद करे। यही तो 'श्री माँ' हम सब चाहतीं हैं।"

----------------------------------------------Narayan
"Jai Shree Mata JI"

----------------------------to be continued,

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